शरद यादव: सामाजिक न्याय के बड़े योद्धा जिन्हें जीवन भर झेलनी पड़ी राजनीति की धूप छांव

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023 (07:49 IST)
प्रदीप कुमार, बीबीसी संवाददाता
भारतीय राजनीति में क़रीब 50 साल तक सक्रिय रहे शरद यादव का 75 साल की उम्र में गुड़गांव के फ़ोर्टिस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में गुरुवार की रात नौ से दस बजे के बीच निधन हो गया।
 
इसकी पुष्टि इंस्टीट्यूट और शरद यादव की बेटी दोनों ने की। इंस्टीट्यूट की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि उन्हें अचेतावस्था में लाया गया था और डॉक्टरों के अथक प्रयास के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। वहीं बेटी सुभाषिनी शरद यादव ने रात के 11 बजे से थोड़ी देर पहले ट्वीट किया, "पापा नहीं रहे।"
 
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्वीट में उन्हें डॉक्टर लोहिया के विचारों से प्रभावित नेता बताया और लिखा, ''मैं उनकी यादों को संजो कर रखूंगा।''
 
शरद यादव इन दिनों लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी समाजवादी राजनीति में उनके योगदान को याद किया।
 
दरअसल, शरद यादव पिछले कुछ समय से स्वास्थ्यगत मुश्किलों का सामना कर रहे थे, लेकिन चार महीने पहले उनकी तबीयत में सुधार होने लगा था। चार महीने पहले उनके दक्षिण दिल्ली के उनके आवास पर बिहार के नेताओं ने मुलाकात भी की थी।
 
उम्मीद की जाने लगी थी कि वे सार्वजनिक राजनीति में फिर से सक्रिय होंगे। सितंबर महीने में वे दो दिनों के लिए पटना भी गए।
 
राजनीतिक गलियारों में यह कयास भी लगाए जाने लगा था कि 2024 के आम चुनाव से पहले विपक्ष की एकजुटता में उनकी अहम भूमिका हो सकती है। वे ख़ुद भी इसको लेकर उत्सुक थे, लेकिन स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया। क़रीब 50 साल की समाजवादी राजनीति का सफ़र अब थम चुका है।
 
वैसे तो बीते पांच साल से शरद यादव एक तरह से राजनीतिक बियाबान में थे और पिछले साल दिल्ली के जंतर मंतर स्थित उन्हें वह सरकारी बंगला भी खाली करना पड़ा था, जो क़रीब 22 साल तक उनकी राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में रहा।
 
शरद यादव का सफ़र
आज की पीढ़ी को शरद यादव के राजनीतिक योगदान और उनके क़द का अंदाज़ा भले नहीं हो, लेकिन गैर कांग्रेसी सरकारों में वे पावरफ़ुल नेता माने जाते रहे, हालांकि कभी किसी पावरफ़ुल मंत्रालय की कमान उनके ज़िम्मे नहीं आई।
 
शरद यादव के राजनीतिक सफ़र में उनकी जो सबसे बड़ी ताक़त थी, वही उनके लिए हमेशा कमज़ोरी साबित हुई। शरद यादव ने मध्य प्रदेश के एक मध्यवर्गीय परिवार से निकल कर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था।
 
जबलपुर से शुरू हुआ उनका करियर यूपी के रास्ते से होता हुआ बिहार पहुंचा। यानी इस हिसाब से देखें तो ये एक ख़ासियत है, लेकिन इसकी कमज़ोरी यह रही कि किसी भी सीट को अपनी सीट के तौर पर तब्दील नहीं कर सके।
 
शरद यादव, अपने समकालीन सामाजिक न्याय के नेताओं से सीनियर रहे। इसलिए सिंगापुर में अपना इलाज करा रहे लालू प्रसाद यादव ने उन्हें अपना बड़ा भाई बताया। लालू प्रसाद के राजनीतिक करियर में शरद यादव का अहम योगदान रहा है। पर यह पड़ाव शरद यादव के करियर में बहुत बाद में आया।
 
शरद यादव के जीवन पर एक नज़र
 
मध्य प्रदेश के होशांगाबाद में जुलाई, 1947 में जन्मे शरद यादव जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के गोल्ड मेडलिस्ट थे, लेकिन इससे बड़ी पहचान यह थी कि वे लोहिया और जेपी के सामाजवादी विचारों से प्रभावित थे।
 
जय प्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन का भारतीय राजनीति पर कितना असर होने वाला था, इसकी पहली झलक 1974 में देखने को मिली थी।
 
जय प्रकाश नारायण ने छात्र आंदोलन के बाद जिस पहले उम्मीदवार को हलधर किसान के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वाया वो शरद यादव थे। 27 साल के शरद यादव तब जबलपुर यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और छात्र आंदोलन के चलते जेल में थे।
 
