स्टेशन से ट्रेन छूटने ही वाली है। यात्री अभी भी ट्रेन पर चढ़ रहे हैं। सालों से इस प्रक्रिया में अभ्यस्त हो चुके लोग भीड़ होने के बावजूद ट्रेन में चढ़ने में सफल हो जाते हैं। अचानक से यात्रियों का एक रेला आ गया। इन्हें भी ट्रेन में चढ़ना था। लेकिन, ये लोग चढ़ नहीं पाए क्योंकि ट्रेन अब इससे ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती थी।
ऐसा ही कुछ पूर्वी लद्दाख में भी हो रहा है जहां गुज़रे तीन महीने से ज्यादा वक़्त से भारतीय और चीनी सैनिक अलग-अलग जगहों पर आमने-सामने खड़े हैं।
हालांकि, दोनों पक्ष पीछे हटने को लेकर बातचीत कर रहे हैं, लेकिन नाम न जाहिर करने की शर्त पर भारतीय सेना के एक अफसर कहते हैं कि भारतीय सेना ने फै़सला किया है कि अपनी मौजूदगी को मज़बूत करने के लिए इस इलाके में भेजे गए अतिरिक्त बल फिलहाल वहीं बने रहेंगे।
यानी अब सैन्य बल इस इलाके में सर्दियों में भी बने रहेंगे और यही बात मौजूदा हालात की गंभीरता बताती है।
पूरा मामला शुरू से समझते हैं
लद्दाख में हर साल गर्मियों का सीज़न शुरू होने के साथ सड़कों से बर्फ हटाने का काम शुरू हो जाता है। इस दौरान सर्दियों के लिए सैनिकों को रसद मुहैया कराने का काम शुरू हो जाता है क्योंकि सर्दियों में यहां रास्ते बंद हो जाते हैं और सैनिकों तक सामान पहुंचाना मुश्किल हो जाता है।
गर्मियों में सड़क के रास्ते लद्दाख जा चुके किसी भी शख़्स के लिए लंबे और एक तरह से ख़त्म न होने वाले सेना के काफिले देखना आम बात है। इन काफिलों के ज़रिए सर्दियों के लिए ऊंचाई पर मौजूद सैनिकों के लिए सामान स्टॉक किया जाता है। सर्दियों के वक्त श्रीनगर से जोज़िला पास होते हुए और मनाली होते हुए रोहतांग पास के ज़रिए लद्दाख पहुंचने के रास्ते बर्फ की मौटी चादर से ढंक जाते हैं।
दूर-दराज के इलाकों में और लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी), लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर अग्रिम मोर्चों, सियाचिन और एक्चुअल ग्राउंड पोज़िशन (एजीपीएल) पर तैनात सैनिकों के लिए ये काफिले राशन से लेकर दूसरी चीजें जैसे ईंधन, हथियार और गोला-बारूद और सर्दियों के कपड़े जैसे सामान मुहैया कराते हैं।
इसमें नया क्या है?
भारत और चीन को विभाजित करने वाले बगैर सीमांकन वाले एलएसी पर सैनिकों की वैसी तादाद नहीं होती जितनी तादाद में एलओसी पर सैनिक तैनात रहते हैं। साथ ही एलएसी पर तारबंदी, फ्लडलाइट्स जैसे दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर भी नहीं हैं।
भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबा लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल है जो लद्दाख से लेकर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम होता हुआ अरुणाचल प्रदेश में खत्म होता है। इस पूरी सीमा पर खुले और लंबे-चौड़े स्पेस हैं जिनकी निगरानी दोनों पक्षों द्वारा नियमित गश्त और तकनीकी सर्विलांस के ज़रिए की जाती है। इसी वजह ने मौजूदा हालात और भी दुश्वार हो गए हैं।
भारतीय सेना की उधमपुर स्थित उत्तरी कमान के कमांडर रह चुके लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा (रिटायर्ड) बताते हैं, "इतने बड़े पैमाने पर और इतना बड़ा ऑपरेशन न केवल मौजूदा सैनिकों को बल्कि यहां भेजे गए अतिरिक्त सैन्य बलों को भी मदद देगा। ऐसा ऑपरेशन पूर्वी लद्दाख में पहले नहीं हुआ है और यही चीज़ इसे अभूतपूर्व बनाती है।"
वो कहते हैं, "आमतौर पर वित्त वर्ष की शुरुआत के साथ ही आर्मी इन सामानों की सप्लाई का अभ्यास शुरू कर देती है ताकि सर्दियों के लिए स्टॉक इकट्ठा हो सके। इसमें कपड़ों, राशन के कॉन्ट्रैक्ट देना, मैटेरियल की मैन्युफैक्चरिंग, ट्रांसपोर्टिंग और नवंबर तक पोस्ट्स पर सामान उपलब्ध करा देना शामिल होता है।"
हुड्डा कहते हैं, "देखिए चौदहवीं कोर के लद्दाख में तैनात 80,000 सैनिकों के लिए तो यह एक्सरसाइज एकदम दुरुस्त है। लेकिन, अब हमारे पास वहां अतिरिक्त बल भी हैं। उनके लिए कॉन्ट्रैक्ट, ट्रांसपोर्टेशन जैसे सारे काम शुरू से करने हैं और वक्त उतना ही है। यानी सड़क के रास्ते नवंबर तक यह सब काम पूरा होना है। उसके बाद हवाई रूट से सामान पहुंचाना पड़ेगा।"
अब आपको ट्रेन वाली कहानी समझ आई?
