लोकसभा चुनाव 2019 से पहले के तमाम सर्वेक्षणों की मानें तो केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में उतनी सीटें नहीं आएंगी जितनी 2014 के चुनावों में मिली थीं। साथ ही उन राज्यों में भी बीजेपी को शत-प्रतिशत सीटें नहीं मिलने की संभावनाएं जताई जा रही हैं जहां उसने 2014 में सभी सीटों पर अपनी जीत का परचम लहराया था।
ऐसे में 23 मई को लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे आने के बाद यदि किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो केंद्र में सरकार के गठन को लेकर देश के तीन अलग अलग राज्यों के तीन नेता बड़ा किरदार निभा सकते हैं।
ये नेता हैं नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी और केसीआर और ये तीन अलग-अलग राज्य ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का प्रतिनिधित्व करते हैं। और अब तक इन तीनों ने ही अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
सबसे पहले तो बात इन तीन राज्यों के कुल लोकसभा सीटों की। आंध्र प्रदेश में 25, ओडिशा में 21 और तेलंगाना में 17, यानी इन तीनों राज्यों से कुल मिलाकर 63 सांसद लोकसभा पहुंचते हैं।
लिहाजा चुनाव के बाद यदि किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो इन तीन पार्टियों का रुख क्या रहेगा इस पर 17वीं लोकसभा का गठन बहुत हद तक निर्भर करेगा।
लोकसभा चुनाव 2019 में ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजेडी) के नवीन पटनायक, आंध्रप्रदेश में प्रमुख विपक्षी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) अपने-अपने राज्यों में अकेले दम पर चुनाव लड़ रही हैं।
लोकसभा चुनाव 2019 में अब तक बीजेपी, कांग्रेस और राज्य स्तर पर बने महागठबंधन (अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों का गठजोड़) के बीच मुक़ाबला दिख रहा है। लेकिन ये तीन दल अब तक किसी भी धड़े के साथ नहीं खड़े हुए हैं। जब जनवरी के महीने में ममता बनर्जी ने महागठबंधन के दलों का शक्ति प्रदर्शन करने के लिए ब्रिगेड ग्राउंड पर रैली बुलाई थी तब वहां देश भर के 20 राजनीतिक दलों के 25 बड़े नेता जुटे थे।
लेकिन उस महारैली में भी इन्हीं तीन गैर-एनडीए पार्टियों के नेता नहीं पहुंचे थे। अब यदि 2014 के चुनाव नतीजों को देखें तो बीजेडी ने 20, वाईएसआर ने पांच तो टीआरएस ने कुल 10 सीटें जीती थीं। लेकिन तब से लेकर अब तक जहां टीआरएस ने तेलंगाना में तो वाईएसआर कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाया है वहीं ओडिशा में स्थिति कमोबेश वही बनी हुई है।
क्या होगा बीजेडी का रुख?
बात सबसे पहले ओडिशा की बीजेडी के बारे में करें तो बताना ज़रूरी है कि 1997 में पार्टी के गठन के बाद से उसने कभी कांग्रेस का समर्थन नहीं किया है। 1998 में ओडिशा में बीजेडी और बीजेपी का चुनाव से पहले गठबंधन था। तब बीजेडी ने 9 और बीजेपी ने 7 सीटों पर जीत हासिल की थी।
2009 तक दोनों गठबंधन में बने रहे लेकिन इसके बाद नवीन पटनायक ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अकेले उतरने का फ़ैसला किया और उन्हें इसका ज़बरदस्त फ़ायदा भी मिला। ओडिशा विधानसभा की 147 में से 103 और लोकसभा की 21 में से 14 सीटें उनकी झोली में चली गईं। इसके बाद से बीजेडी ने बीजेपी से भी उतनी ही दूरी बनाए रखी जितनी वो कांग्रेस से रखती रही है।
वैसे 16वीं लोकसभा में मोदी के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद से वॉकआउट करके नवीन पटनायक की पार्टी ने अपनी 'राजनीतिक तटस्थता' को कुछ हद तक साफ़ ज़रूर किया है। इस दौरान नवीन पटनायक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ओडिशा के लिए किए गए अच्छे कामों की प्रशंसा और साथ ही लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराए जाने के उनके आइडिया की सराहना भी की।
ओडिशा के वरिष्ठ पत्रकार संदीप साहू कहते हैं, "नवीन पटनायक 16वीं लोकसभा में मुद्दा आधारित समर्थन करते रहे हैं। हालांकि कांग्रेस और बीजेपी से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर कायम हैं और उनका कांग्रेस को समर्थन देना बहुत मुश्किल दिखता है। इसके बावजूद जिस पार्टी की केंद्र में सरकार बनने की संभावना होगी और उसे समर्थन की ज़रूरत पड़ी तो राज्य की भलाई देखते हुए वो उसे बाहर से समर्थन दे सकते हैं।"
जगन रेड्डी आंध्र में बड़े खिलाड़ी
