‘एनडीए’ और ‘इंडिया’ से अलग इन पार्टियों की रणनीति क्या है?

BBC Hindi

गुरुवार, 20 जुलाई 2023 (08:00 IST)
कीर्ति दुबे, बीबीसी संवाददाता
मंगलवार का दिन देश के आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से काफ़ी अहम रहा। बेंगलुरु में विपक्षी पार्टियों की चल रही बैठक के बाद दोपहर तक विपक्ष ने 26 पार्टियों के गठबंधन का एलान कर दिया। इसका नाम है- इंडियन नेशनल डिवेलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस यानी इंडिया।
 
इसके थोड़ी देर बाद ही बीजेपी ने दिल्ली के अशोका होटल में एनडीए की एक बैठक की और आने वाले चुनाव में बीजेपी के गठबंधन की तस्वीर कैसी होगी इसकी पहली झलक सामने आई है। हालांकि इस बैठक से पहले एनडीए की शायद ही मोदी सरकार में कोई बैठक हुई थी। विपक्ष ने 26 पार्टियों का दम दिखाया तो बीजेपी ने अपनी बैठक में 38 पार्टियां बुलाई।
 
एनडीए के राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन में लगभग सभी पार्टियां छोटी क्षेत्रीय पार्टियां थीं। गणित के हिसाब से कुल 66 पार्टियों ने अपना रुख़ साफ़ कर दिया है कि आने वाले चुनाव में वो इंडिया के साथ चुनाव लड़ेंगी या एनडीए के साथ। लेकिन कुछ बड़ी पार्टियां दोनों ही खेमों से दूर रही हैं।
 
कौन सी पार्टी दोनों गठबंधन से दूर हैं?
जो पार्टियां अब तक दोनों ही बड़े गठबंधनों से दूर हैं उन पर और उनकी राजनीति पर एक नज़र। शिरोमणि अकाली दल: अटकलें लगाई जा रही थीं कि बीजेपी शिरोमणि अकाली दल को फिर अपने साथ ला सकती है, लेकिन मंगलवार को एनडीए की जो तस्वीर सामने आईं, उनमें अकाली दल नहीं था।
 
अकाली दल विपक्ष की भी बैठकों से भी दूर रहा। जानकार मानते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह है आम आदमी पार्टी।
 
राज्य में अकाली दल और आम आदमी पार्टी आमने-सामने हैं और इसलिए वो उस मंच पर आने से कतरा रही है, जिसमें आम आदमी पार्टी पहले से मौजूद है।
 
बीजेपी और अकाली दल का गठबंधन पुराना रहा है। पंजाब चुनाव में अकाली बीजेपी के साथ बड़े भाई की भूमिका में चुनाव लड़ा करते थे लेकिन जब विवादित कृषि बिल आया तो अकाली दल ने अपना दशकों पुराना रिश्ता बीजेपी से तोड़ लिया था।
 
बहुजन समाज पार्टी: बसपा कभी एनडीए में सीधे तौर पर शामिल नहीं हुई, लेकिन हालिया समय में मायावती बीजेपी या केंद्र सरकार पर बहुत हमलावर होती नहीं दिखतीं।
 
राष्ट्रपति पद के लिए भी मायावती ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया था और उपराष्ट्रपति पद के लिए जगदीप धनखड़ को समर्थन दिया था। लेकिन साल 2014 में बसपा ने कांग्रेस के गठबंधन यूपीए का समर्थन किया था और इस चुनाव में वो खाता भी नहीं खोल पाई थी।
 
इस बार मायावती ने विपक्ष की बैठक से दूरी बनाए रखी। जब से विपक्ष के गठबंधन की चर्चा तेज़ हुई थी तब से ही मायावती ने साफ़ कहा था कि वो इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होंगी, ना ही उन्हें विपक्ष के नेताओं ने न्योता दिया।
मायावती भी ये साफ़ कर चुकी हैं कि वो आने वाला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी।
 
जनता दल सेक्युलर: कर्नाटक की जनता दल सेक्युलर पार्टी को लेकर हाल ही में कर्नाटक बीजेपी के वरिष्ठ नेता बीएस येदियुरप्पा ने संकेत दिए थे कि जेडीएस और बीजेपी एक साथ चुनाव लड़ सकते हैं।
 
जेडीएस ऐसी पार्टी है जिसका गठबंधन बीजेपी के साथ भी रहा है और कांग्रेस के साथ भी रहा है। राज्य में कांग्रेस जेडीएस की मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी है। राज्य के चुनाव में देखें तो जेडीएस को मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिलता रहा था लेकिन इस चुनाव में मुसलमान वोट कांग्रेस पार्टी की ओर बड़ी तादाद में गया है।
 