जेल से ही उन्होंने जबलपुर का चुनाव जीत लिया। 1977 में जनता पार्टी की आंधी की पहली झलक शरद यादव के चुनाव से ही लोगों को मिली थी। लेकिन शरद यादव किस मिट्ठी के बने थे, इसकी झलक एक साल बाद देखने को मिली।
 
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार जयशंकर गुप्ता याद करते हैं, "समाजवादी राजनीति में शरद यादव बड़ी संभावना के तौर पर उभरे थे। 1976 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय लोकसभा का कार्यकाल पांच साल के बदले छह साल कर दिया था। इसके विरोध में दो ही सांसदों ने इस्तीफ़ा दिया था, एक थे मधु लिमये और दूसरे थे शरद यादव।"
 
चरण सिंह और देवीलाल से क़रीबी
बहरहाल, आपातकाल हटाए जाने के बाद 1977 में जब चुनाव हुए तो शरद यादव दोबारा सांसद चुने गए। उस वक्त वह युवा जनता दल के अध्यक्ष भी थे। और शायद यह भी एक वजह रही होगी कि उन्हें जनता पार्टी की सरकार में मंत्री का पद नहीं मिला। इसको लेकर भी शरद यादव में अरसे तक मलाल रहा।
 
राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा होती है कि मधु लिमये चाहते थे कि युवा जनता दल के अध्यक्ष के तौर पर शरद यादव ख़ुद को मांजें ताकि समाजवादी दल की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए एक मजबूत चेहरा तैयार हो सके। शरद यादव 1978 में लोकदल के महासचिव बने थे।
 
हालांकि मोरारजी भाई देसाई की सरकार बहुत दिनों तक नहीं चली। जब चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तो उनकी कार में उनके बगल में शरद यादव थे, लेकिन मंत्रालय नहीं मिला। चरण सिंह का भरोसा उन्हें हासिल था।
 
1980 में शरद यादव लोकदल के उम्मीदवारों को लड़ाने में लगे रहे, ख़ुद चुनाव नहीं लड़े। जबलपुर से राजमोहन गांधी को टिकट दिया गया हालांकि वे चुनाव हार गए।
 
लेकिन जल्दी ही शरद यादव चुनाव मैदान में थे। मध्य प्रदेश से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश से। संजय गांधी की मौत के बाद अमेठी के उपचुनाव में चरण सिंह ने राजीव गांधी के सामने शरद यादव को उतारा और शरद ये चुनाव बुरी तरह से हारे।
 
1984 में चरण सिंह ने उन्हें बदायूं से लड़ाया और वहां भी वे हारे। लेकिन 1986 में राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचे। चरण सिंह की नज़दीकी के चलते शरद यादव इस दौरान चौधरी देवीलाल के भी बेहद क़रीब हो गए थे।
 
शरद यादव के राजनीतिक जीवन में दूसरा अहम मोड़ आया 1989 में, जब वे जनता दल के टिकट पर बदायूं से लोकसभा में पहुंचे। वीपी सिंह की सरकार में वे कपड़ा मंत्री तो थे, लेकिन जब देवीलाल और वीपी सिंह में नहीं बनी तो उन्होंने वीपी सिंह का साथ दिया।
 
शरद यादव ने राम विलास पासवान के साथ मिलकर वीपी सिंह से मंडल कमीशन लागू कराया जिसने कम से कम उत्तर भारत की राजनीति को एक हद तक बदल दिया।
 
वीपी सिंह के जीवन पर काफ़ी शोध करके लिखी गई पुस्तक 'द डिसरप्टर' में देबाशीष मुखर्जी ने लिखा है, 'मंडल कमीशन को लागू कराने में जिन तीन लोगों का योगदान सबसे अहम था, उसमें पहला स्थान शरद यादव का था, तो दूसरा स्थान राम विलास पासवान का था।'
 
मंडल कमीशन को लागू कराने में रही भूमिका
इस पुस्तक में लेखक ने शरद यादव से बात की, शरद यादव ने कहा, "हम दोनों मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने के पक्ष में थे। लेकिन वीपी सिंह उसे तत्काल लागू करने के पक्ष में नहीं थे। मैंने उनसे कहा कि अगर आप चाहते हैं कि लोकदल (बी) के सांसद आपके साथ रहें तो ये करना होगा नहीं तो सब देवीलाल के साथ जाएंगे।"
 
शरद यादव ये भी कहते हैं, "गर्दन पकड़ के करवाया उनसे।"
 
