फिल्म इंडस्ट्री में इन दिनों कॉर्पोरेट नाम की लूट मची हुई है। दुनियाभर में मंदी के चलते निवेशक यहाँ फिल्मों में पैसा लगा रहे हैं, पर यहाँ मुंबई में एक से एक चालू बैठे हैं, जो कॉर्पोरेट का पैसा बेतहाशा खर्च कराते हैं, कमीशन बनाते हैं और ऐसी घटिया फिल्म बनवा देते हैं, कि सब गुड़-गोबर हो जाता है।
"चाँदनी चौक टू चाइना" वाले हादसे में वार्नर ब्रदर्स के पचास करोड़ डूबे हैं। जानकारों का कहना है कि ये फिल्म मुश्किल से पच्चीस-तीस करोड़ में बन सकती थी। पर वार्नर ब्रदर्स के देशी सलाहकारों ने फिल्म में अस्सी करोड़ फुँकवा दिए। अस्सी करोड़ में भी अगर ढंग-ढर्रे की फिल्म बन जाती तो बात धक जाती। फिल्म बनी एकदम कबाड़ा।
कॉर्पोरेट सेक्टर के लोग फिल्म इंडस्ट्री से एकदम अनजान हैं। अगर कोई आदमी अनजानी मंडी में नया धंधा करने पहुँचेगा, तो उसे ठगा ही जाएगा। फिल्म इंडस्ट्री भी इसका अपवाद नहीं है। मगर दिक्कत यह है कि इंडस्ट्री के मुँह में विदेशी पैसे का खून लग चुका है। अब कोई भी निर्माता खुद के पैसे से फिल्म बनाना नहीं चाहता। यह चिंता पिछले दिनों फिक्की की बैठक में व्यक्त की गई थी। फिक्की से जुड़ा मीडिया और एंटरटेनमेंट व्यवसाय का धड़ा इस बैठक में था और "चाँदनी चौक टू चाइना" का नाम भी उदाहरण के बतौर लिया गया।
इसी तरह की विदेशी कंपनी है इंडियन फिल्म कंपनी। कंपनी का नाम ज़रूर इंडियन है, पर कंपनी में ब्रिटेन के ही बड़े-बड़े लोगों का पैसा लगा है। ये कंपनी "स्टूडियो 18" के नाम से फिल्म वितरण का काम भी करती है। इस कंपनी के चेयरमैन श्याम बेनेगल हैं, पर व्यापार के मामले में वे कच्चे हैं।
इसी कंपनी ने "गजनी" को रिलीज किया। "गजनी" बहुत फायदे में रही मगर जब बैलेंसशीट पेश की गई तो उसमें घाटे का ही सौदा था। सारे शेयर होल्डर ने कहा भी कि फिल्म ने इतना मुनाफा कमाया और हमें घाटा दिखाया जा रहा है। मगर आँकड़ों में उन्हें उलझा दिया गया। नए पुण्य को पुराने पापों से बराबर कर के पापों की कमाई ज़्यादा दिखाई गई।
ज़ाहिर है कॉर्पोरेट का पैसा खर्च करने में पारदर्शिता को एकदम दूर रखा जाता है। विदेशी पैसे को हजम करने के लिए कई बकासुर बैठे हैं। विदेशी पैसे से बन रही तमाम फिल्में घटिया ही हैं। यह नुकसान ऊपर से तो विदेशी कंपनियों का नज़र आता है, पर गहरे में नुकसान बहुत लोगों को हो रहा है। सबसे बढ़कर फिल्म इंडस्ट्री को।