राजस्थान में ओबीसी फैक्टर विधानसभा चुनावों में पूरी सियासत को हर बार बदलता है। विधानसभा चुनावों को आम तौर पर सरसरी निगाह से देखें तो पूरा प्रदेश जातियों में बंटा नजर आता है।
ओबीसी में शामिल जातियां किसी एक मंच पर दिखाई नहीं देती हैं। लेकिन धरातल के सच को देखें तो ओबीसी का वर्चस्व बाकी सभी आरक्षित और अनारक्षित वर्गों पर भारी है। प्रदेश की राजनीति में यह लगातार गहराता गया रुझान है, लेकिन यह जातियों की उड़ती धूल में थोड़ा धुंधला जाता है।
मंडल-कमंडल वाले युग के दौर में राजस्थान की राजनीति ने बदलना शुरू किया था। अब वह पूरी तरह ओबीसी की कुछ जातियों की मुट्ठी में आ चुकी है।
साफ़ तौर पर देखा जाए तो प्रदेश की ज़मीनी राजनीति को पंचायतें तय करती हैं। वही सबसे निचली इकाई भी है। आंकड़े साफ़ बताते हैं कि राजस्थान की राजनीति में ओबीसी एकदम बुलेटप्रूफ़ हैं। उसे कोई हिला नहीं सकता।
संभवत: इस दृष्टि से प्रदेश की राजनीति का कभी ठीक से अध्ययन ही नहीं हुआ। इस लिहाज से ऐसा प्रतीत होता है कि ऊपर से विभाजित दिखने वाली ओबीसी ज़मीनी स्तर पर अपने अनुभवों से काम करते हुए एक अलग तरह का पॉलिटिकल पिरामिड खड़ा करती है।
हिन्दी पट्टी के प्रमुख राज्य राजस्थान में चार अन्य राज्यों के साथ इसी साल दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं।
इससे पहले प्रदेश की राजनीति में जातिगत सम्मेलनों का ताना-बाना सामने आया है। उसके अक्स में ओबीसी के गणित को समझने के लिए पंचायती राज के आंकड़ों को समझना बहुत ज़रूरी है।
राजस्थान में ओबीसी की राजनीति
जैसे 2015 में ओबीसी के लिए सरपंच के 783 पद आरक्षित थे, लेकिन इस वर्ग के सरपंच 1017 लोग बने।
ओबीसी महिलाओं में यह आंकड़ा हैरतअंगेज़ रहा। सामान्य महिलाओं में 2412 सीटों पर महज 966 महिलाएं चुनी जा सकीं। लेकिन ओबीसी महिलाओं ने अपने लिए रखे गए 646 पदों को पार करके 2001 सीटों पर परचम लहराया।
ख़ास बात यह कि प्रदेश की ओबीसी की राजनीति की यह तासीर 1995 के चुनाव से अब तक वैसी ही है। 2020 के पंचायत चुनाव कोविड की वजह से क्षेत्रवार कराए गए और पूरे राज्य के आंकड़े अब तक उपलब्ध नहीं हो पाए हैं लेकिन जो आंकड़े मौजूद हैं, उनसे भी ऐसे ही नतीजे सामने आते हैं।
प्रदेश की राजनीति की नब्ज के माहिर सियासतदां और समाजवादी आंदोलनों में बचपन से सक्रिय रहे अर्जुन देथा बताते हैं, "ये आंकड़े ओबीसी की ललक, उसके संघर्ष और सत्ता हासिल करने के प्रति उसके सपनों की तस्वीर है।"
वे बताते हैं, "प्रदेश की अनुसूचित जनजातियों में भी ऐसी ललक और प्यास साफ़ दिखाई देती है, लेकिन उसमें ओबीसी जैसी प्रचंडता नहीं है।"
राजस्थान राज्य चुनाव आयोग में आंकड़ों पर काम कर चुके कई अधिकारी बताते हैं कि पंचायत चुनाव के बाद जब कभी नतीजे आते हैं और उनका विश्लेषण होता है तो अनारक्षित वर्ग के लोगों के चेहरे मुरझाने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि ओबीसी वाले उनके हिस्से में भारी सेंधमारी कर चुके हैं।