दरअसल आर्मी अफसर बताते हैं कि ये मामले अब केवल पूर्वी लद्दाख तक सीमित नहीं हैं। एलएसी का पूरा इलाका ही तनाव में है।
सेना के एक रिटायर्ड अफ़सर इस बात से सहमति जताते हैं। वे कहते हैं, "भारत एलएसी पर अच्छी तरह से तैयार है। आप लद्दाख पर प्रेशर बनाए हुए हों तो अरुणाचल प्रदेश में आप किसी गलतफहमी का शिकार नहीं हो सकते।"
भारी-भरकम कोशिशें
हम यह जानना चाहते थे कि इस बार लद्दाख में सैनिकों का कामकाज किस तरह से अलग होगा। भारतीय सेना के डिप्टी चीफ़ के तौर पर सेवानिवृत्त हुए रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल एस के पत्याल लेह स्थित चौदहवीं कोर के कमांडर रह चुके हैं।
वो कहते हैं, "शांतिकाल में मान लीजिए कि कम संख्या में या सेना की एक कंपनी (क़रीब 100 सैनिकों की टुकड़ी) एलएसी के नज़दीक तैनात होते हैं। अब तनाव के चलते सैनिक एलएसी के ज्यादा क़रीब होंगे और वे जहां भी जाएंगे उन्हें अपने साजो-सामान के साथ जाना पड़ेगा। इंजीनियरों, कम्युनिकेशंस, मेडिकल कोर ये सब उनके साथ मूव करेंगे।"
पत्याल कहते हैं कि सामान पहुंचाने के साथ ही यह भी अहम होगा कि इस सामान को नई जगहों पर सुरक्षित जगहों पर स्टोर भी किया जाए। वे कहते हैं, "यह एक बेहद बड़ा काम होगा।"
हमला नहीं, सुरक्षा
इतनी संख्या में सैनिकों के साथ क्या भारत चीन पर हमला करने की सोच रहा है? भारतीय सेना सैनिकों की संख्या और उनकी वास्तविक तैनाती को लेकर चुप्पी साधे हुए है और ऐसा उम्मीद के मुताबिक़ भी है। हालांकि, जानकारों का कहना है कि ज्यादा सैनिकों की तैनाती को सुरक्षात्मक लिहाज़ से समझा जाना चाहिए न कि आक्रामक विकल्प के तौर पर।
पत्याल बताते हैं, "लद्दाख की सर्दी भयंकर होती है। तापमान माइनस 40 डिग्री तक चला जाता है और बर्फ 40 फुट तक हो सकती है। हमें यह समझना होगा कि सर्दियों के दौरान सामान्य गश्त करना भी मुश्किल का काम हो जाता है। निश्चित तौर पर यह ऐसा वक्त नहीं होगा जब हम युद्ध की शुरुआत करना चाहें।"
वे कहते हैं, "भारतीय सेना आम मौके़ के मुक़ाबले खुद को ज्यादा अच्छी तरह से तैयार रखे हुए है और इसीलिए अतिरिक्त सैनिक वहां भेजे गए हैं जो कि ज़रूरत पड़ने पर तुरंत कार्रवाई कर सकें।"
जनरल हुड्डा भी इससे सहमत हैं, "यह तैनाती दुश्मन को और घुसपैठ करने से रोकने के लिए है। मेरी समझ के मुताबिक़, चीन अभी भी हमारे सामने एक बड़ी फौज खड़ी किए हुए है।"
चिंता अभी भी बरकरार है
इंडो-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) इस सीमा की निगरानी के लिए ही बनाई गई है और ऐसे में यह पूरे साल एलएसी के क़रीब ही तैनात रहती है।
इस इलाके में क़रीब चार दशक की तैनाती के अनुभव वाले आईटीबीपी के पूर्व आईजी जयवीर चौधरी कहते हैं, "ज्यादा संख्या में पहुंचे सैनिकों के लिए उनकी ज़रूरत का सामान मुहैया कराना बेहद चुनौतिभरा काम साबित होने वाला है। इसकी ह्यूमन कॉस्ट काफी अधिक होंगे। लेकिन यह एक ड्यूटी है और चुनौतियां किसी को रोकेंगी नहीं। हर तरह की मुश्किल के बावजूद हमें ऐसा करना होगा।"
