इस्लामाबाद की मरगिला हिल्स के पास की जिस बस्ती के फ़्लैट में हम लोग इकट्ठा हुए थे वो हापुड़, बदायूँ, बाराबंकी या महोबा और ललितपुर जैसे किसी भी उत्तर भारत के छोटे क़स्बे से अलग नहीं दिखती थी। वहाँ जुटे हुए लोगों में पत्रकार, यूनिवर्सिटी के छात्र और सरकार में अच्छे ओहदों पर काम करने वाले नौजवान थे।
हम लोगों के बीच में क्या चर्चा होती सिवाय इसके कि भारत और पाकिस्तान की दुश्मनी कब तक चलेगी, कि किस मुल्क ने कितनी तरक़्क़ी कर ली है और क्यों, या फिर ग़ालिब और ग़ुलाम अली हमारे कितने अपने हैं?
मगर जब उनमें से एक नौजवान ने भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप के विविध आयामों का वर्णन करना शुरू किया तो मेरे ज़ेहन में पहले से बनी एक आम पाकिस्तानी की तस्वीर की एक परत उतरी और उसमें एक नया पहलू जुड़ गया।
विभिन्न रूपों को समझने की प्यास
वो नौजवान पाक-अफ़ग़ानिस्तान सीमा के ज़ौब इलाक़े में एक परंपरागत मुसलमान परिवार में पैदा हुआ और बचपन से मस्जिद, क़ुरआन, इस्लाम, शरिया और हदीस के माहौल में पला बढ़ा। उसके मुताबिक़ उसे ख़ुद नहीं मालूम कि कब शिव के विभिन्न रूपों को समझने की प्यास उसमें कब और कैसे पैदा हुई — तांडव, नटराज और ख़ास तौर पर अर्द्धनारीश्वर रूप।
एक सरकारी दफ़्तर में अर्थशास्त्री के पद पर काम करने वाला वो नौजवान पेंटर या चित्रकार नहीं था लेकिन शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप और उसकी विशदता और विशालता से उसे ऐसी प्रेरणा मिली कि उसने इस रूप को कैनवास पर उतारना शुरू कर दिया।
"ये पेंटिंग अभी अधूरी है और ख़ुद ब ख़ुद बनती चली जा रही है। पता नहीं कब पूरी होगी", उसने मुझसे कहा और फिर अपनी एक गहरी इच्छा ज़ाहिर की। उसने कहा, "एक न एक दिन मैं शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप को ख़ुद स्टेज पर परफ़ॉर्म करूँगा। ये मेरी पक्की इच्छा है।"
किसी और ज़बान का सहारा नहीं लेना पड़ा
इस्लामाबाद की उस गर्म शाम को फ़्लैट की छत पर बैठे उस नौजवान की बातचीत सुनते हुए मेरी नज़र बेसाख़्ता दक्खिन-पूरब की ओर गई - जिस ओर सरहद पार हिंदुस्तान था- और मैंने सोचा कि शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप में डूबे हुए इस पाकिस्तानी नौजवान की ख़्वाहिश को क्या वहाँ उसका कोई हमउम्र कभी जान पाएगा? कोई अख़बार या कोई टीवी चैनल उसे बताएगा कि पाकिस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो शिव को गर्व से अपनी विरासत का हिस्सा बताते हैं?
उस शाम उन विदेशी लोगों से बात करने के लिए मुझे किसी और ज़बान का सहारा नहीं लेना पड़ा। हम एक दूसरे के तंज़ समझते हैं और एक दूसरे के मज़ाक भी। हमें एक दूसरे के मुहावरों को समझने में कोई मुश्किल नहीं होती और न ही एक दूसरे की शायरी और संगीत हमें अजनबी लगते हैं।
हमें आपस में बात करने के लिए किसी और ज़बान- जैसे अँग्रेज़ी- का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
पाकिस्तानियों के साथ है बेतकल्लुफ़ी
ये बात पाकिस्तान और उत्तर भारत में रहने वाले लोगों के बीच की है। सार्क देशों में भारत के अलावा श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और पाकिस्तान हैं। पर पूरे दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के अलावा भारत का कोई ऐसा पड़ोसी मुल्क नहीं है जहाँ के लोगों से बात करने में उत्तर भारत के लोगों को इतनी सहूलियत महसूस होती हो।
यहाँ तक कि नेपाल के दोस्तों से भी मैं हिंदी में उस बेतकल्लुफ़ी से बात नहीं कर पाता जितना कराची, इस्लामाबाद या लाहौर में बीबीसी उर्दू सर्विस के अपने साथियों से। बेतकल्लुफ़ी का यही आलम इस शुक्रवार को भी था जब बीबीसी हिंदी और उर्दू ने दिल्ली और कराची में नई नस्ल के कवियों, शायरों और संगीतकारों को सोशल मीडिया पर एक साथ जोड़ा।
कराची के शायरों ने जो बात कही वो दिल्ली में कनॉट प्लेस के एक कैफ़े में एकजुट हुए कवियों के दिल में उतरी और जब हरप्रीत ने सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की कविता को गिटार के साथ गाया तो शुद्ध हिंदी की ये कविता का असर कराची में एकजुट हुए लोगों के चेहरे पर साफ़ नुमाया होता रहा। ये हमज़बान होने का असर था।
प्रधानमंत्री मोदी ने नवाज़ से कैसे की होगी बात?
ऐसा ही असर मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर उस वक़्त देखा जब वो दिसंबर 2015 की एक दोपहर बिना ऐलान किए लाहौर में उतर गए और वहाँ तब के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के घर जा पहुँचे। क्या प्रधानमंत्री मोदी ने नवाज़ शरीफ़ से अँग्रेज़ी में पूछा होगा- हैलो मिस्टर शरीफ़, हाउ आर यू? या हँसते हुए अपनी गुजराती अंदाज़ वाली हिंदी में कहा होगा- क्या हाल चाल हैं, शरीफ़ साहब?
पता नहीं नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में राज्यमंत्री गिरिराज सिंह क्यों मोदी विरोधियों को ही पाकिस्तान भिजवाना चाहते हैं। जब मोदी ख़ुद पाकिस्तान जा सकते हैं तो उनके विरोधियों को ही क्यों समर्थकों को भी पाकिस्तान जाने की छूट मिलनी ही चाहिए।