समाजशास्त्रियों का मानना है कि तेज़ी से आते जा रहे इस बदलाव की वजह से ओबीसी के पुरुष ही नहीं, महिलाओं में भी शिक्षा और जागरूकता का बहुत प्रसार हुआ है। इस वजह से वे गांव, देहात, खेत और खलिहान से बाहर आकर सियासत में दबदबा कायम कर चुके हैं।
कांग्रेस को क्या है उम्मीद
समाजशास्त्री राजीव गुप्ता का मानना है, "राजस्थान में चुनाव आते ही ओबीसी और सवर्ण जातियों के सम्मेलनों की झड़ी लग जाती है। हर जाति अपने लिए अधिक से अधिक टिकट मांगती है। इसे देखकर अब सरकार भी उन जातियों को लुभाने के लिए बोर्ड बनाने लगी है। प्रदेश में इस बार इस तरह के 40 से अधिक जातियों के बोर्ड बन चुके हैं। अब यह इससे वंचित रह जाने वाली जातियों में एक नई प्रतिद्वंद्विता को जन्म दे रहा है और नित नए सम्मेलन हो रहे हैं।"
गुप्ता बताते हैं, "प्रदेश में हॉरिजेंटल या क्षैतिज विस्तार तो हो गया है, लेकिन अभी भी वर्टिकल या लंबवत गतिशीलता नहीं है। इस लिहाज से प्रदेश में एक प्रवृत्ति यह भी है कि ताक़तवर और संपन्न ओबीसी कमज़ोर और विपन्न ओबीसी का वोट तो झटकना चाहती हैं, लेकिन उन्हें समानता में हिस्सेदार नहीं बनातीं। प्रदेश का गुर्जर आंदोलन इसी की एक बानगी मानी जा सकती है।"
इस बार प्रदेश में कांग्रेस का आशावाद इस धारणा पर टिका है कि उसने महंगाई राहत, मुफ़्त दवा योजना, महंगाई राहत शिविर, नौकरियों का एलान, बुजर्गु पेंशन जैसे कितने ही कामों के साथ साथ इस बार विभिन्न जातियों के बोर्ड भी बना दिए हैं। इससे उसके नेताओं को लगता है कि जातियों का वोट सीधे तौर पर कांग्रेस को मिलेगा।
प्रदेश में 19 नए ज़िले बना दिए गए हैं। इससे राज्य में अब कुल 50 ज़िले हो गए हैं। पुराने ज़िले 33 थे। इनमें से 29 ज़िलों की यात्रा पूरी कर चुके कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डॉ। चंद्रभान बताते हैं कि प्रदेश में पहली बार ओबीसी की जातियों और सवर्ण जातियों को साधने का काम हुआ है।
पार्टी की जनकल्याणकारी योजनाएं बहुत हैं। ऐसे में अगर पार्टी का संगठन निचले स्तर पर बेहतरीन काम कर पाया तो नतीजे सकारात्मक होंगे।
बीजेपी को क्या है आस
राजस्थान में 1993 से अब तक 30 साल के चुनाव में एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा की सरकार बनती आई है। इस लिहाज से यह कांग्रेस की सरकार जाने का साल है, लेकिन इस बार कांग्रेस और उसका नेतृत्व काफ़ी 'मारक अंदाज' में काम कर रहा है। वह इस तरह कोशिशें कर रहा है मानो 'उलटफेर' कर देगा।
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग बहुत अलग तरह से हो रही है। इस बार चुनाव अभियान का नेतृत्व अकेली वसुंधरा राजे के बजाय चार अलग-अलग सामूहिक टीमों को सौंपा गया है। भाजपा भी ओबीसी वोटों पर पूरी निगाह लगाए है। वह कांग्रेस की तुलना में कहीं भी उन्नीस नहीं है।
