लोकसभा चुनाव 2019 : बालाकोट एयरस्ट्राइक की राजनीति पर क्या सोचता है 'फ़ौजियों का गांव'?
- कुलदीप मिश्र
- अपने नेताओं से चुनाव प्रचार के दौरान सैन्यबलों और उनकी गतिविधियों का इस्तेमाल न करने को कहें और प्रचार में सेना से जुड़े जवानों और उनसे जुड़ी तस्वीरों का इस्तेमाल बिल्कुल न करें। - 9 मार्च को चुनाव आयोग की ओर से सभी राजनीतिक दलों के लिए जारी किए गए दिशा-निर्देश
- पुलवामा में घटना हुई तो लोगों को लगा कि अब सर्जिकल स्ट्राइक नहीं होगी। लेकिन ठीक 13वें दिन हमारी नरेंद्र मोदी सरकार के ज़रिए एयरस्ट्राइक की गई जिसमें 250 से ज़्यादा आतंकी मारे गए। - 3 मार्च को अहमदाबाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह
- पहला वोट आपका जो आपके जीवन की ऐतिहासिक घड़ी है। क्या आपका पहला वोट पाकिस्तान के बालाकोट में एयरस्ट्राइक करने वाले वीर जवानों के नाम समर्पित हो सकता है क्या? मैं मेरे फर्स्ट टाइम वोटर से कहना चाहता हूं कि आपका पहला वोट पुलवामा के वीर शहीदों के नाम समर्पित हो सकता है क्या। - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 8 अप्रैल को महाराष्ट्र के लातूर में
पुलवामा हमला, बालाकोट एयरस्ट्राइक, चुनावी रैलियों में एयरस्ट्राइक का ज़िक्र और चरमपंथियों की संख्या को लेकर अलग-अलग दावे। 2019 लोकसभा चुनाव शुरू होने के पहले से ही सेना भी राजनीतिक चर्चाओं में शुमार हो गई थी।
विपक्ष ने सत्ताधारी भाजपा पर सेना के राजनीतिकरण का आरोप लगाया और इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में भी अपील की। लेकिन इस बारे में भारत के पूर्व सैनिक क्या सोचते हैं? क्या उन्हें लगता है कि सेना को राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की कोशिश हुई है? यह समझने के लिए हम 'फ़ौजियों का गांव' कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर स्थित गहमर गांव पहुंचे।
फ़ौजियों का गांव 'गहमर'
गहमर की गिनती एशिया की सबसे बड़ी आबादी वाले गांवों में होती है। स्थानीय लोग यहां की आबादी एक लाख से अधिक बताते हैं। यहां लगभग हर परिवार से लोग सुरक्षाबलों में हैं या फिर पहले रह चुके हैं। लोगों का दावा है कि यहां क़रीब दस हज़ार पूर्व सैनिक पेंशनर रहते हैं और अब भी क़रीब 15 हज़ार लोग सेना और अर्धसैनिक बलों में तैनात हैं।
पहले और दूसरे विश्व युद्ध, 1965, 1971 और उसके बाद कारगिल युद्ध में भी गहमर के फ़ौजियों ने हिस्सा लिया था। यहां एक पूर्व सैनिक सेवा समिति का दफ़्तर है, जिसके भवन निर्माण में भाजपा सांसद मनोज सिन्हा और मौजूदा बसपा प्रत्याशी अफ़ज़ाल अंसारी दोनों ने आर्थिक मदद की थी। इस दफ़्तर में हर रविवार को सैनिकों से जुड़े मुद्दों पर बैठकें होती हैं।
बदनामी भी मोदी को तो श्रेय भी उन्हीं का
14 मई की शाम यहां कई पूर्व सैनिकों और सैनिकों के परिवार के लोगों से बात हुई। यहां सेवानिवृत्त जीवन में भी सेना के कुछ बुनियादी नियमों का पालन किया जाता है। मसलन, पूर्व सिपाही ख़ुद से वरिष्ठ पद पर रहे सैन्यकर्मियों को 'साहब' कहकर संबोधित करते हैं। महेंद्र प्रताप सिंह 1964 से 1986 तक सेना में सिपाही रहे।
पूर्व सैनिक महेंद्र प्रताप सिंह
वह मानते हैं कि बालाकोट हमले का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए। वह कहते हैं, अगर उस पार गए जहाज़ों के साथ कोई हादसा हो जाता तो उसकी बदनामी प्रधानमंत्री की होती। इसलिए सेना के सफल ऑपरेशन पर कहा ही जाएगा कि प्रधानमंत्री ने साहसिक प्रदर्शन किया।
महेंद्र प्रताप सिंह मानते हैं कि यूपीए सरकार में हुए मुंबई हमलों के समय भी ऐसे हालात थे लेकिन उस वक़्त की सरकार ने कार्रवाई के आदेश नहीं दिए थे।
लेकिन 1978 से 1995 तक आर्मी मेडिकल कॉर्प्स में रहे शिवानंद सिंह की राय अलग है। वह मानते हैं कि इस सरकार में सेना ही नहीं देश की सभी बड़ी संस्थाओं का राजनीतिकरण हुआ है। वह कहते हैं, आप सीबीआई से लेकर सीजेआई तक देख लीजिए। उनका मानना है कि पुलवामा हमले पर शासन को अपनी ग़लती माननी चाहिए क्योंकि ख़ुफिया विभाग की रिपोर्ट होने के बावजूद चरमपंथियों के गढ़ में इतना बड़ा काफ़िला भेजा गया।
