भारत का मित्र मालदीव कैसे आया चीन के क़रीब?

शनिवार, 2 दिसंबर 2017 (11:06 IST)
- स्वर्ण सिंह (अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार)
 
मालदीव की संसद में बुधवार को चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता बिना बहस के पारित हो गया। मालदीव के आर्थिक विकास मंत्री मोहम्मद सईद ने कहा है कि इससे दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार में मत्स्य उत्पादों के कर-रहित निर्यात में मदद मिलेगी। दक्षिण एशियाई राजनीति में आए इस बदलाव से मालदीव और भारत के बीच दूरी आने के कयास लगाए जा रहे हैं।
 
चीन की ओर क्यों जा रहा है मालदीव
भारत बीते एक दशक से मालदीव के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से बच रहा है। इसका सीधा फायदा चीन को मिलता दिख रहा है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत आए थे तब वे मालदीव और श्रीलंका होते हुए आए थे। दोनों देशों में मैरीटाइम सिल्क रूट से जुड़े एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए लेकिन जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए तो इस मुद्दे पर पूरी तरह से चुप्पी रही।
 
चीनी राष्ट्रपति साल 2013 के सितंबर और अक्टूबर में मैरीटाइम सिल्क रूट और वन बेल्ट वन रोड (ओआरओबी) की बात की थी। इसके बाद से भारत के साथ इस मुद्दे पर चुप्पी छाई हुई थी। कहा जाता कि फरवरी 2014 में विशेष प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी जिसमें इस मुद्दे पर अनौपचारिक रूप से बात हुई थी।
 
चीन समेत श्रीलंका और मालदीव को पता था कि इस मामले में भारत का रवैया सकारात्मक नहीं है। इसके बावजूद मालदीव ने साल 2014 के सितंबर महीने में इस तरह की संधियों पर हस्ताक्षर किए तो मालदीव का चीन की ओर झुकाव साफ दिखाई दे रहा था। भारत सरकार ने इस मामले में थोड़ी कोशिश ज़रूर की लेकिन इसे पुरज़ोर कोशिश नहीं कहा जा सकता।
 
चीनी ड्रैगन के सामने भारत
दक्षिण एशियाई देशों में भारत की स्थिति की बात करें तो बढ़ते चीनी प्रभाव के सामने भारत कमजोर होता दिखाई पड़ रहा है। इन देशों की नज़र में मदद करने के वादे से लेकर असलियत में मदद पहुंचाने में चीन की गति भारत के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है।
 
हाल ही में दलाई लामा भी कह चुके हैं भारत चीन के मुक़ाबले सुस्त है। लेकिन एक जमाना था जब दक्षिण एशिया को लेकर भारतीय विदेश नीति बेहद आक्रामक थी। ये स्थिति राजीव गांधी सरकार से लेकर नरसिम्हा राव सरकार तक रही। भारत ने साल 1988 में मालदीव में तख़्तापलट की कोशिशों को नाकाम किया।
 
लेकिन इसके बाद से भारत का प्रभाव बेहद कम होता गया है। इसके स्थानीय कारण भी हैं क्योंकि मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम भारत के अच्छे दोस्त थे। ये दोनों देशों के बीच गहरे संबंध का कारण था। भारत का प्रभाव इस क्षेत्र में कम हुआ है लेकिन ये कमी चीन के बढ़ते प्रभाव की वजह से ज़्यादा दिखाई पड़ती है।
 
क्या ये भारतीय विदेश नीति की हार है?
विदेश नीति के लिहाज से देखें तो इस सरकार ने शुरुआत में सभी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश की। लेकिन भारत अमेरिका के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए निवेश कर रहा है। वहीं, चीन भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंध बेहतर करता जा रहा है। 
रोहिंग्या मामले में ये देखा जा सकता है। चीन म्यांमार में आतंकवाद-निरोधी रणनीति का समर्थन कर रहा है। इसके साथ ही चीन रोहिंग्या मुसलमानों के पुनर्वासन की बात कर रहा है। वहीं, भारत सरकार यहां पर मौज़ूद रोहिंग्या मुसलमानों को देश के लिए ख़तरा बता रही है।
 
लेकिन इसे विदेश नीति की हार नहीं कह सकते क्योंकि इस समय भारत और अमेरिका के संबंध बेहतर हैं। ये ऐसे समय पर है जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ दुनिया के कई देशों के रिश्ते ख़राब हैं। अभी प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्वी एशिया की यात्रा की थी जहां पर चीनी राष्ट्रपति नहीं पहुंचे थे। ईस्ट एशिया में भारत का प्रभाव बेहतर है।
 
मालदीव के साथ कैसे बेहतर हों रिश्ते?
मालदीव एक बेहद देश है क्योंकि चीन के लिए मालदीव की भौगोलिक स्थिति सामरिक दृष्टि से काफ़ी अहम है। चीन के मैरीटाइम सिल्क रूट में मालदीव एक अहम साझेदार है। ऐसे में भारत को मालदीव के साथ रिश्ते बेहतर बनाने के लिए कुछ इस तरह जुड़ना होगा जिससे उन्हें दूसरे देशों की सहायता लेने की जरूरत ना पड़े, खासकर ऐसे देशों की जिन्हें भारत शक की नज़र से देखता है।
 
(बीबीसी संवाददाता अनंत प्रकाश के साथ बातचीत पर आधारित)

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