बिहार चुनाव: नतीजों ने जीतने और हारने वालों को क्या-क्या सिखाया?

BBC Hindi

गुरुवार, 12 नवंबर 2020 (07:18 IST)
सिन्धुवासिनी, बीबीसी संवाददाता
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आख़िकार सबके सामने हैं। इन नतीजों ने चुनावी और राजनीतिक विश्लेषकों को काफ़ी हद तक चौंकाया है।
 
मगर परिणाम चाहे जैसा भी हो, अब समझना ये है कि इस चुनाव के क्या बड़े निष्कर्ष हैं और यह चुनाव हमें क्या सिखाता है। यही समझने के लिए हमने अलग-अलग विश्लेषकों से बात की। उनसे बातचीत में जो निष्कर्ष सामने आए वो कुछ इस तरह हैं:
 
प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी का प्रभुत्व
इस चुनाव में महागठबंधन और एनडीए में काँटे की टक्कर रही और आख़िरकार एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला। भले ही आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हो लेकिन दूसरे नंबर पर बीजेपी ही रही। यहाँ तक कि बीजेपी ने सत्ताधारी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को भी पिछले पायदान पर धकेल दिया।
 
वरिष्ठ राजनीतिक संपादक अदिति फडणीस का मानना है कि इस बार बिहार में बीजेपी अपेक्षाकृत कम सक्रिय रही इसके बावजूद लोगों ने जेडीयू से ज़्यादा भरोसा बीजेपी में दिखाया।
 
वो कहती हैं, “चाहे ये बीजेपी का प्रोजेक्ट किया विकास का एजेंडा हो या उसकी हिंदुत्व की रणनीति, दोनों का ही फ़ायदा उसे बिहार में मिला। एनडीए के वोटरों में नीतीश से ज़्यादा भरोसा नरेंद्र मोदी में दिखाया।”
 
अदिति कहती हैं कि राजनीतिक विश्लेषक और एग्ज़िट पोल्स कहीं न कहीं बीजेपी (मोदी) के प्रभाव और वोटरों का मन टटोलने में असफल रहे।
 
बिहार की राजनीति पर करीब से नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र का भी कुछ ऐसा ही मानना है। वो कहते हैं, “बीजेपी ने बिहार में कैलकुलेटेड रिस्क लिया और वो सफल रही। बीजेपी चाहती थी कि वो नीतीश कुमार को पीछे करके सरकार बनाए और वो इसमें कामयाब रही।”
 
चुनावों पर नज़र रखने वाली वेबसाइट ‘द पोल टॉक’ के संपादक संतोष कुमार पांडेय कहते हैं कि पीएम मोदी की लोकप्रियता अब भी राज्यों में बीजेपी के लिए एक तय फ़ैक्टर की तरह काम करती है, जिसे कभी भी, कहीं भी और किसी भी संदर्भ में इस्तेमाल किया जा सकता है।
 
तेजस्वी यादव का उदय
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार स्मिता गुप्ता कहती हैं कि इस चुनाव में तेजस्वी यादव ने जिस तरह महागठबंधन का नेतृत्व सँभाला, उसे देखकर उनके लिए कई संभावनाएँ पैदा होती हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, “तेजस्वी यादव भले लालू यादव के बेटे हों लेकिन हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह चुनाव उन्होंने अपने दम पर लड़ा है। तेजस्वी इस चुनाव में बिना किसी बैसाखी के लड़े।”
 
स्मिता गुप्ता के मुताबिक़, “तेजस्वी ने यह चुनाव न सिर्फ़ अपने पिता लालू की बैसाखी के बिना लड़ा बल्कि अपने पिता की बनी-बनाई ‘सामाजिक न्याय’ की बैसाखी के बिना भी लड़ा। उन्होंने बेरोज़गारी के मुद्दे को पकड़ा और ‘आर्थिक न्याय’ की बात की।
 
“उनका 10 लाख नौकरियों का मुद्दा इतना प्रचारित हुआ कि विपक्षी पार्टियों को उसके जवाब में कुछ न कुछ बोलना ही पड़ा। नीतीश कुमार ने जहाँ 10 लाख नौकरियों के वादे को ‘बोगस’ बताया वहीं, बीजेपी ने कहा कि अगर तेजस्वी 10 लाख नौकरी देने की बात कर रहे हैं तो वो 19 लाख रोज़गार देगी।”
 
वेलफ़ेयर स्कीम/जनता के मुद्दों का दबदबा
ये हाल के दिनों में हुए उन चंद चुनावों में से एक था जिसमें रैलियों और सभाओं में जाति-धर्म जैसे मुद्दों से आगे बढ़कर ज़मीन से जुड़े मुद्दों की बात की गई। वरिष्ठ राजनीतिक संपादक अदिति फडणीस का ऐसा ही मानना है।
 