सीएसडीएस के साथ जुड़ कर लगातार चुनावी राजनीति का अध्ययन करते रहे प्रो। संजय लोढ़ा बताते हैं, "प्रदेश में आज भी ओबीसी एक अंब्रेला का रूप नहीं ले पाई है। इसमें आंतरिक रूप से बहुत टूटन है। प्रदेश में 45 से 48 प्रतिशत जनसंख्या ओबीसी की है। उसमें सामाजिक तथा आर्थिक बिखराव आंतरिक रूप से भी है।"
वे बताते हैं, "जैसे जाट, जणवा, आंजना, बिश्नोई, जट सिख सहित विभिन्न भूमिसंपन्न जातियां बाकी ओबीसी पर बहुत भारी पड़ती हैं। यह विभाजन जमीनी स्तर पर बहुत दिखता है।"
"प्रदेश की सेवा आधारित जातियां एक अलग समूह बनाती हैं। इनमें सुथार, माली, कुम्हार या कुमावत, चारण, सुनार आदि हैं। लेकिन इनमें भी एक बेहद पिछड़ा समूह है, जिसने अपने वर्ग के भीतर अगड़ी जातियों से नाराज होकर विद्रोह किया। जैसे गुर्जर। गुर्जरों के साथ गाड़ोलिया लुहार, राइका, जोगी आदि भी हैं।"
लोढ़ा के अनुसार बुलक-कैपिटलिस्ट यानी ओबीसी की ऊंची जातियों और ओबीसी की सर्विस क्लास जातियों में विभाजन साफ़ दिखता है। अब यह राजनीतिक प्रबंधन पर निर्भर करता है कि कौन किस जाति को अपने साथ जोड़कर चुनाव नतीजों को बदलता है।
पिछले विधानसभा चुनाव का जातीय गणित
राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनाव में 38 जाट और आठ गुर्जर विधायक जीते थे। कांग्रेस ने 15 मुस्लिम उतारे थे, लेकिन जीते सिर्फ सात।
मीणा से 18 विधायक बने। इनमें कांग्रेस के नौ और भाजपा के पांच और तीन निर्दलीय हैं।
पिछले चुनाव में राजपूत भी भाजपा से नाराज थे। उस चुनाव में भाजपा ने राजपूतों को 26 टिकट दिए, लेकिन दस जीते, जबकि कांग्रेस ने 15 को दिया और सात जीते।
राजस्थान की राजनीति में पुराने समय से सक्रिय और ओबीसी सहित विभिन्न जातियों के अध्येता समाजवादी नेता अर्जुन देथा बताते हैं, प्रदेश में ओबीसी की दो हिस्से हैं।
एक जाट और दूसरे ग़ैर जाट। जाट बहुत राजनीतिक निर्णय लेते हैं और वे अभी भाजपा के साथ ख़ुले तौर पर नज़र नहीं आ रहे। जबकि कुम्हार, सुथार, चारण, रावणा राजपूत, यादव, गुर्जर और बहुतांश में माली जाति का रुख भी भाजपा की तरफ दिखता है।
प्रदेश के मुस्लिमों का 90 प्रतिशत ओबीसी में कवर होता है। वे अधिकतर कांग्रेस के साथ रहते हैं। मुस्लिमों में सिंधी, कायमखानी और मेव हैं, जो तीनों एक ही प्रकृति की जातियां हैं और उनकी वोटिंग का पैटर्न भी एक ही रहता है। ये ग्रामीण इलाकों के बहुतांश में गिरने वाले मत हैं। बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और जालौर की भीनमाल पट्टी में इनका वर्चस्व है। शेखावाटी और नागौर के इलाकों में कायमखानियां की बहुतायत है। इनका असर अजमेर में भी है और कुछ अन्य इलाकों में भी। अलवर-भरतपुर के मेवात इलाके में मेव मतदाता चुनावों को प्रभावित करते हैं। इनका असर टोंक में भी है।
