क्रिसमस : पच्चीस दिसंबर को ही क्यों?

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क्रिसमस का आरंभ करीबन चौथी सदी में हुआ था। इससे पहले प्रभु यीशु के अनुयायी उनके जन्म दिवस को त्योहार के रूप में नहीं मनाते थे। बाइबल में भी इसका कहीं वर्णन नहीं पाया जाता। परंतु पश्चिम योरप और रोम के मसीही प्रारंभिक सदी में ख्रीष्ट जन्मोत्सव मनाते थे। इसका संदेश क्रायसोस्टम ने अपने बड़े दिन के संदेश में दिया था।

ऐसा माना जाता है कि ख्रीष्ट जन्मोत्सव, यीशु मसीह के अनुयायी इसलिए नहीं मानते थे, क्योंकि धर्म-ज्ञाता व शास्त्री यीशु के जन्म की निश्चित तिथि पर एकमत नहीं थे। साथ ही बाइबल में भी ख्रीष्ट जन्मोत्सव पर कोई वर्णन नहीं होने से उनके अनुयायी उनका जन्मदिन मनाते हों, ऐसा उदाहरण नहीं मिलता।

पूर्व तथा पाश्चात्य देशों के मसीही 24 दिसंबर से 6 जनवरी तक 'एपिफनी' मनाने पर सहमत हुए जो कि ऐसी मान्यता लिए था कि यह लगभग वह समय है जब ज्योतिषी यीशु के जन्म का अंदाज अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर लगाकर यीशु दर्शन को आए थे। परंतु रोम में बसे ईसाई एक ऐसी तिथि चाहते थे जो कि सूर्य के जन्मदिन से मेल खा सके।

ईसाई परंपराओं और योरप में पहले से प्रचलित परंपराओं का जो संगम हुआ, उसी का एक परिणाम यह था कि सूर्य देवता के पुनर्जन्म का पर्व यीशु के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। इस तरह 25 दिसंबर ख्रीस्त जन्म या बड़े दिन या क्रिसमस के रूप में तय किया गया।

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तब से 'ख्रीष्ट जन्मोत्सव' संपूर्ण संसार में बड़े हर्षोल्लास के साथ मसीहियों द्वारा मनाया जाता है। इसकी तैयारी दिसंबर के द्वितीय सप्ताह से ही आरंभ हो जाती है। 'स्वेतदान', 'ज्योति की आराधना' एवं 'समूह गान' (कैरल्स) मुख्य आयोजन हैं।

24 दिसंबर की मध्य रात्रि को एक विशेष आराधना की जाती है जिसे 'वाच नाइट' की आराधना कहते हैं। 25 दिसंबर की बड़ी फजर से ही गिरजों की विशाल घंटियां मधुर स्वरों में उगते सूर्य का स्वागत करती हैं।

बच्चों से लेकर बूढ़े तक अपने नए परिधानों में गिरजों की ओर जाने लगते हैं। यीशु के जन्म से संबंधित मधुर गान बड़े ऊंचे व मधुर व स्वरों में गाए जाते हैं। कहीं-कहीं पर यीशु की जन्म झांकियां भी बनाई जाती हैं। यीशु के जन्म से संबंधित प्रवचन धर्मगुरु देते हैं एवं प्रभु यीशु के जन्म के महत्व को समझाते हैं।

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