वो कहती हैं, “कुछेक नेताओं को छोड़ दें तो इस बार बिहार चुनाव की रैलियों में जाति-धर्म की बात कम ही सुनाई पड़ी। ज़्यादातर पार्टियों और नेताओं ने अपने अभियान में कोरोना (स्वास्थ्य), पलायन और रोज़गार को मुद्दा बनाया। यहाँ तक कि सामाजिक और जातीय न्याय के मुद्दे को उठाने वाली पार्टी आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने भी ‘आर्थिक न्याय’ की बात की।”
 
अदिति फडणीस का मानना है कि इस चुनाव में जेडीयू का प्रदर्शन भले खराब रहा हो लेकिन उसे जो भी सीटें मिलीं वो नीतीश कुमार के पिछले कामों की वजह से मिलीं।
 
वो कहती हैं, “बिहार में लोग नीतीश से नाराज़ ज़रूर हैं लेकिन अब भी उनके मन में नीतीश के लिए सॉफ़्ट कॉर्नर है। वो कहते हैं कि सड़कें नीतीश ने बनवाईं। लड़कियाँ कहती हैं कि साइकिलें नीतीश ने बँटवाईं। महिलाएँ कहती हैं कि चाहे जिस स्तर तक भी हो, शराबबंदी नीतीश ने ही लागू करवाई।”
 
अदिति कहती हैं कि इस बार अगर नीतीश की सीटें कम हुईं तो 15 वर्षों की सत्ताविरोधी लहर के अलावा नीतीश की ढिलाई है। वो कहती हैं, “नीतीश ने धीरे-धीरे अपनी ही वेलफ़ेयर स्कीम्स को लेकर गंभीरता बरतनी बंद कर दी थी और वो चलताऊ मोड में आ गए थे।”
 
वोटरों को भाँपना मुश्किल, ‘जाति’ को नकारना मुश्किल
ज़्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि तमाम मुद्दों के बावजूद जनता के मन की बात भाँपना मुश्किल है।
 
स्मिता गुप्ता के मुताबिक़, “हम टीवी पर होने वाली बहसों और सोशल मीडिया में जो देखते हैं, वही ज़मीन पर भी हो रहा हो, ऐसा ज़रूरी नहीं है।”
 
वो कहती हैं, “हमने लॉकडाउन के दौरान देखा कि कैसे हज़ारों-लाखों प्रवासी मज़दूर बेहद मुश्किल हालात में अपने गृहराज्यों को लौटने को मजबूर हुए। कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान बिहार के एक बड़े वर्ग में केंद्र और नीतीश सरकार को लेकर नाराज़गी थी लेकिन आख़िरकार बहुमत एनडीए को ही मिला।”
 
संतोष कुमार के मुताबिक़, “बिहार के नतीजे हमें ये भी बताते हैं कि किसी भी चुनाव में ‘साइलेंट वोटरों’ की भूमिका कितनी अहम होती है। विश्लेषकों की नज़र या तो महागठबंधन के वोटरों पर थी या फिर एनडीए के वोटरों पर लेकिन इसके बीच के ‘साइलेंट वोटरों’ पर ध्यान देने से वो चूक गए और इन्हीं साइलेंट वोटरों के सहारे एनडीए सत्ता तक पहुँची।”
 
वामदलों का ‘पुनर्जन्म’
 
बिहार चुनाव में वामदलों के प्रदर्शन ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। सोशल मीडिया में चुटकुले चलते थे कि भारत में वामपंथ अब सिर्फ़ केरल और जेएनयू में बचा है लेकिन बिहार के नतीजों ने बताया कि भारत में लेफ़्ट अभी ज़िंदा है।
 
अदिति फडणीस कहती हैं, “वाम दलों और आरजेडी के गठबंधन का फ़ायदा दोनों ही पार्टियों को मिला। हिंदी हार्टलैंड कहे जाने वाले उत्तर भारत में लेफ़्ट का उदय बिहार चुनाव से समझा जाने वाला एक महत्वपूर्ण विषय है।”
 
स्मिता गुप्ता का मानना है कि अगर आरजेडी ने कांग्रेस के बजाय ज़्यादा सीटें लेफ़्ट को दी होतीं तो शायद महागठबंधन को ज़्यादा फ़ायदा होता।
 
आम जनता का एक बड़ा वर्ग लेफ़्ट पार्टियों को कहीं न कहीं ‘देशद्रोही’ वाली छवि से जोड़कर देखता है। ऐसे में विशेषज्ञों उम्मीद जताते हैं कि बिहार चुनाव से वामपंथी दलों की छवि को कुछ फ़ायदा तो ज़रूर पहुँचेगा।

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