यहीं से शरद यादव की छवि मंडल मसीहा नेता के तौर पर बनी और इससे पहले उन्होंने बिहार में लालू प्रसाद यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाने में मदद की थी। 1990 में जब बिहार में जनता दल के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी आयी तो वीपी सिंह के उम्मीदवार राम सुंदर दास को पीछे करके लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया। हिंदी प्रदेश में देखते-देखते शरद यादव एकदम से महत्वपूर्ण हो गए थे।
 
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार जयशंकर गुप्त कहते हैं, "सामाजिक न्याय की लड़ाई में मंडल कमीशन का अहम योगदान रहा है और इसको मुख्यधारा में लाने का काम शरद जी का है। उनमें बहुत संभावनाएं थीं, लेकिन उन्हें उतने मौके नहीं मिले।"
 
इस बीच जैन हवाला कांड में पांच लाख रुपये लेने का आरोप भी शरद यादव पर लगा, जिसमें अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। हालांकि उन्होंने आरोप के बाद नैतिकता के आधार पर लोकसभा से इस्तीफ़ा दे दिया था।
 
मंडल कमीशन के बाद शरद यादव की राजनीति का कर्मक्षेत्र बिहार बना। पटना के वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार मणिकांत ठाकुर याद करते हैं, "मंडल कमीशन लागू होने के बाद वे पटना के गांधी मैदान की एक रैली में आए थे। वहां उन्होंने कहा था कि मंडल को रोकने के लिए हिंसक रास्तों का भी सहारा लिया जाएगा, ऐसे में पिछड़े वर्ग के भाइयों को सिर कटाकर भी इस आंदोलन को कमज़ोर नहीं होने देना है।"
 
1991 में बिहार के मधेपुरा से शरद यादव लोकसभा के सांसद बने। तीन राज्यों की अलग-अलग सीटों से लोकसभा में पहुंचने का ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता है।
 
जिस लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया और उनकी मदद से बिहार के मधेपुरा को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, उन्हीं लालू प्रसाद यादव से तल्खियां बढ़ीं और इस मुकाम तक पुहंची कि दोनों एक-दूसरे के सामने पहले जनता दल अध्यक्ष पद को लेकर खड़े हो गए और बाद में जनता की अदालत में भी गए।
 
1997 में जनता दल के अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर शरद यादव ने तब अपनी चुनौती पेश की थी जब लालू प्रसाद चारा घोटाले में मुश्किलों में फंसते जा रहे थे, उन्होंने इसके बाद राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था।
 
लालू प्रसाद ने अपनी पुस्तक 'राजनीतिक यात्रा गोपालगंज टू रायसीना' में राष्ट्रीय जनता दल के गठन की वजह बताते हुए कहा है, "जुलाई, 1997 में पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव होना था। मैं नहीं समझ पाया कि आख़िर शरद जी ने किन वजहों से आख़िरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फ़ैसला लिया।
 
मैं अपने नेतृत्व में पार्टी को जीत दिला रहा था, बिहार में दूसरी बार सरकार बन गई थी, केंद्र में सरकार थी, उन्हें मेरा साथ देना था, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी अध्यक्ष पद पर मुझे हटाकर क़ाबिज़ होने की हो गई। यहां मेरा धैर्य ख़त्म हो गया और मैंने सोच लिया कि अब काफ़ी हो गया है।"
 
दरअसल, पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए शरद यादव ने पार्टी की कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की संख्या इतनी कर ली थी कि लालू प्रसाद यादव को अंदाज़ा हो गया था कि अगर वे चुनाव लड़ेंगे तो उनकी हार होगी।
 
जब लालू पर पड़े थे भारी
बिहार में मधेपुरा की पहचान यादवों के गढ़ के तौर पर होती है और वहां से शरद यादव 1991 और 1996 का चुनाव जीत चुके थे। 1998 में लालू प्रसाद यादव ने उन्हें हराकर, ख़ुद को यादवों के नेता के तौर पर स्थापित किया।
 
लेकिन शरद यादव ने हिम्मत नहीं हारी और अगले ही साल उन्होंने हिसाब बराबर कर दिया। इस चुनाव का दिलचस्प विवरण वरिष्ठ पत्रकार प्रॉन्जय गुहा ठाकुराता और शंकर रघुरमन ने अपनी पुस्तक 'डिवाइड वी स्टैंड: इंडिया इन ए टाइम ऑफ़ कोएलिशन' में दिया है।
 
उन्होंने लिखा है, "1999 का चुनाव लालू प्रसाद यादव के लिए अहम था क्योंकि शरद यादव एनडीए उम्मीदवार के तौर पर उन्हें चुनौती दे रहे थे। लालू ने शरद की चुनौती को गंभीरता से नहीं लिया और उन्हें महज़ काग़ज़ी शेर समझते रहे। दूसरी तरफ़ शरद यादव लगातार दावा करते रहे कि इस चुनाव में वे साबित कर देंगे कि बिहार में वे यादवों के सबसे बड़े नेता हैं।"
 
