शेरशाह मूवी रिव्यू : विक्रम बत्रा की कहानी, फिल्म की कमजोरियों पर भारी

समय ताम्रकर
गुरुवार, 12 अगस्त 2021 (16:50 IST)
कैप्टन विक्रम बत्रा ने कम उम्र में जो बड़ा काम किया है उससे हर भारतीय प्रेरित होता रहेगा। 1999 में हुए कारगिल युद्ध में इस युवा ने जान की बाजी लगाकर दुश्मनों को खदेड़ दिया था और भारत को विजयी बनाने में अहम योगदान दिया था। इतने बड़े शख्स पर यदि आप फिल्म बना रहे हैं तो बहुत सावधानी की जरूरत है वरना उस शख्स या घटना के साथ अन्याय होता है। पहले भी देखा जा चुका है जब कुछ बायोपिक औंधे मुंह गिरी थी। करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन यदि बायोपिक बना रहा है तो संदेह होने लगता है क्योंकि यह बैनर कमर्शियल फॉर्मेट में फिल्म बनाने के लिए जाना जाता है। 
 
'शेरशाह' टिपिकल बॉलीवुड फॉर्मूलों से पूरी तरह आजाद नहीं है और यही बात फिल्म देखते समय थोड़ी खटकती है। खासतौर पर विक्रम का जो रोमांस दर्शाया गया है वो पूरी तरह फिल्मी और गानों से युक्त है। चूंकि फिल्म शुरू होने के पहले ही इसके मेकर्स ने बताया है कि यह फिल्म विक्रम बत्रा की जीवन की घटनाओं से प्रेरित है। सिनेमा के नाम पर कुछ छूट भी ली गई है। इसलिए कई ऐसे सीन नजर आते हैं जो काल्पनिक लगते हैं क्योंकि इनमें 'नकलीपन' नजर आता है। 
 
विक्रम बत्रा के भाई यह कहानी सुनाते हैं जो विक्रम के बचपन से शुरू होती है। विक्रम बचपन से ही लड़ाकू प्रवृत्ति के थे। क्रिकेट की बॉल एक लड़का नहीं देता तो विक्रम कहते हैं- मेरी चीज़ मेरे से कोई नहीं छीन सकता। यह सीन अत्यंत ही सतही है। विक्रम की इस जिद्दी प्रवृत्ति को दिखाने के लिए और बेहतर तरीके से लिखा और फिल्माया जा सकता था। 
 
कॉलेज में डिम्पल को विक्रम दिल दे बैठता है। डिम्पल सरदारनी है इसलिए उसके पिता विक्रम के साथ शादी की अनुमति नहीं देते, लेकिन दोनों का मिलना जारी रहता है। भारतीय सेना में जाने का सपना विक्रम पूरा करता है और जल्दी ही अपने निडर स्वभाव और जोखिम लेने की प्रवृत्ति के कारण अपने सीनियर ऑफिसर्स की आंखों का तारा हो जाता है। 
 
विक्रम को बहादुर और निडर दिखाने के लिए लेखक और निर्देशक ने खासे फुटेज खर्च किए हैं और यह प्रयास नजर आते हैं। फिल्म में जब जान आती है जब कश्मीर में विक्रम अपने नेतृत्व में एक बड़े आतंकी को मार गिराता है जिसकी गूंज पाकिस्तान में भी सुनाई देती है। यह मिशन दर्शकों पर पकड़ बनाता है। 
 
फिर छिड़ता है कारगिल युद्ध और देखने को मिलती है विक्रम बत्रा की जांबाजी। यह शख्स बिलकुल भी नहीं डरता था और पाकिस्तानियों को ललकारता भी था। पाइंट 4875 पर लड़ाई छिड़ती है और पाकिस्तानी भारी पड़ने लगते हैं तब विक्रम सामने आकर उन्हें मार भगाता है, लेकिन सीने पर गोलियां भी खाता है। कारगिल वॉर वाला सीन अच्छे से फिल्माया गया है और फिल्म के अंतिम 25 मिनट जोरदार है। देशभक्ति की तीव्र लहर बहती है जो आपको इमोशनल कर देती है। सेना और सैनिकों के प्रति सम्मान बढ़ जाता है।
 
लेखक ने विक्रम बत्रा पर ज्यादा फोकस किया है। कारगिल युद्ध के बारे में ज्यादा जानकारियां नहीं दी है। उतना ही बताया है जितना कि ज्यादातर दर्शकों को पता है। यदि बात थोड़ी गहराई के साथ की जाती तो फिल्म का स्तर ऊंचा उठ जाता। जोरदार संवादों की कमी भी खलती है। हालांकि इस बात की तारीफ की जा सकती है कि देशभक्ति के मेलोड्रामा से फिल्म को बचाया गया है।  
 
दक्षिण भारतीय फिल्मों के निर्देशक विष्णु वर्धन ने 'शेरशाह' के साथ हिंदी फिल्मों में कदम रखा है। उन्होंने कहानी कहने का सीधा तरीका नहीं अपनाया। फ्लैशबैक में फ्लैशबैक रखा है। वाइसओवर है, कभी आखिरी वाले सीन पहले हैं। इससे दर्शक बंधे रहते हैं वॉर सीन उन्होंने अच्छे से फिल्माए हैं। 
 
यह सवाल फिल्म के रिलीज होने के पहले वायरल हो गया था कि क्या कैप्टन विक्रम बत्रा की भूमिका के लिए सिद्धार्थ मल्होत्रा सही पसंद हैं? क्योंकि सिद्धार्थ का व्यक्तित्व आकर्षक है, लेकिन बतौर अभिनेता वे खास छाप अब तक नहीं छोड़ पाए हैं। सिद्धार्थ अपने चार्म के जरिये 'शेरशाह' देखते समय दर्शकों के दिल में जगह बना लेते हैं, लेकिन अभिनेता के रूप में उनके प्रयास नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि वे किरदार में घुसने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। 
 
डिम्पल के रोल में किआरा आडवाणी का सिलेक्शन सही है। वे खूबसूरत लगी हैं और उन्होंने अभिनय भी अच्छा किया है। सपोर्टिंग कास्ट का सपोर्ट अच्छा है। सिनेमाटोग्राफी और एडिटिंग के मामले में फिल्म का स्तर ऊंचा है। 
 
विक्रम बत्रा की कहानी को और अच्छे तरीके से दर्शाया जा सकता था। शेरशाह इसलिए पसंद आ सकती है क्योंकि विक्रम की कहानी बहुत पॉवरफुल है, जिसके तले फिल्म की कमजोरियां छिप जाती हैं। 
 

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