इसे देखते हुए ये चर्चा तेज़ थी कि जेडीएस एनडीए के साथ गठबंधन आने वाले चुनाव के लिए कर सकती है। लेकिन मंगलवार को एनडीए की तस्वीर से जेडीएस भी ग़ायब था।
 
बीजू जनता दल: बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक 25 सालों से राज्य की सत्ता में हैं। ओडिशा की राजनीति में कोई भी पार्टी बीजेडी के सामने नहीं टिकती।
 
बीजेडी भले ही अब तक दोनों गठबंधन से दूर रहा है लेकिन ऐसे कई मौक़े अतीत में सामने आए हैं, जहां बीजेपी को बीजेडी ने खुलकर समर्थन किया है। साल 2019 में बीजेडी ने राज्यसभा की एक सीट बीजेपी के लिए छोड़ दी थी। इस सीट से बीजेपी ने अश्विनी वैष्णव को टिकट दिया था।
 
हाल ही में बीजेडी के प्रवक्ता प्रसन्न अचार्य ने कहा था कि हम न्यूट्रल बने रहना चाहते हैं, हम पार्टियों को मुद्दे के आधार पर समर्थन देते रहे हैं।
 
वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और तेलगू देशम पार्टी: आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस राज्य में भले बीजेपी के साथ ना हो लेकिन जगनमोहन रेड्डी कई मौक़ों पर केंद्र सरकार की नीतियों का खुला समर्थन करते रहे हैं।
 
साल 2010 में कांग्रेस से अलग हो कर बनाई गई वाईएसआर-कांग्रेस का कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ जाने के आसार पहले ही कम लग रहे थे, लेकिन एनडीए के डिनर में भी जगनमोहन रेड्डी का ना होना ये बताता है कि दक्षिण के इस राज्य में बीजेपी ने अब तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। इसके अलावा चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी भी दोनों गठबंधन की बैठक में शामिल नहीं रहीं।
 
चंद्रबाबू नायडू साल 2018 तक एनडीए का हिस्सा थे, 2019 का चुनाव बीजेपी ने टीडीपी के बिना लड़ा लेकिन इसके बाद कई बार चंद्रबाबू नायडू ने अमित शाह से मुलाक़ात की और उनके एनडीए में दोबारा आने की खबरें तेज़ हो गई थीं।
 
लेकिन मंगलवार को दोनों ही पार्टी बीजेपी के राजनीतिक डिनर से ग़ायब रहीं। ख़बर है कि बीजेपी ने इन दोनों क़रीबी पार्टियों को न्योता नहीं दिया।
 
असद्दुदीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी भी अब तक किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं है।
 
आख़िर ये पार्टियां क्यों किसी खेमें का हिस्सा नहीं
ये तो हो गई बात उन मुख्य पार्टियों की जो अब तक दोनों खेमों से दूर हैं लेकिन आने वाले चुनाव में जब ज़्यादातर पार्टियां अपने-अपने गठबंधन चुन चुकी है, ऐसे में ये दल अपनी मौजूदा स्थितियों में लोकसभा चुनाव में क्या भूमिका निभाएंगे?
 
हमने यही सवाल वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन से पूछा। वह कहती हैं, "दोनों मंचों से ग़ायब रही तेलंगाना की बीआरएस के अपने कुछ मसले हैं, जिनके चलते वो गठबंधन से दूर हैं। राज्य में चुनाव से पहले वो किसी भी ऐसे गठबंधन का हिस्सा नहीं हो सकते जिनका कांग्रेस, बीजेपी भी हिस्सा है।''
 
''नवीन पटनायक की बात करें तो वो तटस्थ ही रहते हैं। उनका किसी गुट के साथ विचारधारा का मतभेद नहीं है लेकिन वो केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उनके साथ ही नज़र आते हैं। इसकी महत्वपूर्ण वजह है कि वो उस नीति के तहत काम करते हैं जो उनके राज्य के लिए फ़ायदेमंद साबित हो, तो उनका किसी भी गठबंधन से दूर रहना कोई नई बात नहीं है।"
 
"अगर बात बीएसपी की करें तो उसके साथ विश्वास की कमी सबसे बड़ी समस्या है। मायावती ने कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा, जीत के बाद बीजेपी के साथ गठजोड़ कर लिया और सरकार बना ली। समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और फिर तोड़कर उन पर आरोप लगाए।''
 
साथ ही मायावती का वोटबैंक ऐसा है कि वो खुल कर बीजेपी के साथ नहीं जा सकतीं और ना ही एनडीए का हिस्सा बन सकती हैं। तो आज जो भी पार्टी इन दोनों गठबंधन का हिस्सा नहीं है, उसकी वजह उनके निजी हित या उनके क्षेत्र की राजनीति है। बीएसपी के मामले में भरोसा एक बड़ी अड़चन है।
 
टीडीपी- वाईआरएस और बीजेपी के बीच का खेल
बसपा अकेली ऐसी पार्टी नहीं है, जिसे गठबंधन की बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रण नहीं मिला बल्कि बीजेपी के क़रीब मानी जाने वाली आंध्र प्रदेश की पार्टियों तेलगू देशम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस को एनडीए की बैठक का न्योता तक नहीं मिला।
 
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बीजेपी आख़िर गठबंधन क्यों नहीं बना रही है या ये पार्टियां क्यों गठबंधन से दूर है?
 
