Coronavirus को हराने वाली 14 दिनों की तकलीफोंभरी दास्तान, पढ़िए पत्रकार की आपबीती

शनिवार, 20 जून 2020 (16:51 IST)
नई दिल्ली। एक फोन कॉल आया जिसमें बताया गया कि वे कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और फिर दूसरे कॉल में संक्रमणरहित होने की सुखद सूचना मिली। इन दो कॉल्स के बीच के वे 2 हफ्ते उनके लिए बहुत उतार-चढ़ाव वाले रहे। पीटीआई के पत्रकार मानिक गुप्ता ने जम्मू में क्वारंटाइन में रहने के अपने अनुभव शेयर किए, जहां वे गए तो अपने परिवार से मिलने थे, लेकिन अस्पताल पहले जाना पड़ा। उन्होंने अपनी आपबीती कुछ यू बयां की।
 
सुबह के करीब साढ़े छ: बजे होंगे जब फोन की घंटी बजी। मैं जम्मू के होटल में अपने कमरे में था। मैं दिल्ली में काम करता हूं और यहां तीन दिन पहले ही आया था। नया दिन शुरू हुआ और उसके साथ ही शुरू हुई दो हफ्ते तक चलने वाली तकलीफों की मेरी दास्तान।
 
फोन में दूसरी ओर इसे विनम्र लेकिन भावशून्य-सी एक आवाज आई- ‘माफ कीजिए, लेकिन आप कोविड-19 से संक्रमित हैं।’ मैं सदमे से जड़ हो गया था। क्या यह सच में हो रहा है? मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, मैंने खुद को चिकोटी काटी...यह सच था।
 
यह 25 मई की बात है। मैंने सबसे पहले अपने एक दोस्त को यह बताया, उसके बाद दफ्तर को सूचित किया और फिर अपने अंकल को। पता नहीं मेरी मां इस बात पर कैसा महसूस करतीं कि उनका इकलौता बच्चा एक ऐसे संक्रमण से ग्रस्त है जो जानलेवा हो सकता है। इसलिए हमने तय किया कि जब तक उनसे छिपा सकेंगे, इस बारे में नहीं बताएंगे।
 
दिल्ली में करीब 2 महीने तक लॉकडाउन में रहने, दिल्ली से जम्मू की ट्रेन में नौ घंटे बिताने और तीन दिन अपने पैसों से क्वारंटीन में रहने के बाद मैं जम्मू में अपने परिवार से मिलने को बेकरार था। जब ट्रेन जम्मू पहुंची, तो मुझे अनिवार्य कोरोना वायरस जांच करानी पड़ी थी।
 
इससे एक सप्ताह पहले तक मैं देश के कोविड-19 के आंकड़ों पर नजर रख रहा था और अब मैं खुद इसका हिस्सा बन गया था। कुछ दिन पहले ही मैंने एक कोरोना वायरस संक्रमित मरीज का इंटरव्यू लिया था। और अब खुद एंबुलेंस का इंतजार कर रहा था।
 
मेरे दिमाग में सवाल कौंधा कि मुझे यह संक्रमण कैसे हुआ? किससे मुझे यह संक्रमण मिला? दिल्ली में मेरे घर पर राशन का सामान पहुंचाने वाले से? उस प्रवासी श्रमिक से जिसका मैंने इंटरव्यू किया था? ट्रेन में किसी से? क्या रिपोर्ट सही है? ऐसे अनेक सवाल मन में आते रहे।
 
दोपहर तक मुझे अस्पताल में भेज दिया गया और वहां की हालत देखकर लगा कि वायरस तो मेरे लिए दूसरे नंबर की परेशानी है, पहली तो स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता से जूझना है। जिस सरकारी अस्पताल में मुझे ले जाया गया, वहां एक पत्रकार के लिए खबरों की अपार संभावनाएं थीं। लेकिन वक्त के इस मोड़ पर मैं खुद अपनी जिंदगी को लेकर डरा हुआ मरीज बन गया था।
 
गंदे फर्श, खिड़की के ऊपर मकड़ी के जाले, कचरापेटियों से बाहर गिरता कचरा, कुछ पंखे चल रहे हैं तो कुछ नहीं चल रहे, कुछ बहुत धीमे चल रहे हैं। कुछ ऐसा नजारा उस अस्पताल का था।
 
मेरे वार्ड में 8 अन्य रोगी थे। उनमें से अधिकतर ने कहा कि उन्हें देखने कोई डॉक्टर तक नहीं आया। इनमें कुछ ऐसे भी थे जिनकी 14 दिन की अनिवार्य क्वारंटीन की अवधि समाप्त होने को थी। एक रोगी ने मुझसे कहा कि डॉक्टर कहते हैं कि हमें कैमरे से देखा जा रहा है। वे कभी-कभी फोन करते हैं। 