पूर्व सैनिक शिवानंद रॉय
लेकिन बालाकोट एयरस्ट्राइक क्या मोदी सरकार की मज़बूत छवि का प्रतीक नहीं है? यह पूछने पर वो कहते हैं, हर शासनकाल में सेना को जो मिशन मिलता है, सेना पूरा करती है। ऐसा नहीं है कि भाजपा का शासन है, तभी एक्शन हो रहा है। ये एक्शन सबके समय में हुआ है। सेना को इस राजनीतिक प्रक्रिया में लाना ग़लत है।
रिटायर हो चुके वीरबहादुर सिंह भी सेना में रहे हैं। वह एक क़दम आगे बढ़कर कहते हैं, शहीदों के नाम पर वोट मांगने की परंपरा नई है और मैं कहूंगा कि ये सराहनीय परंपरा है। वह मानते हैं कि इस विवाद में किसी की ग़लती नहीं है। चूंकि यह घटना चुनावों से ठीक पहले हुई है इसलिए इस पर विवाद इतना बढ़ गया। उनके मुताबिक़, इसके बाद विपक्ष को लग रहा है कि भाजपा सारा श्रेय ले रही है और वोट लेने में वो पिछड़ रहे हैं।
चतुराई से अपनी बातें थोप रहे हैं मोदी
बताया जाता है कि पहले विश्व युद्ध के समय 1916 में गहमर के 221 जवानों ने ब्रिटेन की ओर से लड़ाई लड़ी थी। इनमें से 21 जवान शहीद हो गए थे। विमलेश सिंह गहमरी के पिता भी उस लड़ाई में शामिल हुए थे। उनके भाई नेवी में कमांडर रहे और अब रिटायर हो चुके हैं।
वह कहते हैं, गहमर बहादुरों का गांव है। यहां के लोग सेना और सुरक्षाबलों को पसंद करते हैं। यहां लोगों ने पूर्वजों का पेशा अपनाना पसंद किया। लेकिन विमलेश सिंह कहते हैं कि सेना के राजनीतिकरण से वो आहत महसूस करते हैं।
वह कहते हैं, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट कह चुके हैं कि चुनाव में सेना का इस्तेमाल कोई नहीं करेगा। फिर भी बहुत चतुराई से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी बालाकोट हमले को लेकर जनता पर अपनी बातें थोप रहे हैं। ये बहुत ही निकृष्ट काम है। चुनाव आयोग के निर्देश के बाद भी मोदी ऐसा करते हैं तो इसका यही मतलब हुआ कि वो ख़ुद को सुपरमैन समझ रहे हैं।
पूर्व सैनिक आदित्य सिंह
साल 1960 में सेना में सिपाही के तौर पर भर्ती हुए रिटायर्ड फ़ौजी आदित्य सिंह नरेंद्र मोदी को अपना समर्थन खुलकर ज़ाहिर करते हैं। वह 1971 की याद दिलाते हैं, जब बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग किया गया तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं और उन्हें श्रेय दिया गया। इसी तरह आज श्रेय मोदी को ही जाएगा।
लेकिन उनके ऐसा कहते ही विमलेश सिंह गहमरी की उनसे बहस हो गई। विमलेश ने तुरंत प्रतिवाद करते हुए कहा, हम बताते हैं कि इसमें क्या ग़लत है। कभी किसी प्रधानमंत्री ने श्रेय लेने की कोशिश नहीं की। जनता ने उन्हें श्रेय दिया। उस समय के विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा को दुर्गा कहा। लेकिन कोई अपनी पीठ ख़ुद थपथपाए, ये ठीक नहीं।
आदित्य सिंह चुनाव में सेना के इस्तेमाल की बात से इनकार करते हैं। वो कहते हैं कि सेना से कोई ये नहीं कहता है कि आप सिर्फ़ मुझे ही वोट दो। सेना स्वतंत्र है और सैनिक और उनके परिवार जिसे ठीक समझेंगे वोट देंगे।
चुनावी बैनरों पर शहीदों की तस्वीरों या ज़िक्र के इस्तेमाल पर वह कहते हैं, शहीदों को नमन तो कोई भी कर सकता है। इन पूर्व सैनिकों से हमने तेज़बहादुर यादव के बारे में भी राय ली, जो बीएसएफ़ में ख़राब गुणवत्ता के खाने का वीडियो बनाकर चर्चा में आए थे और जिनका वाराणसी से लोकसभा चुनावों के लिए नामांकन ख़ारिज़ हो गया था।
पूर्व सैनिक विमलेश सिंह गहमरी
विमलेश सिंह गहमरी इसे तेज़बहादुर का एक निजी मामला बताते हैं लेकिन उनके ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई से वो संतुष्ट नहीं। वो कहते हैं, ऐसी स्थिति में आप इसकी जांच करेंगे या किसी को बर्ख़ास्त कर देंगे? कोई गांव वाला कहे कि वो भूखा मर रहा है तो क्या कान पकड़कर उसे गांव से बाहर कर देंगे? यही इंसानियत है?
