हिंदी फिल्म 'शेफ' 2014 में इसी नाम से बनी अमेरिकन मूवी का ऑफिशियल रीमेक है। इस अमेरिकन फिल्म का पूरी तरह से भारतीयकरण कर दिया गया है। यह एक ऐसे शख्स की कहानी है जिसे जिंदगी दूसरा मौका देती है ताकि अतीत में हुई गलतियों को वह सुधार सके और इस यात्रा में वह अपने आपको को खोज भी सके।
रोशन कालरा (सैफ अली खान) न्यूयॉर्क में शेफ है। वह तलाकशुदा है। पूर्व पत्नी राधा (पद्मप्रिया जानकीरमन) और बेटा अरमान (स्वर काम्बले) भारत में कोचीन में रहते हैं। नौकरी से हाथ धोने के बाद रोशन कुछ दिन गुजारने के लिए अपनी पूर्व पत्नी और बेटे के पास लौटता है। वह हताश है। संपूर्णता की खोज में है।
राधा से तलाक होने के बावजूद दोनों के संबंध दोस्ताना है। अपनी भारत यात्रा के दौरान रोशन अपने बेटे अरमान के नजदीक आता है और पिता-पुत्र के इस रिश्ते की अहमियत उसे पता चलती है। पत्नी की मदद से वह एक बस में 'रास्ता कैफे' खोलता है। भारत की इस यात्रा के दौरान उसे महसूस होता है कि वह 'काम से प्यार' या 'प्यार से काम' में 'प्यार' को खो बैठा था।
रितेश शाह, राजा कृष्ण मेनन और सुरेश नायर ने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है और लेखकों ने भारत के रंग-ढंग में कहानी को अच्छे से ढाला है। रोशन की महत्वकांक्षा, असफल पति और पिता, अपने अधूरेपन को खोजना वाली बातें उन्होंने अच्छे से दर्शाई है। फिल्म को मूड हल्का-फुल्का और आशावादी रखा है।
फिल्म का पहला हाफ बेहतरीन है। खासतौर पर रोशन और उसके बेटे अरमान की जुगलबंदी बहुत अच्छी लगती है। फिल्म में पिता-पुत्र के बीच के कई अच्छे दृश्य देखने को मिलते हैं। रोशन और राधा के तलाक के बाद के रिश्ते को भी अच्छी तरह उभारा है। इन रिश्तों को बढ़िया संवादों का सहारा मिला है।
फिल्म में तब मजा बढ़ता है जब राधा यूरोप के लिए जाती है और रोशन-अरमान अमृतसर और दिल्ली घूमने जाते हैं। यहां पर रोशन अपने अतीत से अरमान का परिचय कराता है, जब वे एक पुरानी बस को एक चलते-फिरते रेस्तरां का लुक देते हैं। इस दौरान रोशन को समझ में आता है कि एक पिता के रूप में उसने क्या खोया है और अरमान को महसूस होता है कि एक पिता का जिंदगी में क्या महत्व है। यह फिल्म का सबसे उम्दा हिस्सा है।
दिक्कत दूसरे हाफ में और फिल्म की गति से है। रोशन का कोचिन से दिल्ली का सफर अत्यंत धीमा और उबाऊ बन जाता है। यहां पर फिल्म अपनी धार खो देती है और दर्शक महसूस करने लगते हैं कि फिल्म को लंबा खींचा जा रहा है। इस दौरान चंदन राय सान्याल (रोशन का सहायक) और दिनेश पी नायर (बस ड्राइवर) के किरदार को जोड़ा गया है, लेकिन इससे भी फिल्म रफ्तार नहीं पकड़ पाती।
अंत भला तो सब भला की तर्ज पर फिल्म का द एंड किया गया है और कुछ नया नहीं सोचा गया है। इस तरह का अंत हम सैकड़ों फिल्म में देख चुके हैं। यहां पर कुछ नया किया जा सकता था।
निर्देशक के रूप में राजा कृष्ण मेनन का काम ठीक-ठाक कहा जा सकता है। वे फिल्म की 'स्मूथनेस' को कायम नहीं रख पाए। फिल्म का नायक शेफ है इसलिए उन्होंने कई व्यंजनों को दिखाकर दर्शकों की भूख को तो बढ़ाया है, लेकिन इन्हें बनाने में जो कलाकारी लगती है वो परदे पर नहीं झलकती। पिता-पुत्र के रिश्ते को उन्होंने अच्छे से दर्शाया है, लेकिन राधा और रोशन के बीच अलगाव की वजह को वे ठीक से नहीं दर्शा पाए। राधा और रोशन दोनों बेहद समझदार इंसान दिखाए गए हैं और एक छोटी-सी वजह से उन्होंने तलाक ले लिया, यकीन करना मुश्किल है।
अभिनय की दृष्टि से 'शेफ' सैफ के करियर की बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जाएगी। उन्होंने अपने किरदार को मजबूती सेपकड़ कर रखा और कहीं भी छूटने नहीं दिया। अभिनेता के रूप में वे परिपक्व लगे। अपने बेटे के प्रति लगाव को उन्होंने अच्छे से दर्शाया।
पद्मप्रिया जानकीरमन जब-जब स्क्रीन पर आती हैं अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराती हैं। उन्हें कम फुटेज दिए गए हैं और यह कमी खलती है। अरमान के रूप में स्वर काम्बले ने बड़े कलाकारों को अच्छी टक्कर दी है। चंदन राय सान्याल, दिनेश पी. नायर और मिलिंद सोमण का अभिनय स्तरीय है।
फिल्म का संगीत अच्छा है। दरमियां और बंजारा सुनने लायक हैं। सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय नहीं है। कई जगह लगता है कि दर्शक कुछ और देखना चाहते हैं और दिखाया कुछ और जा रहा है।
कुल मिलाकर 'शेफ' की इस 'डिश' में थोड़ी कसर बाकी रह गई।
निर्माता : विक्रम मल्होत्रा, भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, राजा कृष्ण मेनन
निर्देशक : राजा कृष्ण मेनन
संगीत : रघु दीक्षित, अमाल मलिक
कलाकार : सैफ अली खान, पद्मप्रिया जानकीरमन, स्वर काम्बले, चंदन राय सान्याल, दिनेश पी. नायर, मिलिंद सोमण