इन सबके बीच मेरा फोन बजा। दूसरी तरफ मेरी मां थीं। मैं उनकी सिसकियां सुन सकता था। पत्रकार होने के नाते मुझे पता होना चाहिए था कि छोटे शहरों में खबरें तेजी से फैलती हैं लेकिन ‘कोविड’ की खबर तो और भी तेज रफ्तार से पहुंचती है।
 
एक दिन के अंदर मैं जम्मू शहर में चर्चा का विषय बन गया था। व्हाट्‍सएप संदेशों से लेकर अपुष्ट खबरों तक अनेक लोगों की बातचीत में मैं केंद्रबिंदु था।
 
जम्मू के एक प्रमुख अखबार ने खबर प्रकाशित की, ‘जम्मू में अपनी मां से मिलने आए नई दिल्ली में पीटीआई में कार्यरत 27 वर्षीय एक पत्रकार कोविड-19 से संक्रमित।’ इस खबर में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं था कि मैं क्वारंटीन में था और घर तो पहुंच ही नहीं पाया।
 
खबरों का असर दूर तक होता है। मेरे इलाके को एक तरह से सील कर दिया गया। इन खबरों से मेरे परिवार का लॉकडाउन में सुस्त रहने के बाद खानपान का हमारा पारिवारिक कारोबार जोर पकड़ना शुरू ही किया था कि इस खबर से फिर धराशायी हो गया।
 
लोगों के फोन का तांता लग गया। इस बीच मैं किसी और अस्पताल में जाना चाहता था। सहयोगियों तथा दोस्तों की मदद से अगले दिन मैं एक निजी अस्पताल में भर्ती हो गया। 
 
अस्पताल की पांचवीं मंजिल पर जहां मैं था, पूरी खाली सी थी। कोई मरीज नहीं, नर्स नहीं, डॉक्टर नहीं। अगले 12 दिन ऐसे ही कटे। मेरे अंदर कोई लक्षण नहीं थे लेकिन रिपोर्ट में संक्रमण की पुष्टि हुई थी। इस दौरान मुझे देखने केवल दो बार डॉक्टर आए। दो सप्ताह पूरे होने पर एक लैब सहायक दूसरी बार जांच के लिए नमूने लेने आया।
 
इसके अलावा कोई मेरे पास नहीं आया। मेरे घर से खाना आता था, लेकिन वह भी मेरी मंजिल पर लिफ्ट से भेज दिया जाता था। मुझे फोन आता था और मैं लिफ्ट से ट्रे उठा लेता था। कोई न कोई तो फर्श साफ करने आता होगा, लेकिन मेरे कमरे में कोई नहीं आया।
 
ऐसी हालत में मुझे खुद पर तरस आता था। तभी एक डॉक्टर दोस्त ने आकर कुछ हंसने-हंसाने वाली मजेदार बातें करके मेरा मन हल्का किया।  मैंने अच्छा महसूस किया और तय कर लिया कि वायरस का डर अपने आप पर हावी नहीं होने दूंगा। हंसना सबसे अच्छी दवा है। मैंने डायरी लिखना शुरू किया। किताबें पढ़ीं और वायरस को तवज्जो देना ही बंद कर दिया।
 
कई बार तो मैं पूरी मंजिल पर अकेले होने का फायदा उठाने लगा। खाली गलियारों में नाचने लगा। क्रिकेट खेलने का अभिनय करने लगा। शोएब अख्तर के अंदाज में गेंद डालकर सचिन के अंदाज में छक्का लगाने की मुद्राएं बनाने लगा। मैं यह सब इस उम्मीद के साथ करता रहा कि जल्द ही वायरस को भी इसी तरह अपने शरीर से बाहर कर दूंगा। पूरे समय मुझ में लक्षण नहीं होने से बहुत आस बनी रही। अब चुनौती मनोवैज्ञानिक ज्यादा थी।
 
घर के पास होकर परिवार से नहीं मिल पाना मुझे परेशान करता था। 7 जून को मैंने 14 दिन की अवधि पूरी की। सुबह-सुबह फिर एक फोन आया। लेकिन इस बार मेरे मन को उमंग से भर देने वाला फोन था। मेरी जांच रिपोर्ट में संक्रमण नहीं होने की पुष्टि हुई। अब मेरा घर और मेरी मां मेरे लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठे थे। और अंतत: मैं उनसे मिल सका। (भाषा)

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