देथा का यह भी मानना है कि प्रदेश में ओबीसी में एक बात यह भी दिखती है कि अगर जाट किसी एक दल की तरफ़ जाते हैं तो बाकी ओबीसी के मतदाता अपना रुख़ बदल लेते हैं।
अशोक गहलोत का आरक्षण बढ़ाने का दांव
लेकिन ओबीसी के मामले में एक बड़ी बात राजस्थान में यह रही है कि इस बार कांग्रेस के पूर्व मंत्री हरीश चौधरी ने बहुत पहले ही ओबीसी जनगणना की मांग शुरू कर दी थी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कुछ समय पहले एलान कर दिया कि वे जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं। मानगढ़ धाम में हुए सम्मेलन में उन्होंने ओबीसी आरक्षण को 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने और मूल ओबीसी के लिए अलग से 6 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। गहलोत ने यह एलान मानगढ़ धाम में विश्व आदिवासी दिवस पर हुई सभा में किया।
अगर यह घोषणा अमल में लाई जाती है तो प्रदेश में आरक्षण 70 प्रतिशत हो जाएगा। अभी एससी आरक्षण 16 और एसटी आरक्षण 12 प्रतिशत है। ओबीसी का आरक्षण 21 प्रतिशत, ईडब्लूएस का 10 प्रतिशत और एमबीसी का पांच प्रतिशत पहले से है। यह आम तौर पर माना जा रहा है कि गहलोत सरकार ने इस बार ओबीसी पर बड़ा दांव खेला है, लेकिन गुर्जर नेता विजय बैंसला का मानना है कि इससे ओबीसी के अधिक पिछड़े वर्ग के लिए संभावनाएं घटेंगी और ताकतवर ओबीसी की जातियां ख़ुलकर खेलेंगी, लेकिन उनके हिस्से वाले 21 प्रतिशत में अब उन्हें अधिक हिस्सेदारी मिलेगी।
ओबीसी आरक्षण से जुड़े अब अधिक मसले तो प्रदेश में नहीं हैं, लेकिन उच्च न्यायिक सेवाओं में आरक्षण की मांग अब ज़ोर पकड़ रही है।
मानगढ़ धाम के आयोजन में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी मौजूद थे और उन्होंने ओबीसी की पुरानी मांगों के सुर में सुर मिलाते हुए साफ़ कहा कि जिसकी जितनी जनसंख्या है, उसे उसका उतना हिस्सा दिया जाए।
राजस्थान के समाजवादियों और वामदलों का मोर्चा पहले भी मांग कर चुका है कि आरक्षण को संविधान की नवीं अनुसूची में डाल दिया जाए ताकि इस तरह के मसले अदालतों में जाकर विवादों का विषय न बनें और वंचित जातियों को निर्विवाद लाभ मिलता रहे।
ओबीसी जातियों में बीजेपी की पैठ
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके और अभी उप नेता प्रतिपक्ष सतीश पूनिया का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वैश्विक नेता की छवि के कारण प्रदेश की सभी ओबीसी जातियां भाजपा के प्रति बहुत सकारात्मक हैं और पार्टी से जुड़ा हुआ महसूस करती हैं। राजस्थान में युवा बेरोज़गारों के मसले भारी हैं। पेपर लीक जैसे प्रकरणों ने सत्तारूढ़ दल की छवि को तहसनहस कर दिया है।
वे कहते हैं, "इसका सबसे ज़्यादा नुकसान युवाओं को हुआ है, लेकिन इन युवाओं में भी ओबीसी का युवा सर्वाधिक है।"
पूनिया बताते हैं कि भाजपा के सत्ता में आने से पहले राजस्थान में ओबीसी के हितों की अनदेखी लगातार होती आई थी और भाजपा के सत्ता या प्रतिपक्ष में रहने के दौरान ओबीसी के हितों की रक्षा अच्छी तरह हुई है।
