साहो : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
यदि ज्यादा पैसा लगाने से ही फिल्म बेहतर बन जाती तो लोग हजार करोड़ की फिल्म बना डालते, लेकिन यह फॉर्मूला बिलकुल सही नहीं है। यह बात 350 करोड़ की लागत से तैयार ‍'साहो' देखने के बाद फिर साबित होती है। 
 
साहो 174 मिनट की फिल्म है। तकरीबन हर मिनट पर दो करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए हैं, लेकिन फिल्म में साढ़े तीन मिनट भी ऐसे नहीं हैं जो दर्शकों को मनोरंजन दे सके। 
 
फिल्म में एक्शन और स्टंट्स पर अनाप-शनाप खर्च किया गया, लेकिन ढंग की कहानी ढूंढने के लिए मेहनत नहीं की गई। बिना कहानी के आप कितनी देर तक एक्शन देख सकते हैं। भला चटनी से पेट भरता है क्या? 
 
पहली फ्रेम से ही साहो दर्शकों से कनेक्ट नहीं कर पाती। कहानी के सूत्र समझ ही नहीं आते। इसके बाद तो बात हाथ से निकल जाती है। दर्शक कुछ समझने का प्रयास भी छोड़ देता है और स्क्रीन पर जो उटपटांग चीजें होती रहती हैं उसे ही देखता रहता है। 


 
माना कि 'साहो' एक कमर्शियल फिल्म है, लेकिन न फिल्म का एक्शन रोचक है और न रोमांस दिल को छूता है। दो हजार करोड़ रुपये की चोरी जैसी बड़ी-बड़ी बातें हैं, लेकिन इसमें बिलकुल रोमांच नहीं है। साहो तो मसाला फिल्म के शौकीनों की अपेक्षा पर भी खरी नहीं उतर पाती। 
 
निर्देशक सुजीत का सारा फोकस फिल्म को स्टाइलिश बनाने में रहा। स्क्रीनप्ले जैसी बात पर तो उन्होंने गौर ही नहीं किया। वे दर्शकों को चौंकाने में उलझे रहे, लेकिन इन लटकों-झटकों से अच्छी फिल्म बनती है क्या? 
 
अब ऊंची बिल्डिंग, हेलीकॉप्टर, कार/बाइक चेजि़ंग सीन के बल पर ही दर्शकों को बहलाया नहीं जा सकता। बिना कहानी के ये सब बातें फिजूल हैं।  
 
सुजीत तो पैसा फूंकने में लगे रहे। उनसे पैसे खर्च होते नहीं बन रहे थे तो एक सीन में उन्होंने दो कारों पर टैंक चढ़वाकर कारों को चकनाचूर करवा दिया जबकि पांच सेकंड के इस सीन का फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। 


 
पैसा खर्च करना भी एक कला होती है जो सुजीत में तो बिलकुल भी नहीं है। आश्चर्य तो उन लोगों पर है जिन्होंने सुजीत को इतना भारी-भरकम बजट दिया। वैसे फिल्म देख कर यह नहीं लगता कि इतना ज्यादा पैसा इस पर खर्च किया गया है। 
 
कहानी में इतने सारे अगर-मगर हैं कि आप गिनती भूल जाएंगे। श्रद्धा कपूर को गोली लगती है, लेकिन अगले ही सीन में वे भली-चंगी नजर आती हैं। ऐसी कई खामियां देखने को मिलती हैं। 
 
फिल्म देखते समय कन्टीन्यूटी कहीं नजर नहीं आती। कोई सा भी सीन कहीं से भी टपक पड़ता है। ऐसा लगता है कि सीन शूट कर लिए गए लेकिन उनको पिरोने वाली कहानी नहीं मिली इसलिए किसी तरह इन्हें जमाकर पेश कर दिया गया। फिल्म एडिटर को तो अपने काम में पसीने छूट गए होंगे। 
 
फिल्म के एक्शन दृश्यों का बहुत हो-हल्ला था। करोड़ों रुपये इन पर फूंक डाले, लेकिन इन स्टंट्स में कोई दम नजर नहीं आता। 
 
फिल्म में एक 'ब्लैक बॉक्स' की बड़ी चर्चा रहती है और सारे किरदार उसके पीछे पड़े रहते हैं, लेकिन इस ब्लैक बॉक्स के जरिये कौन क्या हासिल करना चाहता है समझ से परे है। 
 
सुजीत का प्रस्तुतिकरण पूरी तरह से कन्फ्यूजि़ंग है और जब फिल्म से जुड़े लोगों को ही कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा हो तो दर्शक से इस तरह की उम्मीद करना बेमानी है। 
 
हर किरदार को जैसा चाहा तब वैसा पेश कर दिया गया। पुलिस वाला अचानक चोर बन जाता है और चोर पुलिस-पुलिस खेलने लगता है। चंकी पांडे बीच में आकर बक-बक करने लगते हैं? क्यों करते हैं, ये तो खुद चंकी भी नहीं जानते होंगे। 
 
महेश मांजरेकर को निश्चित रूप से समझ नहीं आया होगा कि वे फिल्म में क्या कर रहे हैं? मंदिरा बेदी क्यों गोली चलाकर लोगों को मार रही हैं, इसका कारण शायद ही उन्हें पता हो।
 
यदि आपको झपकी आ गई तो पता ही नहीं चलेगा कि जैकलीन फर्नांडिस भी एक गाने में दिखाई देती हैं। नील नितिन मुकेश, टीनू आनंद, ईवलिन शर्मा असरहीन रहे। वेनेल्ला किशोर ही थोड़ा प्रभावित करते हैं। 
 
श्रद्धा कपूर क्यों प्रभास से इश्क फरमाने लगती हैं, ये सवाल शायद ही उन्होंने पूछा हो। बाहुबली के बाद प्रभास को 'साहो' में देखना आसमान से जमीन पर गिरने के समान है। वे अपनी एक्टिंग से बिलकुल भी प्रभावित नहीं करते। ऊपर से उन्होंने हिंदी संवाद इस तरह बोले हैं कि 'करेला वो भी नीम चढ़ा' वाली कहावत याद आ गई। 
 
गानों की बात करना फिजूल है। बैकग्राउंड म्युजिक कुछ हद तक दम मारता है। 174 मिनट की यह फिल्म झेलना बहुत मुश्किल काम है। 
 
350 करोड़ रुपये में केवल एक सबक सीखने को मिलता है कि फिल्म ऐसी नहीं बनाई जानी चाहिए। 
 
निर्माता : वाम्सी-प्रमोद
निर्देशक : सुजीत
कलाकार : प्रभास, श्रद्धा कपूर, जैकी श्रॉफ, नील नितिन मुकेश, एवलिन शर्मा, मंदिरा बेदी, चंकी पांडे, महेश मांजरेकर, टीनू आनंद, वेनेल्ला किशोर, मुरली शर्मा, जैकलीन फर्नांडीस
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 54 मिनट 30 सेकंड
रेटिंग : 1/5 

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