मेरी फिल्म छोरी अगर सिनेमा हॉल में रिलीज की जाए या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज की जाए तो मैं तो दोनों ही हालातों में कभी कोई टेंशन नहीं लेती। मुझे कोई प्रेशर नहीं होता क्योंकि मुझे समझ में नहीं आता है कि एक किसी की फिल्म कैसे हो सकती हो, टेंशन क्यों लेना है। अभी तक होता यह था कि हमेशा हीरो पर यह दारोमदार होता था और कहा जाता है कि यह मेरी फिल्म थी।
बॉक्स ऑफिस पर इतना किया या इतना कमाया, नहीं, ऐसा नहीं होता। सिर्फ वो ही अकेले ज़िम्मेदार क्यों हो, उस पर ही भर क्यों। फिल्म होती है तो सबकी होती है मेरी भी है, हीरो की भी है, निर्देशक की भी है लेखक की भी और एडिटर की भी है। मुझे कभी कोई प्रेशर हुआ ही नहीं। हां, यह बात जरूर है कि जब आपका चेहरा होता है किसी फिल्म में आप पर भी उतनी ही नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है। लेकिन इसी के लिए तो हम एक्टर बनते हैं ताकि कि हम उठे खड़े हो अपना बेहतर से बेहतरीन परफॉर्म करें और फिर उस फिल्म को दर्शकों के लिए लेकर आ जाए।
यह कहना है नुसरत भरुचा का जो की 'छोरी' के जरिए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एक डरावनी फिल्म के साथ लोगों के सामने आ रही हैं। नुसरत का कहना है कि डरावनी फिल्मों में अगर भारतीय फिल्मों का मैं नाम लेना चाहूं तो उसमें 'भूत' जिसमें उर्मिला मातोंडकर ने एक्ट किया था या फिर 'कौन' इन फिल्मों ने मुझे डराया है और सबसे ज्यादा डर मुझे रेवती जी की फिल्म 'रात' में लगा है।
अब आप सोचिए इतने सालों पहले हमने उस फिल्म में रेवती जी को देखा। उस फिल्म की वजह से मैं बहुत डरी और अब मैंने यह वाली फिल्म की। छोरी में डराने का काम कर रहे हैं और सच कहूं तो इस फिल्म में कहीं कोई बड़ी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल नहीं हुआ है। कम से कम शूटिंग के समय तो नहीं हुआ है।
हम लोग जहां शूट कर रहे थे, वह जगह थोड़ी सी अकेली थी। सेटअप इतना ज्यादा डरावना था कि अलग से कुछ भी क्रिएट करने की जरूरत नहीं पड़ रही थी। निर्देशक ने इस बात का बहुत ध्यान रखा कि मेरे चेहरे पर सही एक्सप्रेशन आए। जब भी मैं एक्टिंग करती थी आसपास का माहौल कुछ इस तरीके से हो जाता था कि मेरे चेहरे पर अपने आप वह भाव आ जाते थे। हां यह बात अलग है कि चीजों को और ज्यादा डरावना मनोरंजक और रोचक बनाने के लिए एडिट टेबल पर कुछ एक चीज घटाई या बढ़ाई गई होंगी।
नुसरत चुकी यह रोल थोड़ा सा सीरियस है तो क्या आप आगे भी ऐसी ही रोल करने वाली हैं और बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं करने वाली है?
नहीं। ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुझे तो बॉलीवुड की मसाला फिल्में पसंद है। मेरे अंदर से बॉलीवुड का वह प्यार वह तड़क-भड़क वह नाच गाना वह मस्ती कोई नहीं निकाल सकता। मैं आज भी वह सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल के आगे वाली सीट पर बैठ सकती हूं और बीच में आए गाने पर डांस भी कर सकती हूं। मेरे अंदर से वह कोई हटा नहीं सकता है। मैं हर तरह की फिल्म करूंगी।
नुसरत कैसा लगता है जब आपको कहा जाता है कि आप पुरुष प्रधान बिजनेस में काम करती हैं?