बीबीसी तेलगू सेवा के संपादक जीएस राममोहन केसीआर के इस क़दम के पीछे की राजनीति को विस्तार से बताते हैं।
 
वह कहते हैं, “आज से पांच महीने पहले तक केसीआर की पार्टी बीआरएस का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी बीजेपी को माना जा रहा था। लेकिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक के चुनाव में आए नतीज़ों ने बीजेपी को चुनावी रेस की बैकसीट पर धकेल दिया है। आज के समय में कांग्रेस बीआरएस की सबसे बड़ी प्रतिद्वंदी मानी जा रही है। इसलिए विपक्षी मंच पर खड़े होने की भूल भी केसीआर ऐसे समय में नहीं कर सकते।”
 
आंध्र प्रदेश की राजनीति को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि हैदराबाद के राजनीतिक गलियारों में ऐसी चर्चा ज़ोरों पर है कि "दिल्ली के शराब मामले में के कविता का नाम आने के बाद और बीते दिनों उन पर लटक रही गिरफ्तारी की तलवार के बीच केसीआर और बीजेपी के बीच पीछे के दरवाज़े से बातचीत हुई है, जिसके कारण ना तो अब कविता के आवास पर ईडी के छापे की खबरें सामने आ रही हैं और ना ही केसीआर बीजेपी और पीएम मोदी पर हमलावर बयान दे रहे हैं। दोनों ही फ्रंट पर शांति छाई हुई है।"
 
वहीं आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस सरकार और केंद्र सरकार के बीच की नज़दीकियां छिपी नहीं हैं। जगनमोहन रेड्डी ने केंद्र सरकार के सभी क़ानूनों को निर्विरोध रूप से राज्य में लागू किया है।
 
वहीं राज्य की दूसरी पार्टी टीडीपी ने साल 2014 में बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था लेकिन साल 2018 में चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग के साथ एनडीए से गठबंधन तोड़ दिया।
 
इसके बाद चंद्रबाबू नायडू ने कई रैली में मोदी सरकार पर खुल कर हमला बोला। लेकिन हुआ ये कि वो राज्य का चुनाव हार गए और सत्ता से बाहर हो गए।
 
साल 2019 में मोदी 2.0 सरकार बनी और उसके बाद से चंद्रबाबू नायडू कई बार एनडीए के साथ दोबारा गठबंधन की अपनी इच्छा ज़ाहिर कर चुके हैं।
 
यानी वाईएसआर कांग्रेस और टीडीपी दोनों ही एनडीए के क़रीब जाती दिखती हैं लेकिन बीजेपी ने आख़िर इन्हें क्यों बैठक के लिए आमंत्रित नहीं किया?
 
राम मोहन इस सवाल का जवाब देते हए कहते हैं, “बीजेपी के साथ दोनों पार्टियां आने को आतुर हैं और बीजेपी राज्य में इस स्थिति में है, जहाँ वो अपनी पसंद की पार्टी चुनकर गठबंधन बनाए। अगर किसी भी एक पार्टी को एनडीए की बैठक में बुलाया जाता तो दूसरी पार्टी को संदेश जाता कि उसकी बीजेपी से गठबंधन बनाने की संभावना ख़त्म हो चुकी है और दोनो पार्टी जो राज्य में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ी हैं वो एक मंच पर आ नहीं सकतीं, ऐसे में बीजेपी ने दोनों को ना बुलाने का रास्ता चुना। ”
 
आंध्र प्रदेश में बीजेपी का वोटशेयर एक फ़ीसदी भी नहीं है लेकिन जन सेना, टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस तीनों ही बीजेपी के साथ गठबंधन की कोशिश में लगे हैं आख़िर क्यों?
 
