इस वक़्त बिहार सरकार की चिंता क्या है? इस सवाल का आदर्श जवाब होना चाहिए था, "राज्य में कोरोना वायरस के संक्रमण के बढ़ते मामले"।
लेकिन, सत्ताधारी पार्टियों की गतिविधियों को देखकर ऐसा क़त्तई नहीं लगता। बल्कि ऐसा लगता है कि सारे राजनीतिक दल आने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग गए हैं और कोरोना वायरस के नाम पर सिर्फ़ राजनीति हो रही है।
सोमवार तक राज्य में कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले बढ़कर 5,175 हो गए हैं। अब तक 30 लोगों की मौत हो चुकी है। हाल के दिनों में संक्रमण का प्रसार तेज़ी से बढ़ा है। रोज़ाना औसतन 200 से अधिक मामलों में वृद्धि हो रही है।
भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान में भारत सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने रविवार को "बिहार जन संवाद" नाम से एक वर्चुअल रैली की। शाह ने अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को संबोधित किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इसी दिन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए राज्यभर के अपने कार्यकर्ताओं से बातचीत की, उन्होंने आने वाले चुनाव के अपने एजेंडे को सामने रखा।
दूसरी तरफ़, बिहार के विपक्ष ने सत्ताधारी पार्टियों के इन कार्यक्रमों के विरोध में "थाली बजाओ" कार्यक्रम का आयोजन किया। ये सारे आयोजन कोरोना वायरस के नाम पर संपन्न तो हुए, लेकिन इनमें कोरोना को आगे कैसे रोका जाए, इसकी चर्चा बहुत कम ही हुई या नदारद ही रही।
कौन कैसी राजनीति कर रहा?
जहां तक बात कोरोना वायरस के नाम पर राजनीति करने की है, तो वह स्वाभाविक भी लगता है, क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। हालांकि, चुनाव कब होंगे, यह चुनाव आयोग ने अभी तक तय नहीं किया है। लेकिन राजनीतिक दलों, उसमें भी सत्ताधारी पार्टियों की गतिविधियों को देखकर लगता है कि सभी चुनावी मोड में आ गए हैं।
अमित शाह ने अपनी वर्चुअल रैली में यह ज़रूर कहा कि "इसका संबंध विधानसभा चुनाव से नहीं है।"
लेकिन, इस बात के अलावा उनकी बाक़ी सारी बातें चुनाव के इर्दगिर्द ही रहीं। फिर चाहे वह नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के शासनकाल की उपलब्धियां गिनानी हों या विपक्ष के उसके 15 साल पहले के कार्यकाल के लिए हमले बोलना हो।
इसी तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कार्यकर्ताओं को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में यही बताया कि उन्हें चुनाव में जनता के बीच क्या कहना है। नीतीश की बातों का सार भी अपने शासन की उपलब्धियों को गिनाना और लालू-राबड़ी के शासनकाल की विफलताओं पर हमला करना ही रहा।
अमित शाह की वर्चुअल रैली क्यों चुनावी रैली नहीं थी और उसका संबंध आगामी विधानसभा चुनाव से कैसे नहीं था, इस बारे में पूछे जाने पर बिहार भाजपा के प्रवक्ता निखिल आनंद ने कहा, "भाजपा एक व्यवस्थित राजनीतिक पार्टी है। हम कोई भी काम एक व्यवस्था बनाकर करते हैं। यह वर्चुअल रैली भारत की राजनीति में एक प्रयोग की तरह थी। और इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि कोरोना काल के बीते दो-तीन महीनों के दौरान से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ ज़मीनी कार्यकर्ताओं के साथ संवाद कम हो गया था।
हमारा मक़सद इस संकट के समय बिहार के लोगों के साथ अधिक से अधिक संवाद स्थापित करने का है, ताकि हम मिलकर इस विपदा का सामना कर सकें। कार्यकर्ताओं के हौसले टूटने नहीं दें। इस संकटकाल में अभी तक हमारे कार्यकर्ताओं ने शानदार काम किया है।"
लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का थीम ही "चुनावी एजेंडा सेट करने" का था। आख़िर ऐसे समय में जब राज्य में कोरोना का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है, वैसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चिंता चुनाव क्यों है?