सेना के चौदहवीं कोर के चीफ़ ऑफ स्टाफ़ के तौर पर काम कर चुके लेफ्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णी (रिटायर्ड) एक और विषय की ओर ध्यान दिलाते हैं।
वे कहते हैं, "भारत और चीन दोनों के ही सैनिकों के बीच कई दफा एलएसी पर गश्त के दौरान विवाद हो जाता था। ऐसा होने पर तत्काल शांति से समाधान हो जाता था। अब इस तैनाती के साथ यह चीज़ें बदल गई हैं। अब दोनों ही ओर से कोई भी घटना जानबूझकर मानी जाएगी और यह मसलों को और उलझा सकती है।"
हुड्डा के मुताबिक़, चुनौती ख़ास कपड़ों को मुहैया कराने, शेल्टर और इन्हें बनाने की कैपेसिटी की है। वे कहते हैं कि शेल्टर केवल सैनिकों के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि इनकी ज़रूरत के इक्विपमेंट के लिए भी चाहिए होते हैं। वे कहते हैं कि हम टैंकों और आर्मर्ड पर्सनल कैरियर्स को खुले में नहीं छोड़ सकते।
एयरफोर्स भी शामिल है
आर्मी की मदद के लिए बड़े पैमाने पर ट्रांसपोर्ट प्लेन और हेलीकॉप्टरों की भी तैनाती हुई है और इस तरह से भारतीय वायुसेना भी इस पूरी मुहिम में शामिल है।
इस मसले पर एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर (रिटायर्ड) कहते हैं, "सीधे तौर पर इस दफा इस इलाके़ में ज्यादा फ्लाइट्स होंगी। आईएएफ़ की ट्रांसपोर्ट इकाई ख़ासतौर पर सर्दियों के मौसम में सेवाएं देगी। लेह और थोइस हमारे मुख्य बेस हैं जहां से हम आर्मी को सपोर्ट करेंगे। हमारे पास सी17, आईएल76, सी130जे, एएन32 जैसी जबर्दस्त क्षमता वाले विमान हैं। हमारे पास एमआई17 वी5, चेतक और चीता जैसे हेलीकॉप्टर भी हैं जो आईएफ और आर्मी एविएशन दोनों के साथ काम करते हैं।"
फंडिंग कैसे होगी?
इसके अलावा एक बेहद ज़रूरी चीज यह है कि इस दौरान पैसों का खर्च भी बढ़ेगा। लेकिन, 15 मई को एक वेबिनार को संबोधित करते हुए आर्मी चीफ़ जनरल एम एम नरवणे ने कहा था, "खर्चों में कमी की जाएगी। इस पूरे साल हमें देखना होगा कि हम कैसे कटौतियां कर सकते हैं। हमने कुछ क्षेत्रों की पहचान की है जहां हम खर्च को कम कर सकते हैं।"
हालांकि आर्मी अफ़सर कहते हैं कि एलएसी पर तब से अब तक हालात में तेज़ी से बदलाव हुए हैं। सेना का तक़रीबन हर अफसर इस बात से सहमत है कि सरकार को भारतीय सेना के लिए तय किए गए बजट को बढ़ाना होगा।
सरकार के इरादों का संकेत पिछले महीने उस वक्त मिला जब रक्षा मंत्रालय ने बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइजेशन (बीआरओ) के सालाना बजट में बड़ा इजाफा कर दिया था। बीआरओ सीमावर्ती इलाकों में सड़कों का अहम इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में लगी हुई है।
आख़िर में, भारतीय पक्ष एक और फैक्टर पर दांव लगा रहा है। भारतीय रक्षा मंत्रालय ने विदेशी वेंडरों के मुक़ाबले इंडियन वेंडरों को ठेके देना शुरू कर दिया है। इससे कम वक्त में सामान तैयार होकर पहुंच सकेंगे।
मार्च में रक्षा मंत्रालय ने संसद को बताया था कि किस तरह से स्थानीय वेंडरों को दिए जाने वाले ठेके 2015-16 के 39 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 75 फीसदी पर पहुंच गए हैं।