इस सवाल का जवाब राजनीतिक विश्लेषक इशारों में देते हैं। जगनमोहन रेड्डी पर 31 आपराधिक मामले हैं, जिनकी जांच सीबीआई, ईडी कर रही है।
 
वहीं, चंद्रबाबू नायडू के लिए आगामी विधानसभा चुनाव 'करो या मरो' की स्थिति है, जानकार मानते हैं कि अगर, चंद्रबाबू नायडू एक और चुनाव हार जाते हैं तो ये उनकी पार्टी के अस्तित्व को मुश्किल में डाल सकता है।
 
अकाली दल का असमंजस
कुछ ऐसी ही दुविधा पंजाब के अकाली दल की है। अकाली दल पारंपरिक रूप से कांग्रेस की विरोधी पार्टी है। ऑपरेशन ब्लूस्टार, 1984 के दंगे, आपातकाल, नदियों के पानी के बँटवारे सहित कई मुद्दों पर अकाली दल कांग्रेस के विरोध में खड़ी रही है।
 
अकाली दल के एक नेता नाम ना छापने की शर्त पर कहते हैं, “कांग्रेस के साथ हमारा अतीत ऐसा है कि हम उनके साथ मंच साझा नहीं कर सकते वो लंबे समय से राज्य में हमारी विरोधी रही हैं। वहीं आम आदमी पार्टी वर्तमान समय में आकाली दल की विरोधी पार्टी है। ऐसे में इन पार्टियों के साथ एक मंच साझा करना हमारे लिए सही नहीं है। वहीं पंजाब में केंद्र सरकार के किसान बिल को लेकर जो ग़ुस्सा था, उसे देखते हुए एनडीए के साथ जाना भी जोखिम वाला क़दम हो सकता है।”
 
अकाली दल की बीजेपी से दूरी समझने के लिए दो बयान गौर करने लायक हैं।
 
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दो दिन पहले अकाली दल के एनडीए से अलग रहने की बात कहते हुए कहा था, ''बीजेपी ने किसी को नहीं छोड़ा है, जो लोग हमें छोड़कर चले गए, उनसे हम अब भी बात कर रहे हैं, उनका व्यवहार मित्रवत रहा है। जो लोग चले गए हैं, उन्हें निर्णय लेना है कि उन्हें कब लौटना है।”
 
इससे कुछ दिन पहले बीजेपी की पंजाब इकाई के नए अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने कहा था, ''हमें छोटे भाई की मानसिकता से बाहर आना होगा।''
 
पंजाब की राजनीति में अकाली दल ख़ुद को बड़ा भाई और बीजेपी को छोटा भाई बताती रही है। बीजेपी गठबंधन में 117 में से सिर्फ़ 23 और 13 लोकसभा सीटों में से 3 पर ही लड़ती थी।
 
लेकिन पंजाब की राजनीति के जानकारों का मानना है कि बीजेपी लंबे समय से पूरे देश की तरह पंजाब में भी अपने विस्तार की नीति का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है। हालांकि वह अब तक सफल नहीं हो सकी है। हालांकि अब तक शिरोमणि अकाली दल ने आने वाले आम चुनाव में उनका रुख़ क्या होगा ये साफ़ नहीं किया है।
 
न इधर ना उधर
लोकसभा चुनाव होने में अब से 10 महीने का वक़्त बचा है। ये एक लंबा समय है और राजनीतिक समीकरण चुनाव के समय तेज़ी से बदलते हैं लेकिन अगर मंगलवार की तस्वीर देख कर आगामी चुनाव कैसा हो सकता है इसका अंदाज़ा लगाए तो वो क्या भूमिका होगी जो ये पार्टियां निभाएंगी।
 
इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, “ज्यादातर जो पार्टी अब तक किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं वो व्यवहार से सेक्युलर हैं और उनका वोट बैंक कमोबेश वही है जो विपक्ष के गठबंधन का वोट बैंक हैं। ऐसे में अगर वो अकेले चुनावी मैदान में उतरीं तो इंडिया गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकती हैं।''
 
''ये भी संभव है कि वो बीजेपी के साथ भीतर खाने सौदा कर लें और विपक्ष के वोट में सेंध लगा कर बीजेपी को थोड़ा बहुत फ़ायदा पहुंचा दें। मायावती की बात करें तो उनका वोट बैंक दलित और पिछड़े मुसलमान हैं। ऐसे में गठबंधन बनाम गठबंधन के चुनाव से अलग वो अकेले लड़ेंगी तो ज़ाहिर है इससे दलित और मुलमान वोटों के बंटने का ख़तरा होगा।”
 
सुनीता एरॉन भी मानती हैं कि अब तक देख कर ऐसा लग रहा है कि आने वाला चुनाव दो गठबंधनों के बीच लड़ा जाएगा। एक गठबंधन सेक्युलर होगा तो दूसरा हिंदूवादी छवि वाला होगा, लेकिन अगर ये चुनिंदा पार्टी मौदान में अकेले उतरेंगी तो उनकी भूमिका वोटकटआ पार्टी तक सीमित रह जाएगी।

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