कश्मीरी पंडित को बेदखल करने का घाव 32 साल बीतने के बाद भी हरा है। जिन लोगों ने इसे भोगा है उनके लिए तो यह नासूर है। यहां हुए नरसंहार के बारे ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है। यह सब जब हो रहा था तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी। विधु विनोद चोपड़ा, जो कि खुद कश्मीरी हैं, ने फिल्म शिकारा के जरिये यह सब दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन उनका प्रयास बहुत ही कमजोर साबित हुआ। द ताशकंद फाइल्स के जरिये निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मौत को लेकर कुछ खुलासे किए थे। अब उन्होंने कश्मीर की सबसे गंभीर समस्या पर फिल्म बनाई है।
विवेक की यह फिल्म दर्शाती है कि किस तरह से कट्टरपंथियों ने कश्मीरी पंडितों का जीना बेहाल कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। तत्कालीन फारूख अब्दुल्ला सरकार तमाशा देखती रही। जबकि उनकी नाक के नीचे से कश्मीर की आजादी की मांग और पंडितों के साथ दुर्व्यहार का नंगा नाच हो रहा था। पुलिस और मीडिया को भी फिल्म कटघरे में खड़ा करती है। युवा पीढ़ी का ब्रेनवॉश किया जा रहा था। कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार देख दर्शक दहल जाते हैं।
यह ऐसा सब्जेक्ट है जिस पर डॉक्यूमेंट्री बनाई जानी चाहिए, जिससे विश्वसनीयता बढ़ती है। फिल्म इसलिए बनाई गई है ताकि बात ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इस फिल्म का रिलीज के पहले बहुत ज्यादा प्रचार नहीं किया गया, लेकिन दर्शकों में इस फिल्म को लेकर भारी उत्सुकता है। ये शायद इसलिए कि वे जो देखना चाहते हैं उसी अंदाज में बात को कहा गया है।
फिल्म शुरू होती है उस सीन से जिसमें बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। कुछ कश्मीरी मुस्लिम लड़के, शिवा नामक हिंदू लड़के से कहते हैं कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कहे। इसी बीच मुस्लिम युवाओं की भीड़ आती है और पंडित के घर में आग लगा देती है। उनका कहना है- रालिव, त्सालिव या गालिव अर्थात् या तो मुस्लिम बनो, या मरो, या कश्मीर छोड़ो।
पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की कहानी के जरिये कश्मीर के हालात दिखाए गए हैं। कुछ आतंकी पुष्कर के घर में घुस जाते हैं क्योंकि पड़ोसियों ने विश्वासघात किया है। अपने ससुर पुष्कर नाथ को बचाने के बदले में उनकी बहू को अपने पति के खून के साथ चांवल खाने पड़ते हैं। ऐसा हकीकत में भी हुआ है। यह ऐसा सीन है जिसे देख सिनेमाहॉल में सन्नाटा पसर जाता है।
पुष्कर नाथ कश्मीर छोड़ देता है। उसके पोते का प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) कश्मीर की आजादी को लेकर ब्रेनवॉश कर देती है। मरने से पहले पुष्कर अपने पोते से वादा लेते हैं कि मरने के बाद उनकी अस्थियां कश्मीर स्थित उनके घर में विसर्जित की जाए।
पुष्कर की मृत्यु के बाद कृष्णा कश्मीर जाता है जहां उसके दादा के दोस्त ब्रह्मा (मिथुन चक्रवर्ती), डॉक्टर महेशकुमार (प्रकाश बेलावड़ी), हरी नारायण (पुनीत इस्सर) और विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) से उसकी मुलाकात होती है। इनमें से कोई पुलिस में था तो कोई पत्रकार। ये लोग कृष्णा 1990 में हुए हालातों के बारे में बताते हैं तो सच्चाई जानने के बाद वह सभी को इस बारे में बताने का फैसला करता है।
वह कहता है कि कश्मीर में हुई इस घिनौनी घटना के बारे में हमें क्यों नहीं बताया गया? उसका यह कहना कई सवाल खड़े करता है, जैसे क्या तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकारों ने इस मामले को दबाया था? क्या मीडिया ने अपना रोल सही तरीके से नहीं निभाया था?
विवेक ने फिल्म की कहानी को सच्चे दस्तावेजों और सच्ची कहानियों को जोड़कर आगे बढ़ाया है। उन्होंने टेलीकॉम इंजीनियर बीके गंजू हत्याकांड को पुष्कर के बेटे की हत्या से जोड़ा है। नदीमार्ग हत्याकांड का भी उल्लेख है जिसमें 24 हिंदुओं को लश्कर-ए-तोयबा के लोगों ने हत्या कर दी थी। लोगों को कटिंग मशीन से चीर दिया गया था और फिल्म के क्लाइमैक्स में आतंकियों का सरगना बिट्टा (चिन्मय मंडलेकर) भी एक महिला को ऐसी ही सजा देता है।
फिल्म को लेकर अहम सवाल इसकी सत्यता को लेकर है। क्या जो कुछ दिखाया गया वो सच है? विवेक रंजन अग्निहोत्री का झुकाव किस दल की ओर है, ये भी सभी जानते हैं। इसका जवाब यह है कि विवेक ने कई सच्ची घटनाओं को फिल्म से जोड़ा है। काफी रिसर्च भी किया है। फिल्म में दिखाई गई बातें सच्चाई के करीब हैं।
गैर-मुस्लिमों के लिए आतंकियों ने कश्मीर में क्या स्थिति पैदा की थी, खोजिए। ज्यादातर बातें आपको फिल्म में मिलेगी। किसी कश्मीरी पंडित से मिलिए, जिनके बाप-दादाओं को कश्मीर छोड़ना पड़ा था। वे जो हाल सुनाएंगे वो भी आपको फिल्म के करीब मिलेगा।
विवेक ने कई बात समेटने के चक्कर में फिल्म को बहुत लंबा कर दिया है। इंटरवल के बाद कई बातें उनके हाथ से छूटती नजर आती हैं। फिल्म की अवधि कम होती तो इसकी मारक क्षमता और बढ़ जाती। तकनीकी चमक फिल्म से नदारद है जो कि आज की फिल्मों के लिए महत्वपूर्ण बात होती है, लेकिन फिल्म का विषय ही इतना पॉवरफुल है कि इसके तले कई बातें दब जाती है। फिल्म के कम बजट के कारण भी फिल्म की मेकिंग पर असर हुआ है। आर्टिकल 370 हटा दी गई है। अभी भी लोग क्यों मारे जा रहे हैं? अब क्या हालात हैं वहां? इस बातों को भी फिल्म में जगह मिलनी थी।
अनुपम खेर ने कमाल की एक्टिंग की है। वे खुद भुक्तभोगी हैं इसलिए इमोशन्स को अच्छी तरह समझते हैं। अपने अभिनय के बल पर वे कई जगह दर्शकों की आंखों में आंसू ला देते हैं। दर्शन कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी, चिन्मय मंडलेकर सहित सारे कलाकारों का अभिनय शानदार है।
कश्मीरी पंडितों के साथ जो बर्ताव हुआ है उसे परदे पर देखना भी आसान बात नहीं है, इसी से उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है। यह फिल्म इतिहास का एक पन्ना है जिसके बारे में कम लोग जानते हैं, सच्चाई से रूबरू होने के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है।