अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन की छवि इतनी पसंद की गई कि इसके सहारे वे नंबर वन के सिंहासन तक जा पहुंचे। शोले, दीवार, काला पत्थर, त्रिशूल आदि कई फिल्मों में उनकी इस छवि को भुनाया गया है। ये लार्जर देन लाइफ फिल्में हैं जिसमें समाज और व्यवस्था से नाराज एक युवा कानून अपने हाथ में लेने में नहीं हिचकता और खुद फैसला लेने में यकीन करता है।
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'मिली' में भी अमिताभ एंग्री यंग मैन के रूप में दिखाई देते हैं, लेकिन यहां पर उनका किरदार उपरोक्त फिल्मों से अलग नजर आता है। वे रियल लाइफ के किरदार में हैं, लेकिन समाज से गुस्सा है।
इसका एक कारण है। लोग उनके माता-पिता को लेकर तरह-तरह की बातें करते हैं, इसलिए वह अपनी पहचान छिपाए शहर में अपने नौकर के साथ छुप कर रहता है।
फिल्म का नाम मिली है और इस नाम का किरदार जया बच्चन ने निभाया है। बहुत कम फिल्मों के नाम नायिका के नाम पर रखे जाते हैं और यदि अमिताभ बच्चन जैसा सुपरसितारा हो तो यह काम और भी मुश्किल हो जाता है।
यह ऋषिकेश मुखर्जी के ही बस की बात थी जिनके आगे सभी सितारों का स्टारडम चला जाता था और वे ऋषिदा के सामने महज कलाकार होते थे।
फिल्म का नाम मिली रखा ही इसलिए रखा गया है क्योंकि फिल्म में सबसे पॉवरफुल किरदार मिली का ही है। मिली एक चुलबुली लड़की है। युवा अवस्था में उसके कुछ सपने हैं।
मिली एक बिल्डिंग में रहती है और उसी बिल्डिंग में शेखर दयाल यानी कि अमिताभ का किरदार भी रहता है। मिली बच्चों में लोकप्रिय है। वे सभी शोरगुल मचाते हैं जिससे शेखर चिढ़ता है। वह मिली से भिड़ता है।
शेखर में कड़वाहट है तो मिली में जिंदादिली। मिली की जिंदगी के प्रति सकारात्मक सोच शेखर की कड़वाहट पर भारी पड़ती है और शेखर में कुछ परिवर्तन देखने को मिलते है। दोनों बिना बोले ही एक-दूसरे को प्रेम करने लगते हैं।
मिली को अपनी जिंदगी में तब अंधेरा नजर आता है जब उसे पता चलता है कि वह इस दुनिया में सिर्फ कुछ दिनों की मेहमान है। शेखर जब मिली का रिश्ता मिली के पिता से मांगते है तब उसे इस सच्चाई का पता चलता है।
वह फ्लेट छोड़ कर जाने का फैसला करता है, लेकिन मिली की एक सहेली उसे यह कह कर रोकती है कि ऐसे समय तो उसे मिली के साथ होना चाहिए। वह मिली की स्थिति जानते हुए भी उससे शादी कर लेता है।
बिमल दत्ता की इस कहानी में निराशा और उदासी है। शेखर दयाल का चिड़चिड़ापन, मिली की उदासी और मिली के पिता की बेबसी फिल्म में देखने को मिलती है। कहानी का खास ट्विस्ट अंत में आता है जब मिली से शेखर शादी करने का फैसला करता है।
ऋषिकेश मुखर्जी का शानदार निर्देशन फिल्म में देखने को मिलता है। मिली और शेखर, दो विपरीत किरदारों को उन्होंने शानदार तरीके से पेश किया है। उनकी टकराहट, दोस्ती में और दोस्ती प्यार में बदलते हुए दर्शक महसूस करते हैं।
फिल्म 1975 की है जब मुंबई में बिल्डिंग कल्चर की शुरुआत हुई थी। बिल्डिंग और फ्लैट में रहने वालों का आपसी प्रेम और ईर्ष्या की झलक भी विभिन्न किरदारों के जरिये देखने को मिलती है।
फिल्म में उदासी और निराशा को ऋषि दा ने लाइट्स और शेड्स के जरिये बढ़िया तरीके से दिखाया है। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं, जिसमें जहां किरदार खड़ा है उस कमरे में लाइट कम है। दूसरे कमरे में रोशनी ज्यादा है और वहां से आती लाइट और उससे किरदार की लंबी परछाई फिल्म में उदासी का माहौल बनाती है और दर्शक इससे किरदारों के मन में चल रही हलचल को ज्यादा बेहतर तरीके से महसूस करते हैं।
सचिन देव बर्मन की बतौर संगीतकार यह आखिरी फिल्म है और उन्होंने जाते-जाते भी कमाल का माधुर्य रचा। उनकी तबियत बहुत खराब थी और उन्होंने बेटे राहुल देव बर्मन की मदद से संगीत दिया।
सचिन देव द्वारा कम्पोज़ किया गया आखिरी गाना 'बड़ी सूनी सूनी है' कमाल का गीत है। इस गीत में गायक किशोर कुमार ने अपनी आवाज के जरिये जो दर्द पेश किया है वो अद्भुत है।
इसी तरह 'आए तुम याद मुझे' भी किशोर और एसडी का यादगार गीत है। 'मैंने कहा फूलों से' भी बहुत लोकप्रिय हुआ। इन तीनों गीतों को योगेश ने लिखा और किरदार के भावों को उन्होंने बेहतरीन शब्द दिए।
लीड रोल में जया बच्चन पूरी फिल्म में दबदबा बनाती नजर आईं। जिंदगी के प्रति उनका सकारात्मक रवैया और चहचहाना फिल्म के शुरुआती हिस्से में नजर आता है। बीमारी का दर्द उन्होंने अपने भावों से फिल्म के दूसरे हिस्से में दिखाया है।
अमिताभ बच्चन 'आग के गोले' की तरह लगे। उनका सुलगना दर्शक महसूस करते हैं। मिली के भले पिता की भूमिका अशोक कुमार ही निभा सकते थे। मिली के प्रति उनका प्यार और छटपटाहट उनके अभिनय से व्यक्त होती है। शुभा खोटे, अरुणा ईरानी, उषा किरण और सुरेश चटवाल भी अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं।
फिल्म मिली दर्शाती है कि प्यार सच्चा हो तो वो किसी भी 'बाधा' को नहीं देखता।