हारमोनियम से निकलते हमारे समय के राग-विराग

WD
एक ब्लॉग है हारमोनियम। इससे समय के सुर निकलते हैं। कम बजता है, लेकिन जब भी बजता है अच्छा बजता है। इसमें समय का राग भी है, विराग भी है। इस राग-विराग में दुःख भी है, सुख भी है। यात्रा भी है और यात्रा के दुःख भी हैं और सुख भी हैं। यात्रा में चीजों को देखने का अंदाज भी अनूठा है। इनमें कहने का ढंग कहानीकार के कहने का ढंग है।

किसी यात्रा को याद करते हुए स्मृतियाँ एक लय में खुलती हैं। इस लय में कुछ चरित्र हैं, कुछ दृश्य हैं और इनमें थरथराती संवेदनाएँ हैं, तंज हैं, कभी-कभी झीना-सा अवसाद भी झलकता रहता है। कुछ पोस्ट पर नजर मारें तो लगता है कोई अच्छी कहानी पढ़ी जा रही है। इसमें एक कहानीकार बैठा है, जो अपनी निगाह में हर छोटी-बड़ी बात को कोई अर्थ देना चाहता है, दे रहा है। कभी- कभी कोई पोस्ट इस तरह लिखी गई है कि आप उसमें से कोई अर्थ निकालें। बस कह दिया गया है।

हारमोनियम एक पत्रकार का ब्लॉग है। ब्लॉगर हैं अनिल यादव। वे सचेत, सजग हैं। इतने कि किसी अखबार में छपे एक फोटो के इतनी खूबसूरती के साथ टुकड़े-टुकड़े करते हैं कि हर टुकड़ा एक अर्थ देते हुए कोई बड़ा अर्थ कहता जान पड़ता है। जैसे उनकी एक पोस्ट देखी जा सकती है- सारनाथ की गाजरवाली। वे एक फोटो को देखते हैं, जिसमें सारनाथ में एक यूरोपीय युवती गाजरवाली से गाजर लेकर पैसे नहीं देती और चलती बनती है। गाजरवाली उस पर झूम जाती है कि पैसे दे।

अनिल यादव इसे खूबसूरत पकड़ते हैं और देश की मिश्रित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में हाशिए पर अपनी रोटी-पानी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को केंद्र में लाने की कोशिश करते हैं। वे लिखते हैं- अखबार में छपे फोटो में परम आधुनिक यूरोप के साथ एक भारतीय देहातिन भिड़ी हुई थी। कल्पना में न समाने वाला यह पैराडाक्स लोगों को गुदगुदा रहा था, लेकिन गाजरवाली के लिए यह झूमाझटकी कोई खिलवाड़ नहीं थी। ललमुँही विदेशिन के लिए दो रुपए का मतलब कुछ सेंट या पेंस होगा, लेकिन गाजरवाली के लिए इसका मतलब है- कुप्पी में डाले गए दो रुपए के तेल से कई रात घर में रोशनी रहती है।

है न मार्मिक टिप्पणी। लेकिन क्या यह सिर्फ एक टिप्पणी है? जाहिर है नहीं। यह इस पत्रकार की वह निगाह है जो उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता को गहरे से रेखांकित करती है। निश्चित ही किसी के लिए भी वह फोटो सिर्फ एक दिलचस्पी जगाता हो, कोई कौतूहल जगाता हो, लेकिन अनिल अपनी सचेत निगाह से उसे एक सामाजिक यथार्थ की परत में बदल देते हैं। इसी पोस्ट में उनकी इस टिप्पणी पर गौर किया जाना चाहिए- यहाँ कुछ हजार का सवाल था और सारनाथ की गाजरवाली के सामने अदद दो रुपयों का।

क्या ललमुँही विदेशिन से गुत्थमगुत्था गाजरवाली पर अब भी हँसा जा सकता है। अगर आयकर विभाग को झाँसा देकर कुछ हजार बचा लेने वाले बाबुओं और सड़क किनारे बैठी बुढ़िया के बीच खरीद-बेच के अलावा कोई और रिश्ता बचा हुआ है तो नहीं हँसा जाएगा। वाकई, क्या ऐसा कोई रिश्ता है?

