अगर आपको लगता है कि चंदा मामा, छुक छुक करती रेलगाड़ी और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार ही बच्चों की पत्रिकाओं का हिस्सा बन सकते हैं तो ऐसा नहीं है।
भोपाल शहर से प्रकाशित होने वाली मासिक बाल विज्ञान पत्रिका 'चकमक' के फरवरी अंक में छपे एक लेख में समलैंगिकता की बात ही नहीं, उसका एक तरह से समर्थन भी किया गया है।
चित्रकार भूपेन खक्कर के एक चित्र पर प्रकाशित आलेख में ये चर्चा की है।
10 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के संपादक का कहना है कि वे समझते हैं कि बच्चों को समाज के हर पहलू की जानकारी दी जानी चाहिए और समलैंगिकता भी उनमें से एक है।
'समाज का चेहरा दिखना चाहिए' 10 से 14 साल की आयु वर्ग के लिए छपने वाली इस पत्रिका में चित्रकार भूपेन खक्कर के एक चित्र का वर्णन किया गया है जिसमें दो युवा लड़कों के बीच के प्यार को परिभाषित किया गया है।
चित्र का शीर्षक है 'वे एक-दूसरे से इतना प्यार करते थे कि उन्होंने एक ही जैसा सूट पहना था।'
हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है, वहीं ब्रिटेन की संसद ने समलैंगिक विवाह के कानून को पास कर दिया है, लेकिन कानून के बाहर, लोगों के बीच सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया के कई हिस्सों में इस मुद्दे को लेकर बहस जारी है। ऐसे में कितना सही है एक बच्चों की पत्रिका में समलैंगिकता को दिखाना?
चकमक के संपादक सुशील शुक्ला कहते हैं, 'अब भारत में इस पर बात करना कानूनन जुर्म नहीं है। चकमक पहले भी बच्चों के साहित्य के मामले में ये समझता रहा है कि उन्हें जीवन के इर्द-गिर्द चीजों से अवगत कराना जरूरी है। अधकचरी जानकारी ज्यादा खतरनाक होती है। मुझे नहीं लगता कि इसमें ऐसा कोई मसला है जिस पर बच्चों से बातचीत नहीं की जा सकती।'
सुशील के मुताबिक उन्हें बस इतना ध्यान रखना पड़ता है कि बच्चों की भाषा में, सरलता से इस बात को कैसे समझाया जाए।
एक और जहां समलैंगिकता के समर्थन में कई लोग उतरे हैं। वहीं इसका विरोध भी किसी से छुपा नहीं है, ऐसे में इस लेख में समलैंगिकता को समझाया ही नहीं गया, उसकी एक तरह से पैरवी भी की गई है।
संपादक सुशील शुक्ला के अनुसार 'हम ऐसे कई मुद्दे जैसे जातिवाद या दलितों के साथ जो भेदभाव होते हैं, महिलाओं के साथ जो दुर्व्यवहार होता है उस पर बात कर चुके हैं इसलिए हमने इस पर भी बात की। हालांकि ऐसे मसलों पर मुश्किलें तो आती हैं जिन्हें टाला नहीं जा सकता।'
सुशील कहते हैं, 'फिर बच्चे हमारे साथ ही जीवन साझा कर रहे होते हैं, उन्हें कृत्रिम दुनिया में ले जाने से अच्छा है कि उन्हें समाज के अच्छे और बुरे दोनों चेहरे दिखाए जाएं, फिर वो दंगे हो, विस्थापन हो या फिर प्रेम।'
यह लेख शेफाली ने लिखा है। इसी पत्रिका में भूपेन खक्कर पर लिखे एक और लेख में संकेत दिए गए हैं कि वे समलैंगिकता पेंट करने के लिए ही चार्टर्ड एकाउंटेंट का पेशा छोड़कर पेंटर बने थे।