राजस्थान में मूल ओबीसी के हितों की लड़ाई लड़ने वाले मूल ओबीसी नेता वीरेंद्र रावणा बताते हैं, "इस बार गहलोत सरकार ने मूल ओबीसी के हितों के लिए बहुत काम किए हैं, लेकिन मूल ओबीसी के नेता कन्नी काट कर बैठे रहे और उन्होंने कांग्रेस के इस अच्छे फ़ैसले का वैसा स्वागत नहीं किया, जैसा होना चाहिए था।
राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर अरुण चतुर्वेदी का कहना है, "कांग्रेस अच्छे से अच्छा करके भी अपनी बात सुदूर क्या, निकट के लाभान्वितों तक भी नहीं पहुंचा पाती और यही वजह है कि 100 से अधिक सीटों पर सीधे दखल रखने वाले ओबीसी के मतदाताओं को भाजपा भरमा ले जाती है।"
वे यह भी मानते हैं कि कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला के आंदोलन के बाद प्रदेश में गुर्जर एक बड़ी और अलग ताक़तवर कंस्टिट्यूएन्ट बने हैं। युवा सचिन पायलट का अपना करिश्मा है, लेकिन उनके वोट आधार की एक वजह गुर्जर आंदोलन की पृष्ठभूमि में युवा मतदाताओं में पैदा हुई एक ललक भी है।
चतुर्वेदी के अनुसार प्रदेश में जाटों का बड़ा प्रभाव रहा है, लेकिन उन्हें आज तक मुख्यमंत्री पद नहीं मिला। प्रदेश में तीसरी ताक़त बने हनुमान बेनीवाल को इसी का फायदा मिल रहा है।
वे बताते हैं, "भाजपा का सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर उप नेता प्रतिपक्ष बनाया जाना भी जाट मतदाता को खटकता है, क्योंकि नेता प्रतिपक्ष राजपूत समाज से आने वाले राजेंद्र राठौड़ हैं, जो एक महत्वाकांक्षी नेता हैं और भाजपा में लंबे समय से सक्रिय हैं।"
चतुर्वेदी के अनुसार यह दिलचस्प है कि प्रदेश में माली जाति के एक ही विधायक हैं और वह अशोक गहलोत हैं, लेकिन जातियों की बाजीगरी को साधकर और अपने आपको अपनी जाति के साथ नहीं दिखाकर नफ़ासत से राजनीति करने वाले गहलोत ने राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया है। इस तरह की राजनीतिक सूझबूझ ओबीसी के बाकी नेता नहीं रख पाए।
प्रदेश में ओबीसी जातियां और उनका वर्चस्व
राजस्थान की 2013 की ओबीसी की सूची में 82 जातियां दिखती हैं, लेकिन राज्य सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग के अलग-अलग आदेशों को देखें तो यह सूची अब 91 तक हो गई है।
कुछ जातियों को तो इस तरह क्लब किया गया है कि विभिन्न जातियों का एक समूह बना दिया गया है, ताकि आदेश जारी करने वाले सत्तारूढ़ दल के साथ उस चुनाव में वह समूह जुड़ जाए।
राज्य में ओबीसी के विधायक इस समय 68 हैं। इनमें जाट 33 हैं, जो समस्त जातियों में सबसे अधिक हैं।
गुर्जर के आठ, बिश्नोई के पांच, प्रजापत-कुमावत, यादव और रावत तीन-तीन, जटसिख, माली और रावणा राजपूत जातियों के दो-दो विधायक हैं। आंजना, कुशवाह, कलाल, कलबी, धाकड़, सुथार और लोधे तंवर एक-एक हैं।