हारमोनियम में एसपी सिंह की पत्रकारिता को लेकर भी दिलचस्प टिप्पणी यहाँ देखी जा सकती है। वे एसपी की पत्रकारिता को याद करते हैं, उनसे अपनी मुलाकात को याद करते हैं और एसपी की गैरहाजिरी का मतलब शीर्षक पोस्ट में वे लिखते हैं कि अगर कोई बदलाव आना है इलेक्ट्रानिक, प्रिंट, इंटरनेट पत्रकारिता में तो पहले उस पूँजी के चरित्र, नीयत और अकीदे में आएगा (क्या वाकई), जिसके बूते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सुगंधित, पौष्टिक बिस्कुट खाने वाला या लोकतंत्र का रखवाला यह कुकुर (वॉच डॉग) पलता है।

बहरहाल इस कुकुर को पोसना महँगा शौक बना डाला गया है और उसे बिजनेस कंपल्सन्स के कारण इतना स्पेस देना ही पड़ता है कि कभी-कभार गुर्रा सके। ... और यह गुर्राना भी आवारा पूँजी के मालिकों के छलकते लहकट अरमानों के हूबहू अमल के दौर में कम बड़ी सहूलियत नहीं है।

कहने की जरूरत नहीं कि अनिल इस पूरे पत्रकारिता परिदृश्य पर टिप्पणी ही नहीं करते, बल्कि जरूरी और मूल्यवान बदलाव के लिए उसके मूल में छिपे कारणों की पड़ताल करते भी दिखाई देते हैं।

हारमोनियम पर यही नहीं, कभी-कभार बारिश की बूँदों की आवाज भी सुनी जा सकती है। वह किसी कविता की याद के जरिये भी यहाँ बरसती है। देखिए, वे लिखते हैं- दो दिन से झमाझम है। आज बादलों से घटाटोप आसमान को देखते एक कविता याद आई। कहीं पढ़ी या किसी से सुनी होगी।
नीली बिजली मेघों वाली
झींगुर, साँवर, सूनापन
हवा लहरियोंदार
घन घुमड़न भुजबंधन के उन्माद-सी
बढ़ती आती रात तुम्हारी याद-सी।

(बादल और बाँहों का चमत्कृत कर देने वाला फ्यूजन है। जरा सोचिए, बादल आपकी बाँहों के भीतर अनियंत्रित लय में घुमड़ रहे हैं, आतुर हैं, उन्मत्त हैं। उसकी याद का आना जुगनुओं की टिमटिम, झींगुरों के कोरस के बीच उमसभरी, आपके अस्तित्व को विलीन कर देने वाली अँधियारी रात का आना है। और यह साँवर क्या है, शायद बदली के मद्धिम प्रकाश का खाँटी रंग है।)

पता नहीं किसकी कविता है। शायद छायावादी कवि होगा कोई। कवि का नाम गुम गया है, कविता कितनी बरसातों के बाद अब भी बादलों में घुमड़ रही है।

जाहिर है इसमें कहानीकार ही नहीं कोई कवि भी बैठा है जो जुगनुओं की टिमटिम, झींगुरों का कोरस और उस अँधियारी रात को महसूस करता है जो आपके अस्तित्व को विलीन कर दे। इसी के साथ वे एक गायक-लेखक डायलान थामस की कविता भी पढ़ाते हैं। आप भी पढ़िए-

चाँद में बैठा मसखरा

मेरे आँसू हैं, खामोश मद्धिम धारा
बहती जैसे पंखुड़ियाँ किसी जादुई गुलाब से
रिसता है मेरा दुःख सारा
विस्मृत आकाश और बर्फ के मनमुटाव से।

मैं सोचता हूँ, जो छुआ धरती को मैंने
कहीं छितर न जाए भुरभुरी
यह इतनी दुःखी है और सुंदर
थरथराती हुई एक स्वप्न की तरह।

और वे लगभग भुला दिए एक कवि को भी शिद्दत से याद करते हैं। याद करते हुए उसकी कविता का अनुवाद भी करते हैं। कुमिंग का छोटा-सा परिचय देते हुए वे उनकी कविता आपका दिल हमारे पास प्रस्तुत करते हैं। और इसके साथ ही वे कभी-कभार ऐसी तुक भी भिडा़ते हैं कि उसमें एक तीखा व्यंग्य भी महसूस किया जा सकता है। इसकी बागनी देखिए-

कामरेड दुर्गा
ईटिंग मुर्गा
ड्रिकिंग व्हिस्की
टेकिंग सिस्की
वेरी रिस्की
लाल सलाम।।।

और वे यात्रा करते हैं, उसे दर्ज करते हैं, नहीं करते हैं तो यात्रा को लेकर शे'र पेश करते हैं। इस शे'र पर भी गौर फरमाएँ कि-

सैर कर दुनिया की गाफिल जिन्दगानी फिर कहाँ।
जिन्दगानी गर रही तो यों नौजवानी फिर कहाँ।।

