मई 1998 में भारत ने राजस्थान स्थित पोखरण में परमाणु परीक्षण कर विश्व में अपने शक्तिशाली होने का संदेश दिया था और इससे हर भारतीय का सीना चौड़ा हो गया था। मात अमेरिका को भी दी थी जिसके सैटेलाइट इस घटना को अपने कैमरे में कैद नहीं कर पाए और भारतीयों ने सीआईए की आंखों में धूल झोंक दी।
उस समय यह परीक्षण जरूरी हो गया था क्योंकि रूस के विघटन के कारण भारत को कमजोर समझा जा रहा था। इस ऐतिहासिक घटना को इंजीनियर्स, सेना के अधिकारियों और वैज्ञानिकों ने खुफिया तरीके से अंजाम दिया था। फिल्म 'परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरण' में इसी घटना को दर्शाया गया है कि किस तरह से तमाम विपत्तियों से लड़ते हुए इन भारतीयों ने अपने मिशन में सफलता पाई।
'परमाणु' एक सत्य घटना पर आधारित है जिसमें कुछ काल्पनिक पात्र डाल कर इसे दिखाया गया है। आईआईटी से शिक्षा प्राप्त आईएएस ऑफिसर अश्वत रैना (जॉन अब्राहम) पीएमओ में काम करता है और 1995 में वह न्यूक्लियर टेस्ट की बात करता है तो उसकी हंसी उड़ाई जाती है। बाद में उसकी बात मान कर परीक्षण की तैयारियां की जाती है तो अमेरिकी सैटेलाइट इस बात को पकड़ लेते हैं। उसे नौकरी से हटा दिया जाता है।
1998 में पीएमओ का एक बड़ा ऑफिसर हिमांशु शुक्ला (बोमन ईरानी) उसे फिर इस मिशन के लिए तैयार करता है। वैज्ञानिक, सेना अधिकारी और विशेषज्ञों की एक टीम अश्वत तैयार करता है और इस मिशन को सफलतापूर्वक पूरा करता है। 24 घंटे में दो बार अमेरिकी सैटेलाइट की नजर पोखरण से हट जाती थी जिसे ब्लैंक स्पॉट कहा गया है। ब्लैंक स्पॉट के कुछ घंटों में ये सब अपना काम करते थे, जिससे ये सैटेलाइट उन्हें पकड़ नहीं पाए। अमेरिकियों को ध्यान भटकाने के लिए भारत ने कश्मीर में सैन्य हलचल भी बढ़ा दी थी ताकि ध्यान उधर चला जाए और यह नीति काम कर गई।
फिल्म को अभिषेक शर्मा, संयुक्ता चावला शेख और एस. क्वाड्रस ने मिलकर लिखा है। लेखकों के सामने यह चुनौती थी कि फिल्म को डॉक्यूमेंट्री बनने से बचाना था। इसलिए उन्होंने काल्पनिक किरदार जोड़े। अश्वत की पारिवारिक जिंदगी में हो रही उथल-पुथल को जोड़ा। अफसोस की बात यह है कि ये सब बातें मूल ऐतिहासिक घटना पर पैबंद जैसी लगती है। इनमें से ज्यादातार सीक्वेंसेस का कोई मतलब नहीं निकलता।
टीम बनाना और फिर मिशन पूरा करना ये बात हाल ही की कई फिल्मों में नजर आई है और यहां पर लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए और जब-जब इस तरह का प्रसंग फिल्म में दिखाया जाता है तो फिल्म रूटीन लगने लगती है।
फिल्म में एक बात अखरती है जब टीम का एक सदस्य पोखरण की गर्मी या काम को लेकर शिकायत करता है। इस तरह के सीन फिल्म देखते समय मुंह का स्वाद खराब करते हैं क्योंकि देश के लिए काम कर रहे लोगों के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती। इस तरह के दृश्यों से बचा जाना चाहिए था।
इंटरवल के बाद फिल्म जरूर रफ्तार पकड़ती है जब पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस पोखरण में रह कर इस बात को पकड़ लेते हैं कि भारत परमाणु परीक्षण करने जा रहा है। यहां पर थ्रिल पैदा होता है। क्लाइमैक्स अच्छे से लिखा गया है और दर्शक सिनेमाहॉल छोड़ते समय अच्छी फिलिंग लेकर निकलते हैं और लेखक यहां पर कामयाब हुए हैं।
निर्देशक अभिषेक शर्मा ने फिल्म बनाने के लिए एक बेहतरीन विषय चुना है, जिसमें सच्ची घटना और देशप्रेम शामिल है। आधे से ज्यादा लोग तो केवल इसीलिए फिल्म पसंद करेंगे क्योंकि यह पोखरण परमाणु परीक्षण कर आधारित है। अभिषेक इस घटना के बहुत ज्यादा अंदर नहीं गए। उनका मुख्य उद्देश्य इस बात पर था कि किस तरह से यह सब किया गया, हालांकि यहां भी बहुत ज्यादा डिटेलिंग नहीं है, कमियों के बावजूद वे पोखरण परमाणु परीक्षण वाली घटना को इस तरह से पेश करने में सफल हो गए कि यह दर्शकों के दिल को छू जाए।
जॉन अब्राहम अब उसी तरह की फिल्म चुनते हैं जिसमें वे कम्फर्टेबल हों। उनके चेहरे पर बहुत ज्यादा भाव नहीं आते हैं और अश्वत रैना की भूमिका निभाने के लिए बहुत ज्यादा एक्सप्रेशन्स की जरूरत नहीं थी, इसलिए वे इस रोल को निभा ले गए। डायना पैंटी को सिर्फ इसलिए लिया गया क्योंकि निर्देशक को लगा कि फिल्म के लिए हीरोइन का होना जरूरी है। वे जॉन की टीम का हिस्सा बनी हैं। बोमन ईरानी का अभिनय बेहतरीन है। जॉन की पत्नी के रूप में अनुजा साठे का इमोशनल दृश्यों में अभिनय देखने लायक है। आदित्य हितकारी, योगेन्द्र टिक्कू, विकास कुमार और अजय शंकर ने सपोर्टिंग कास्ट के रूप में अच्छा अभिनय किया है।
कुल मिला कर फिल्म 'परमाणु- द स्टोरी ऑफ पोखरण' का सब्जेक्ट इतना मजबूत है कि कमियां छिप जाती हैं और फिल्म एक बार देखने लायक बन जाती है।