इस बारे में कुछ नहीं कह सकती कि यह इंडस्ट्री पुरुष प्रधान है या नहीं है या बची है या नहीं है। मैं आपको मैरीकॉम फिल्म का एक उदाहरण देना चाहती हूं जब मेरी कॉम फिल्म बन रही थी तब प्रियंका चोपड़ा ने कहा था कि मुझे बड़ी हैरानी होती और दुख होता है यह बात जानकर कि सब लोग मुझसे पूछते हैं कि यह महिला प्रधान फिल्म है। इसी जगह पोस्टर में अगर कोई लड़का मुक्केबाजी करता दिखता तो क्या अब तक भी करते कि ये पुरुष प्रधान फिल्म है।
मेरा भी सवाल वही है कि यह अलग-अलग क्यों करना है। यह एक भाषा है जिसे हम चाह कर भी भूल नहीं पा रहे हैं, भुला ही नहीं पा रहे हैं। हम उस से निकलना नहीं चाहते हैं। क्यों महिला और पुरुष प्रधान फिल्में अलग-अलग नाम देकर बनाना। और एक्ट्रेस से आप उनके काम का हक और उनके हक का नाम नहीं छिन सकते हैं। यह जरूर कहूंगी कि दीपिका या आलिया या अनुष्का इन सभी ने थोड़ा लीक से हटकर फिल्में की हैं। अनुष्का की एनएच 10 ले लो या आलिया की राजी ले लो यह कुछ अलग फिल्में थी। उसमें बहुत दमदार किरदार था महिलाओं का। जब उन्होंने वह फिल्में की है तो हम जैसे नए लोगों के लिए एक मजबूत रास्ता बन गया है कि हम उस रास्ते पर चले और कुछ इस तरीके की फिल्म करें, जहां पर हमारा रोल बड़ा ही अच्छे से लिखा गया हो और बड़े-बड़े ही दमदार तरीके से निभाने का मौका मिला।
आप इस फिल्म में एक गर्भवती महिला के रूप में नजर आई हों। कैसे तैयारी की थी क्योंकि आप तो एक लड़की हैं?
मैं तो उन सारी महिलाओं को प्रणाम करती हूं और उनकी तारीफ करती हूं पता नहीं कैसे वह इतना सब कुछ सहन करके भी मां बनती है और हंसती रहती है। मेरे लिए तो बहुत मुश्किल था। मैं प्रोस्थेटिक टमी लगाया करती थी और रिहर्सल करती थी, चलने की और बोलने की और सच मायने में हांफने लग जाती थी। पता नहीं, महिलाएं कैसे कर लेती हैं जो इतना समय गर्भवती बनकर गुजारती है और उससे भी मुश्किल होता है जब वो जन्म दे रही होती है कितने दर्द से गुजरती होंगी। कभी जिंदगी में आगे चलकर मैं मां बनी तो मैं तो डॉक्टर को सबसे पहले बोलने वाली हूं कि वाले मुझे दवाई देखकर बेहोश कर दे। जो करना है कर ले इतना दर्द मुझसे तो सहन नहीं होने वाला।
इसी के साथ आपसे एक बात साझा करना चाहती हूं। जब ऐसे गर्भवती स्त्रियों के बारे में पढ़ती हूं कि कैसे कन्या भ्रूण हत्या कर दी जाती है। बहुत दुख होता है और यह फिल्म करने के पीछे भी मेरी मंशा यही थी कि पहले मैं इस बात को गहराई से समझूं। फिल्म करूंगी तो शायद मुझ में वह सही भाव आ सकेंगे। उनके दर्द को मैं थोड़ा बहुत समझने की कोशिश करूंगी। आप जरा सोचिए लड़कियों को भ्रूण में ही मार डाला जाता है। फिर जब ये आंकड़े अलग-अलग जगहों मिला कर एक साथ होकर रिपोर्ट के तौर पर सामने आते हैं तब आप स्तब्ध रह जाते हैं।
मैं हिल जाती हूं अंदर तक जब भी सारी बातें देखती हूं। फिल्म करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि अब मैं चाहूं तो खुले स्वर में कह सकती हूं कि यह सब जो हो रहा है, गलत हो रहा है क्योंकि मैं उनके दर्द को थोड़ा-बहुत ही सही लेकिन समझने की कोशिश कर चुकी हूं।