"हालांकि चुनाव ख़त्म होने के बाद से ही शरद यादव फिर से वोटिंग कराने की मांग करने लगे थे। चुनाव आयोग ने उनकी मांग मानने से इनकार कर दिया। काउंटिंग शुरू होने पर शरद यादव ने ये भी कहा कि वे फिर से चुनाव कराए जाने के लिए आमरण अनशन करेंगे। लेकिन कुछ ही घंटों में उनकी स्थिति कॉमिक हो गई जब उनके समर्थकों ने आकर बताया कि वे चुनाव जीत गए हैं।"
 
आरजेडी में शामिल हुए
लालू प्रसाद यादव को शरद यादव ने हराकर यह तो साबित कर दिया कि बिहार में उनकी पकड़ भी हो चुकी है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनके नेतृत्व में जनता दल कमज़ोर हो चुकी थी। ऐसे वक्त में शरद यादव ने नीतीश कुमार से अपने संबंध सुधारे और लालू प्रसाद यादव के सामने उनको बढ़ाने का फ़ैसला लिया।
 
मणिकांत ठाकुर कहते हैं, "नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीस को एक तरह से मजबूर कर दिया था जिसके बाद जॉर्ज फर्नांडीस ने समता पार्टी के जनता दल(यू) में विलय करने की घोषणा अक्टूबर, 2003 में कर दी।"
 
शरद यादव अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री, श्रम मंत्री और उपभोक्ता मामलों के मंत्री रहे और जॉर्ज फ़र्नांडीस के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक भी रहे। इस दौरान गुजरात दंगे के दौरान भी वे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री बने रहे।
 
लेकिन 2013 में नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की ओर से चुनाव अभियान की कमान थमाने के बाद शरद यादव ने संयोजक पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इतना ही नहीं, 2014 के आम चुनाव को लेकर उनका आकलन सही नहीं रहा और नरेंद्र मोदी बंपर जीत के साथ भारत के प्रधानमंत्री बने।
 
2003 से 2016 तक शरद यादव जनता दल (यूनाइटेंड) के अध्यक्ष रहे। इसके बाद नीतीश कुमार ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें पार्टी से बाहर निकाल दिया और उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी गंवानी पड़ी। इसके बाद 2018 में शरद यादव ने लोकतांत्रिक जनता दल बनायी जिसका विलय उन्होंने 2022 में राष्ट्रीय जनता दल में कर दी।
 
अक्खड़ और बेबाक बोल
शरद यादव अपने अक्खड़ स्वभाव और बेबाक बोल के लिए भी जाने जाते रहे। संसद के अंदर महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण के मसले पर उन्होंने सवर्ण महिलाओं के लिए आपत्तिजनक शब्द कहे थे। टेलीविज़न चैनल वालों के लिए वे 'डब्बा वाले' शब्द का इस्तेमाल करते रहे।
 
शरद यादव पढ़ने-लिखने वाले नेताओं में रहे, इतिहास में उनकी विशेष दिलचस्पी थी। लेकिन वे हमेशा आंखों देखी पर भरोसा करते रहे।
 
शरद यादव की राजनीतिक विरासत पर उनकी बेटी सुभाषिनी और बेटा शांतनु बुंदेला दोनों दावा पेश कर रहे हैं। बेटी 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में मधेपुरा के बिहारीगंज से चुनाव लड़ चुकी हैं, हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
 
जबकि उनके बेटे शांतनु मधेपुरा में राजनीतिक ज़मीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने में कितने कामयाब होंगे, ये तो समय ही बताएगा।
 
वैसे शरद यादव को ऐसे राजनेता के तौर पर हमेशा याद किया जाएगा जिन्होंने कई सरकारों को बनाने और गिराने में अहम भूमिका निभायी। जिनसे दोस्ती की, वक्त आने पर उनसे दुश्मनी भी ख़ूब निभायी। सिंगापुर में अपना इलाज करा रहे लालू प्रसाद यादव ने उन्हें याद करते हुए कहा कि उनसे लड़ाई हो जाया करती थी, लेकिन इसका असर आपसी संबंधों पर नहीं रहा।
 
बहरहाल, जेपी और मधु लिमये जैसे नेताओं ने शरद यादव में जितनी संभावनाएं देखी थीं, वे वैसा नहीं कर सके। जानकार इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि छोटे-छोटे हितों के लिए वे तमाम समझौते करते रहे। जयशंकर गुप्ता कहते हैं, "समाजवादी राजनीति को उनसे ढेरों उम्मीदें थीं, बहुत पूरी हुईं, कुछ रह भी गईं।"

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