द व्हाइट टाइगर : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

सोमवार, 25 जनवरी 2021 (13:40 IST)
कहने को तो भारत में प्रजातंत्र है और सभी को आगे बढ़ने के समान अवसर हैं, लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है? अभी भी इतनी गरीबी है कि लोग दो वक्त की रोटी के लिए चौबीस घंटे की गुलामी स्वीकार लेते हैं। अभी भी जाति को देख कर ही नौकरी पर रखा जाता है। गरीब और असहाय लोगों को आगे आने से रोका जाता है। 
 
चंद रुपयों के लिए नौकरी कर रहे इन लोगों का खून इतना ठंडा और कंधे इतने झुके हुए हो गए हैं कि ये मालिक की हर बात का अहसान मानते हैं और विरोध करने की ताकत इनमें नहीं है। जातियों के ऊंच-नीच में से नीची जाति के कुछ लोग यदि आगे बढ़ जाते हैं तो वे भी भ्रष्ट सिस्टम का शिकार हो जाते हैं और लूटने का कोई मौका नहीं छोड़ते।  इन सब बातों के इर्दगिर्द घूमती है फिल्म 'द व्हाइट टाइगर'। 
 
यह फिल्म लेखक अरविंद अडिगा की बूकर पुरस्कार हासिल कर चुकी किताब पर आधारित है और जातिवाद तथा शोषण का घिनौना रूप दिखाती है। 
 
कहानी है बलराम हलवाई (आदर्श गौरव) नामक युवा की जो बचपन से बहुत होशियार है और एक बार शिक्षक उसे व्हाइट टाइगर भी कहता है। गरीबी के कारण पढ़ाई उसे अधूरी छोड़ना पड़ती है, लेकिन वह अपनी आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा नहीं छोड़ता। वह बचपन से ही देखता है कि किस तरह से जमींदार लोगों का शोषण करता है और उसके पिता इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। 
 
जमींदार के छोटे बेटे अशोक (राजकुमार राव) को जब बलराम देखता है तो उसे समझ आ जाता है कि यही वो शख्स है जिसके सहारे वह आगे बढ़ सकता है। अशोक का बलराम ड्राइवर बन कर दिल्ली आ जाता है। 
 
बलराम को समझ आ जाता है कि भारतीय समाज बड़ी तोंद वाले यानी कि अमीर और बिना तोंद वाले यानी गरीब में बंटा हुआ है। वह गरीबी का दड़बा तोड़ना चाहता है और ऐसा कर पाता है या नहीं, इसके लिए फिल्म देखना जरूरी है। 
 
फिल्म में विभिन्न किरदार हैं जिनके सहारे कई बातों को रेखांकित किया गया है। बलराम का केवल मालिक ही नहीं, उसका परिवार भी शोषण करता है। बलराम की जाति की एक महिला नेता बन जाती है तो वह भी भ्रष्टाचार करती है। बलराम को समझ आ जाता है कि गरीबी के दड़बे को तोड़ने के लिए हो सकता है कि उसे अपराध भी करना पड़े। 
 
भारत की बड़ी आबादी आज ड्राइवर, चपरासी जैसे कई काम कर रही है जो छोटे समझे जाते हैं और उनका जम कर शोषण होता है। उन्हें बलराम की कहानी अपनी ही लगेगी। करोड़ों के फ्लैट में रहने वालों के ड्राइवर बिल्डिंग की सतह में अंधेरी और बदबूदार जगह पर रह कर आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। 
 
निर्देशक रामिन बहरानी ने एक अनोखे अंदाज में इस कहानी को मनोरंजक तरीके से दर्शाया है। अपने मुख्य कैरेक्टर बलराम के मन में क्या चल रहा है ये वो दिखाने में सफल रहे हैं। हालांकि वाइस ओवर बहुत ज्यादा है और कई बार परेशान भी करता है कि जब दिखाने का माध्यम आपके पास है तो वाइस ओवर की इतनी जरूरत क्यों? रामिन का बहुत सारा काम सिनेमाटोग्राफर पाओलो कारनेरा ने आसान कर दिया है। जो निर्देशक और लेखक कहना चाहते हैं वह पाओलो ने अपनी सिनेमाटोग्राफी से कहा है। फिल्म को कमाल का शूट किया गया है। 
 
फिल्म के मुख्य किरदार बलराम को जिस तरह से आदर्श गौरव ने पेश किया है वो लाजवाब है। बलराम और आदर्श को अलग करना मुश्किल है। बलराम की मासूमियत, झटपटाहट, महत्वाकांक्षा और गुस्से को आदर्श ने अपने अभिनय से व्यक्त किया है। राजकुमार राव, प्रियंका चोपड़ा, महेश मांजरेकर, स्वरूप सम्पत सहित सारे कलाकारों का अभिनय शानदार रहा है। 
 
एक भारत में दो देश बसते हैं, यह बात कहने में फिल्म सफल रही है। 
 
निर्माता : मुकुल देओरा, रामिन बहरानी, प्रेम अक्काराजू, प्रियंका चोपड़ा
 निर्देशक : रामिन बहरानी
कलाकार : आदर्श गौरव, प्रियंका चोपड़ा, राजकुमार राव, महेश मांजरेकर, स्वरूप सम्पत
* नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध * 16 वर्ष से अधिक उम्र वालों के लिए
रेटिंग : 3.5/5 

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