जदयू के प्रवक्ता और बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री नीरज कुमार कहते हैं, "कोरोना वायरस को राजनीतिक वायरस बनाने का असली काम बिहार के विपक्ष ने किया है। दूसरे राज्यों से तुलना करें तो बिहार की स्थिति अभी कोरोना संक्रमण के मामले में बेहतर ही है, इसलिए हमें यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि सरकार कोरोना से लड़ने की हरसंभव कोशिश कर रही है और हम कामयाब भी हो रहे हैं। आप यहां का रिकवरी रेट चेक कर सकते हैं। लेकिन यदि विपक्ष सरकार की कोशिशों को झुठलाने की कोशिश करेगा तो उन्हें यह जवाब देना होगा कि अगर 15 साल पहले यह बीमारी आयी होती तो राज्य की क्या हालत होती।"
विपक्ष की राजनीति क्या है?
गतिविधियों की बात करें तो बिहार में अभी तक के कोरोना काल के दौरान यहां का विपक्ष सरकार पर लगातार हमलावर रहा है। चाहे वह प्रवासियों को बिहार वापस बुलाने की बात हो, सैंपल टेस्टिंग में कमी की बात हो, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था की बात हो या फिर लौटकर आ चुके प्रवासियों की देखभाल और उनके रोज़गार की बात हो।
सवाल यह है कि विपक्ष द्वारा उठाए गए इन मुद्दों को सरकार महज़ चुनावी स्टंट ही क्यों समझ रही है?
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव बीबीसी से कहते हैं, "विपक्ष का तो काम ही है सरकार की नाकामियों को उजागर करना, उसपर काम करने के लिए दबाव बनाना। मगर जब सरकार ही विपक्ष के ऊपर आरोप लगाने लगे, अपने शासन की नाकामियां छुपाने लगे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार सवालों से बच रही है, उसके पास मुकम्मल जवाब नहीं है क्योंकि संकट के समय उसने जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया है।"
तेजस्वी आगे कहते हैं, "मुख्यमंत्री और गृह मंत्री 15 साल पहले के शासन की बात करते हैं। लेकिन वे ये नहीं बताते कि बीते 15 सालों में बिहार के 8-9 करोड़ बेरोज़गारो, श्रमिकों, दिहाड़ी मज़दूरों और युवाओं के लिए एनडीए सरकार ने क्या किया? क्या वे ये बता सकते हैं कि 12 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस राज्य में अभी तक मात्र एक लाख सैंपल टेस्ट ही क्यों हो पाए हैं?"
सरकार से कुछ इसी तरह के सवाल बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा भी करते हैं।
वे कहते हैं, "संकट की इस घड़ी में जिसे चुनाव और राजनीति सुझ रही है, उसे जनता और उसकी दिक़्क़तों की आगे भी क्या चिंता होगी, यह अब बताने की बात नहीं है। सारे संसाधनों से लैस सरकार ने कोरोना से लड़ाई को जनता पर छोड़ दिया और उन्हीं संसाधनों का इस्तेमाल अपनी राजनीति में कर रही है।"
चुनाव कब होगा और फ़ायदा किसे होगा?
वैसे अभी तक यह तय नहीं है कि बिहार में विधानसभा चुनाव कब होंगे? चुनाव आयोग की तरफ़ से इसे लेकर कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव के नोटिफ़िकेशन के हिसाब से नवंबर-दिसंबर माह तक चुनाव हो जाने हैं।
चुनाव के समय पर अभी संशय इसलिए है क्योंकि फ़िलवक़्त कोरोना संक्रमण के प्रसार में कोई कोई कमी आती नहीं दिख रही है। जिस हिसाब से मामले बढ़ रहे हैं, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में संकट और भी विकराल होगा।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, "यहां कोरोना की चिंता किसी को नहीं है। सभी अपनी-अपनी राजनीति कर रहे हैं। चुनाव आयोग भले ही चुनाव की तारीख़ें नहीं तय कर रहा, मगर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की गतिविधियों से लगता है कि वे चुनाव कराने पर आमादा हैं और चुनाव कराकर ही मानेंगे। पर इससे एक बात तय है कि ऐसे चुनाव का फ़ायदा किसी को नहीं होगा। जबकि नुक़सान पूरे राज्य को होगा।"
बिहार में चुनाव की तारीख़ भले तय न हो, लेकिन एक बात तय है कि आने वाले चुनाव में एक दूसरे से लड़ने से पहले राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों को पहले कोरोना वायरस से लड़ना होगा।