राजनीति में सभी रंग देखने को मिलते हैं। षड्यंत्र, हत्या, दोस्ती-दुश्मनी, मौकापरस्ती, आपसी रिश्ते, सत्ता का नशा जैसी कई बातें इसमें शामिल हो सकती हैं और ये एक वेबसीरिज को बेहतर बनाने के लिए पर्याप्त मसाले हैं, इसके बावजूद अली अब्बास ज़फर की सीरिज 'तांडव' दर्शकों को प्रभावित करने में असफल रहती है। जिस बुनियाद पर यह सीरिज खड़ी की गई है वो कमजोर होने के कारण इमारत मजबूत नहीं बन पाई है। सीरिज में बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन कमजोर लेखन के कारण वे भी एक स्तर तक जाने के बाद रूक गए।
देवकी नंदन सिंह (तिग्मांशु धुलिया) दो बार से चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने हैं और तीसरी बार भी उनके जीतने की पूरी उम्मीद है। चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले उनका महत्वाकांक्षी बेटा समर प्रताप सिंह (सैफ अली खान) उनकी हत्या कर देता है और देश को बताता है कि देवकी नहीं रहे। उसके प्रधानमंत्री बनने के सपने पर तब पानी फिर जाता है जब देवकी की खास दोस्त अनुराधा किशोर (डिम्पल कपाड़िया) के हाथ यह राज लग जाता है कि देवकी को समर ने मारा है। वह इस बात के जरिये समर को ब्लैकमेल करते हुए खुद प्रधानमंत्री बन जाती है और समर तिलमिला जाता है। समर किस तरह से कुछ लोगों को मोहरा बना कर अनुराधा से फिर सत्ता हासिल करने की कोशिश करता है वो 'तांडव' में दिखाया गया है।
पार्टी की अंदरुनी हलचल, प्रधानमंत्री की कुर्सी को पाने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले नेताओं का लालच तो दिखाया ही गया है, साथ में वीएनयू यूनिवर्सिटी में होने वाली राजनीति को भी खासी जगह दी गई है। किस तरह से छात्र नेताओं को बड़े नेता अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करते हैं, इस बात को भी रेखांकित किया गया है।
कुछ और किरदार भी हैं, दलित नेता कैलाश चौधरी (अनूप सोनी), प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वर्षों से नजरें गाड़े बैठा गोपाल दास मुंशी (कुमुद मिश्रा), वीएनयू का तेजतर्रार नेता शिवा शेखर (मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब), समर के लिए कुछ भी करने वाला गुरपाल चौहान (सुनील ग्रोवर), इन किरदारों की भी अपनी कहानियां है जो मेन कहानी के साथ जोड़ी गई हैं।
कहानी, उपकहानियां और प्रमुख किरदार से दर्शक इसलिए जुड़ नहीं पाते कि राजनीति विषय को लेकर बनाई गई सीरिज में जो मजा होना चाहिए वो नदारद है। बहुत सारी जगह यह सीरिज फिल्मी और अविश्वसनीय हो गई है।
समर का प्रधानमंत्री की हत्या करने वाला प्रसंग इतना कमजोर है मानो किसी आम आदमी को मार दिया गया हो। वह अपने पिता के शव के सामने बैठ कर शराब पीता है। क्या प्रधानमंत्री के शव के सामने बैठ कर यह हरकत करना संभव है?
अनुराधा के हाथ एक छोटा-सा सबूत लगता है जिसके आधार पर वह प्रधानमंत्री बन जाती है। वह सबूत किसने दिया, जो कि इस सीरिज का आधार है, अंत तक नहीं बताया जाता, शायद दूसरे सीजन पर बात छोड़ दी गई है, लेकिन इस बात का खुलासा इसी सीरिज में होना चाहिए था। कई प्रश्न दूसरे सीजन के लिए छोड़ दिए गए हैं, जबकि होना ये चाहिए कि एक-दो धागे ही दूसरे सीजन के लिए छोड़ना चाहिए ताकि नौ एपिसोड देखने के बाद दर्शक कम से कम थोड़ी संतुष्टि तो महसूस कर सके।
अनुराधा की पीए मैथिली को गुरपाल धमका कर अनुराधा से सत्ता छीन लेता है। मैथिली इतनी पॉवरफुल होने के बावजूद क्यों डर जाती है? यह बात भी पचती नहीं है। इस तरह के और भी प्रसंग हैं जो सीरिज को कमजोर करते हैं।
वीएनयू और शिवा पर खासे फुटेज खर्च किए गए हैं। जो लगभग एक जैसे लगते हैं और खूब बोर करते हैं। साथ ही यह सीरिज की मेन कहानी पर बहुत ज्यादा असर भी नहीं डालते।
अली अब्बास ज़फर का निर्देशन अच्छा है। कमजोर कहानी के बावजूद वे कुछ हद तक दर्शकों को बांधने में सफल रहे हैं। अपनी स्टारकास्ट से भी उन्होंने अच्छा काम लिया है।
सैफ अली खान का किरदार थोड़ा फिल्मी है, लेकिन सैफ ने इसे अच्छे से निभाया है। डिम्पल कपाड़िया बेहतरीन एक्ट्रेस हैं, लेकिन उनके लिखे किरदार ने उन्हें ज्यादा करने का स्कोप नहीं दिया है। सुनील ग्रोवर प्रभावित करते हैं।
डीनो मोरिया, सारा जेन डायस, अनूप सोनी, तिग्मांशु धुलिया, कुमुद मिश्रा, कृतिका कामरा, गौहर खान ने अपने-अपने किरदारों से न्याय किया है। मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब का रोल खासा लंबा है, लेकिन स्क्रिप्ट ने उन्हें ज्यादा करने का मौका नहीं दिया।
तांडव में शार्पनेस नहीं है, शायद दूसरे सीजन में तीखापन नजर आए।
* सीजन : 1, एपिसोड्स : 9
* निर्देशक : अली अब्बास ज़फर
* कलाकार : डिम्पल कपाड़िया, सैफ अली खान, सुनील ग्रोवर, तिग्मांशु धुलिया, गौहर खान, डीनो मोरिया, सारा जेन डायस, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, अनूप सोनी, कृतिका कामरा