आदित्य सिंह लगे हाथ जेडीएस नेता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी का एक विवादित बयान याद दिलाते हैं। वो कहते हैं, उन्होंने कहा कि जिन्हें खाने को नहीं मिलता वो सेना में जाते हैं। ये पूरे देश का अपमान है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर्नाटक की अपनी रैलियों में इस बयान के हवाले से कुमारस्वामी पर हमला कर चुके हैं। हालांकि बाद में कुमारस्वामी ने अपनी सफ़ाई में कहा था कि वह सिर्फ़ ऐसे परिवारों की आर्थिक स्थिति की ओर इशारा कर रहे थे और वो किसी का अपमान नहीं करना चाहते थे।
बालाकोट एयरस्ट्राइक में एक विवाद हताहत चरमपंथियों की संख्या को लेकर भी हुआ। महेंद्र प्रताप सिंह को लगता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी चुनावी रैली में वहां मौजूद मोबाइल सिग्नल के आधार पर एक अनुमानित संख्या बताई थी और विपक्ष सबूत मांगने लगा।
बालाकोट का मदरसा कथित तौर पर जिसे निशाना बनाकर हमला किया गया था, लेकिन विमलेश सिंह गहमरी मानते हैं कि विपक्ष ने एयरस्ट्राइक पर नहीं, संख्या पर सवाल उठाया था। वो कहते हैं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो कहा कि चार सौ मर गए। ये किसी ज़िम्मेदार नेता की भाषा है? आदित्य सिंह मानते हैं कि विपक्ष ने कोई एयरस्ट्राइक की गई- इसे ही मानने से इनकार कर दिया गया।
लेकिन हमने जब उनसे ज़िक्र किया कि एयरस्ट्राइक के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, राजद प्रमुख तेजस्वी यादव, आप संयोजक अरविंद केजरीवाल समेत कई बड़े विपक्षी नेताओं ने ट्वीट करके वायुसेना के पायलटों को सलाम किया था, तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी।
वह मानते हैं कि ज़्यादातर विपक्षी नेताओं ने एयरस्ट्राइक के सबूत मांगे थे। क्या ऐसा माहौल बनाया गया कि एयरस्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री की प्रशंसा न करने वाले देशद्रोही हैं? आदित्य सिंह इससे सहमत नहीं लेकिन शिवानंद सिंह इस पर ज़ोर से 'बिल्कुल' कहकर सहमति जताते हैं।
वह कहते हैं, राजस्थान में एक बच्ची के साथ कोई घटना हुई है। उसे लेकर प्रधानमंत्री ने एक रैली में टिप्पणी की कि वे बुद्धिजीवी कहां हैं जो अपने पुरस्कार वापस कर रहे थे। लेकिन लोगों ने अपने पुरस्कार तब वापस किए थे जब कलबुर्गी जैसे साहित्यकार की हत्या में कोई कार्रवाई नहीं हुई थी।
वह कहते हैं, एक माहौल ऐसा बनाया गया कि ऐसे स्वतंत्र विचार वाले लोग देशद्रोही हैं। देश में सत्ता पक्ष की ओर से ऐसा एक प्रयास दिख रहा है कि जो मैं हूं, जो मैं सोचता हूं, वही सब बनें, वही सब सोचें। इसके बाद वो मुस्कुराकर कहने लगे, यहां भाजपाइयों के बीच ये बात कहकर मैं अपनी जान का जोखिम ले रहा हूं। ज़्यादा मत बुलवाइए। जान से मार देगा सब। इन पूर्व सैनिकों और यहां बैठे लोगों में एक ज़ोरदार ठहाका गूंज गया।