तो नौजवानी में वे खूब यात्रा करते हैं। उस पर लिखते ऐसा हैं कि आप भी उस यात्रा का मजा ले रहे हैं। एक यात्रा की याद में वे कहीं न जा पाने के अपने दुःख को बहुत ही दिलचस्प अंदाज में लिखते हैं- मुझे आजकल लगता है कि मैं कोई जमाने से यहीं खड़ा, हवा चले न चले सिर पटकता पेड़ हूँ। या कोई धूल से अटी पिचके टायर वाली जीप हूँ जिसके स्टीयरिंग का पाइप काटकर मेरे गाँव के छोकरे लोहार से कट्टा बनवाने की सोच रहे होंगे। या कोई हिरन हूँ जिसके सींगों को तरासकर, भुस भर दिया गया है और जिसकी काँच की आँखों में उजबकपन के सिवाय कोई और भाव नहीं है।

कभी लगता है कि बीमार, मोटे, थुलथुल, सनकी, भयभीत और ताकत के नशे में चूर लोगों से भरे एक जिम में हूँ। पसीने और परफ्यूम की बासी गंध के बीच मुझे एक ऐसी मशीन पर खड़ा कर दिया गया है जिस पर समय लंबे पट्टे की तरह बिछा हुआ है। मैं उस पर दौड़ रहा हूँ, पसीने-पसीने हूँ, हाँफ रहा हूँ लेकिन वहीं का वहीं हूँ। कहीं नहीं पहुँचा, एक जमाना हुआ। समय का पट्टा मुझसे भी तेज भाग रहा है। अगर मैं उसके साथ नहीं चला तो मशीन से छिटककर गिर पड़ूँगा और कोई और मेरी जगह ले लेगा। मैं थक रहा हूँ यानी समय जरूर कहीं न कहीं पहुँच रहा है। मैं लोगों को चलने का भ्रम देता आदमी का एनिमेशन हूँ (यह सिर्फ मुझे पता है)।

लेकिन यात्रा की यात्रा-2 शीर्षक वाली पोस्ट में वे अपने को बिना भावुक किए बल्कि भावुकता की हवा निकालते हुए वे एक खास दूरी से चीजों को देखने की कोशिश करते हैं। मिसाल के तौर पर देखिए कि अवसाद दिखाने के लिए मैंने लिख मारा है कि रेल के डिब्बे में चालीस वाट का पीला लट्टू जल रहा था। हमारी ट्रेनों में चालीस वाट के बल्ब नहीं लगते।

किशोरावस्था के चिबिल्लेपन में अपना होना साबित करने के लिए गाजीपुर जिले के सादात स्टेशन से माहपुर रेलवे हाल्ट के बीच मैंने दर्जनों बल्ब चुराए हैं और होल्डर में ठूँसने के बाद उन्हें फूटते देखा है। अब अगर कोई एमएसटी dhari पाठक यह नतीजा निकाले कि यह संस्मरण लिखने वाला कल्पना के हवाई जहाज पर चलता है, लेकिन उसने ट्रेन में कभी सफर नहीं किया है तो मुझे पिनपिनाना नहीं चाहिए।

और यात्रा में वे दुर्गा दादा को कितने मारू अंदाज में याद करते हैं। इस याद करने में लगता है जैसे अनिल अपने जीवन का कोई फलसफा भी धीरे से आपकी ओर सरका रहे हैं। आप महसूस कीजिए-दुर्गा दादा के कान गरम हों और कोई जरा इसरार, फिर इसरार करे तो अपनी भयानक आवाज में कोई पुरानी बंदिश काहे को मोरा जिया लै ले, काहे को मोरा जिया दै दे गा दिया करते थे।

मैं कहा करता था रोमांटिक मूड में भेड़िया- फिर भी कोई बात थी। वे गाते तो लगता था कि कोई काठ पर लिखा प्रेम-पत्र पढ़ रहे हैं जिसका सार यह है कि जियरा के लेन-देन के गदेलेपन में क्यों पड़ते हो। अब तक जितने पड़े उन्होंने तकिए भिगोने, सुखाने, भिगोने के अलावा क्या किया। अपनी पर आ जाएँ तो वे एक अवधी का बड़ा मारू गीत गाते थे जिसे सुनते हुए सीपिया टोन का एक फोटो भीतर बनने लगता था।

और वे कम्प्यूटर के सामने बैठकर बढ़िया एकालाप भी कर सकते हैं। लेकिन यह एकालाप इस डिब्बे के सामने का ही है। डिब्बे से एकालाप शीर्षक पोस्ट पढ़ें तो उनकी पसंद-नापसंद को भी समझा जा सकता है। इस पोस्ट में वे लिखते हैं कि सबसे अच्छे ब्लॉग वे होते हैं जिनमें कहा कम समझा ज्यादा जाता है। जैसे कबाड़खाना, अंतर्ध्वनि, मीत, रेडियो आदि। जैसे आज ही छाप-तिलक में यह क्यों कहा कि बात अधम कह दीनी रे नैना मिलाय के। वह भगवान और भक्तिन के बीच कौन-सी बात थी जो अधम थी। क्या भगवान ने भी ब्लॉग के जरिये कहा जिसे कोठारिनजी समझ नहीं पाईं और उनका आँचल मैला होते-होते रह गया।