अब बात अगर वाईएसआर कांग्रेस की करें तो आंध्र प्रदेश में उसका मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) से सीधा मुक़ाबला है। राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां चुनाव में बिना किसी गठबंधन के उतरी हैं। देश की दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और बीजेपी भी चुनावी मैदान में हैं लेकिन मुक़ाबला मुख्य रूप से नायडू और जगन के बीच ही है।
वाईएसआर की राज्य के मुसलमानों, दलितों और ईसाइयों के बीच पैठ है। विधानसभा और पंचायत चुनाव में जगन की पार्टी ने बड़ी सफलताएं हासिल की हैं। 175 सदस्यीय विधानसभा में जगन के नेतृत्व वाली वाईएसआर कांग्रेस 67 सीटों के साथ मुख्य विपक्षी पार्टी है वहीं 2014 लोकसभा चुनाव में इसने नौ सीटें जीती थीं।
राज्य में 25 लोकसभा सीटों के साथ ही विधानसभा के लिए भी 11 अप्रैल को एक चरण में वोट डाले जाएंगे।
यहां यह बताना ज़रूरी है कि 2014 के चुनाव में तेलुगू फिल्म स्टार पवन कल्याण की पार्टी ने भी टीडीपी-बीजेपी गठबंधन को अपना समर्थन देते हुए कोई उम्मीदवार नहीं उतारे थे। जबकि 2019 के चुनाव में पवन कल्याण की जन सेना पार्टी मायावती की बसपा, सीपीएम और सीपीआई के साथ गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरी है।
वैसे तो वाईएसआर कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव 2019 से पहले राज्य में कोई गठबंधन नहीं किया है लेकिन चुनाव के बाद यह सशर्त समर्थन के लिए तैयार हो सकती है।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार उमर फारूक़ कहते हैं, "जगन रेड्डी आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा चाहते हैं। इसी मुद्दे पर वो चुनाव लड़ रहे हैं। साथ ही उन पर सात भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं। आय से अधिक संपत्ति का मामला चल रहा है। सीबीआई ने उसकी जांच की थी। वो चाहेंगे कि उनको इस परेशानी से छुटकारा मिले।"
किस करवट बैठेंगे केसीआर?
अब बात करते हैं तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के अध्यक्ष केसीआर यानी के चंद्रशेखर राव की जिन्होंने अलग राज्य की मांग पर टीडीपी को छोड़ा था। 2014 में मोदी सरकार के बनने के कुछ दिनों बाद 2 जून को तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद से केसीआर राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
बीते वर्ष उन्होंने समय से पहले विधानसभा को भंग कर दिया था और दिसंबर में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल की जिससे उनका राजनीतिक कद पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा हो गया। 119 सदस्यीय विधानसभा में उनके 88 विधायक हैं। वहीं लोकसभा में फिलहाल उनके 10 सांसद हैं।
केसीआर एनडीए और यूपीए के विकल्प के रूप में फ़ेडरल फ्रंट बनाना चाहते थे। उन्होंने इस बाबत ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, जगन मोहन रेड्डी, मायावती और सीताराम येचुरी से बात भी की थी लेकिन उन्हें अपनी इस कवायद में कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ।
उमर फारूक़ कहते हैं, "के चंद्रशेखर राव बार-बार कहते रहे हैं कि वो बीजेपी को समर्थन नहीं देंगे। लेकिन सत्ता में आने के क़रीब बीजेपी अगर पहुंच जाती है तो वैसी स्थिति में यह दरवाज़ा केसीआर तेलंगाना में और जगन मोहन रेड्डी खुली रखेंगे। केसीआर केंद्र के साथ अच्छे संबंध रखने चाहते हैं। राज्य के हित, मुद्दे पर उन्हें केंद्र से समर्थन मिलता रहे, यह उनकी नीति रही है।"
2004 में केसीआर की पार्टी ने कांग्रेस के साथ लोकसभा चुनाव लड़ी थी और 2009 तक वो यूपीए सरकार में थे। लेकिन यूपीए से बाहर आने के बाद से उन्होंने गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी की अपनी छवि को बरकरार रखा है। अगले पचास दिनों के भीतर लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे सामने होंगे और तेलंगाना से कुल 17 सांसद चुने जाएंगे।
ऊंट किस करवट बैठेगा यह कहना तो बहुत मुश्किल है लेकिन किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में 17वीं लोकसभा में सरकार के गठन को लेकर केसीआर को मिली सीटें अहम किरदार निभा सकती हैं।
वैसे तो पुलवामा से लेकर बालाकोट एयर स्ट्राइक्स ने पिछले दो महीने के दौरान संसदीय चुनाव की रुपरेखा पर गहरा असर छोड़ा है लेकिन नेताओं के काम पर जिस तरह जनता अपने फ़ैसले करती रही है उसे देखते हुए यदि किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो ऐसे में तीन राज्यों के ये तीन नेता बड़ा किरदार निभाएंगे इसमें शायद ही कोई दो राय हो।