कई लोग लड़कियों को सिगरेट या शराब पीते हुए देख चौंक जाते हैं और कहते हैं कि यह लड़की होकर शराब पी रही है। निश्चित रूप से यह बुरी लत है, लेकिन लड़कों को यह सब करते देख किसी को हैरानी नहीं होती।
दरअसल सारी नैतिकता और आदर्श की बातें स्त्रियों पर ही थोपी जाती है और उनकी सोच, इच्छा और आत्मसम्मान को पुरुष लगातार कुचलता रहता है। स्त्रियों को आजादी देने से पुरुष घबराते हैं इसलिए आदर्श और परम्परा की जंजीरों में स्त्रियों को जकड़ा हुआ है।
ये सारी बातें अलंकृता श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित फिल्म 'लिपस्टिक इन माय बुरखा' में उभर कर आती है। चार स्त्रियां फिल्म की प्रमुख पात्र हैं जो अलग-अलग उम्र और वर्ग की हैं, लेकिन चारों की हालत समान है। किसी को नौकरी पहनने की अनुमति नहीं, तो किसी को करियर बनाने की। तो कोई अपनी पसंद का लड़का भी नहीं चुन सकती। इन्हें घुट-घुट कर जीना पड़ता है।
शिरीन असलम (कोंकणा सेन शर्मा) शादीशुदा है, लेकिन उसका पति सिर्फ उसे सेक्स मशीन मानता है। घर का खर्च वो चोरी-छिपे नौकरी कर चलाती है क्योंकि नौकरी की उसे इजाजत नहीं है। उसका पति का दूसरी महिला से अफेयर चल रहा है।
बुआजी (रत्ना पाठक शाह) विधवा है। उम्र हो चली है इसलिए जमाना मानता है कि उन्हें पूजा-पाठ में ही व्यस्त रहना चाहिए। बुआजी धार्मिक किताबों के बीच रोमांटिक कहानियों की किताब रख कर पड़ती है और उम्र में अपने से आधे स्विमिंग कोच जसपाल (जगत सिंह सोलंकी) की तरफ आकर्षित हो जाती है। वह जसपाल को पहचान बताए बिना फोन लगाती है और फोन सेक्स उनके बीच होता है।
लीला (आहना कुमरा) की शादी मनोज से तय हुई है जिसे वह पसंद नहीं करती। वह फोटोग्राफर अर्शद (विक्रांत मेस्सी) को चाहती है और सगाई के बाद भी दोनों में सेक्स जारी रहता है।
रेहाना अबिदी (प्लाबिता बोरठाकुर) पॉप स्टार बनना चाहती है। जींस पहनना चाहती है, पब जाकर स्मोकिंग और ड्रिंकिंग करना चाहती है, लेकिन उसे बुरखा पहन कर कॉलेज जाना पड़ता है और अपने पिता की दुकान में काम करना पड़ता है।
इन चारों महिलाओं के जीवन पर पुरुष और समाज की पाबंदियां हैं। इनके परिवार 'क्या कहेंगे लोग' से ग्रसित हैं। वे अपनों की बजाय बेगानों की चिंता ज्यादा करते हैं। वे इन लड़कियों से अपनी इज्जत को जोड़ते हैं और इसी वजह से उन्होंने इन्हें जकड़ रखा है। इन स्त्रियों की झटपटाहट, बगावती तेवर, इच्छाओं के दमन को यह फिल्म बोल्ड तरीके से दिखाती है।
निर्देशक को अपनी बात को त्रीवता प्रदान करने के लिए इन बोल्ड दृश्यों की जरूरत महसूस हुई हो, लेकिन इनसे बचा जा सकता था।
चारों महिलाओं की कहानी में से रेहाना और शिरीन की कहानी अपील करती है। ये शोषित नजर आती हैं। दूसरी ओर लीला की कहानी से दिखाया गया है कि उसके आक्रामक तेवर से पुरुष घबराते हैं। बुआजी की कहानी ज्यादा अपील नहीं करती।
निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव ने कहानी को कहने के लिए भोपाल शहर चुना है, जहां दकियानूसी अभी भी पैर पसारे हुए है और आधुनिकता की आहट भी सुनाई देने लगी है। कलाकारों से उन्होंने अच्छा काम लिया है। फिल्म के अंत दर्शाता है कि अभी भी महिलाओं को आजादी पाने में लंबा समय लगेगा।
फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। कोंकणा सेन शर्मा और आहना कुमरा का अभिनय इन सबमें बेहतरीन है। कोंकणा के हाव-भाव देखने लायक है वहीं आहना कैमरे के सामने बिंदास दिखाई दी है।
लिपस्टिक इन माय बुरखा परफेक्ट फिल्म नहीं है, लेकिन जो बात यह फिल्म कहना चाहती है वो उभर कर सामने आती है।