लेकिन ऐसा नहीं है कि अनिल की नजर कहीं और नहीं जाती। वे राजनीति का भी नोटिस लेते हैं और हमारे इस पल-पल बदलते समाज के किसी ट्रेंड पर अपने दिलचस्प नजरिये से रोचक टिप्पणी भी करते चलते हैं। जैसे पावर पुत्र में वे नोटिस लेते हैं कि जरा इन बेटों की तरफ खड़े होकर सोचिए कि उनके सामने विकल्प क्या है। अब तक जो तथाकथित कुलीन, भद्र, सुसंस्कृत, ऊँची सोच के लोग सत्ता में रहे उन्होंने भी तो यही किया।

पावर का ग्रामर जानते थे इसलिए अपने हाथ गंदे नहीं किए, खुद नहीं फँसे और बलि के लिए पाले बकरों से काम चलाते रहे। इनके सामने सत्ता के इस्तेमाल का और मॉ़डल है ही नहीं। यह कुछ वैसा ही है कि जंगल में भेड़िए के साथ पला बच्चा भेड़िया हो जाता है। अपवाद के तौर पर कुछ लोगों ने सत्ता का इस्तेमाल कमजोरों की सरपरस्ती और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए जरूर किया है। उनके रास्ते पर चलना जरा जिगरे का काम है जिसे इन दिनों मूर्खता भी कहा जाता है।

फिल्मों, टीवी और बाजार ने मिलकर करवाचौथ को एक इवेंट में बदल दिया है। करवा चौथ अब रस्म से ज्यादा एक इवेंट हो गई है। वे अपनी एक मजेदार पोस्ट करवाचौथ पर श्री टेलीविजन को पत्र में लिखते हैं कि एक लड़की ने मेहँदी लगवा ली, लेकिन कहा कि वह व्रत नहीं रहेगी। पड़ोसनें उसे कोसने लगीं। घर लौटते उसने अपनी दोस्त से कहा कि इनमें से कई की अपने पति से शाम ढलने के बाद बातचीत बंद हो जाती है। वे इस उम्मीद में सज रही हैं कि शायद, शादी की स्मृति ताजा हो जाए और रातों का जानलेवा सूनापन टूट जाए। मैं चाहता हूँ कि ऐसा ही हो, लेकिन उस क्षण भी वे आप ही के भीतर रहना चाहती हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि वे किसी भी ऊपरी सतह पर सामान्य-सी दिखने वाली किसी घटना, खबर, फोटो को अपनी नजर से इस तरह बदल देते हैं कि वह हमारे समकालीन यथार्थ की एक दूसरी और तीसरी तह का अहसास कराती है। उनकी एक बहुत ही छोटी-सी पोस्ट को देखें जिसका शीर्षक है- आशा से उन्मत्त। इसमें एक दोस्त से बात के बहाने वे बहुत ही मानीखेज बात कहते हैं और इसके साथ फिदेल कास्त्रो का एक दिलकश फोटो लगाकर दूसरा आयाम दे देते हैं। यह टुकड़ा पढ़िए- एक दोस्त से बात की।

हमेशा करता था लेकिन आज जरा-सी बात की। करनी ही थी। उससे न करता तो किसी पेड़ से करता, दीवार से करता, खुद से करते-करते थक चुकाष उसने कहा कि देखता हूँ, सोचता हूँ, कुछ करते हैं। करते हैं, करना पड़ेगा, यह जरूरी है। अब मैं उन्मत्त हूँ। मेरे पास फिर से आशा है। ठहरकर सोचता हूँ कि यह कहने का साहस भी उसमें आखिर कैसे बचा हुआ है। विघ्नसंतोषी नहीं हूँ। बस हैरत है जो बचपन से अब तक आँखों-सी फैलती जाती है।

अनिल ने अपने इस ब्लॉग में हिंदी के युवा कवि और धुरंधर अनुवादक अशोक पांडे को अपना साथी बना लिया है। अशोक पांडे ने एक बहुत ही गंभीर चीज पोस्ट की है जो बताती है कि हिंदी में दो-चार चीजें लिखने के बाद किस तरह लोग अपने को महान मानने लगते हैं जबकि रचने की तड़प में महान लोगों ने कितना ज्यादा रचा है। रचने की तड़प उनकी और हमारी पोस्ट में अशोक पांडे लिखते हैं कि -काफ़्का साहित्य का सर्वज्ञाता ईश्वर है।

तुलूस लौत्रेक के नाम करीब पाँच हजार कैनवस-स्केचेज हैं।
फर्नान्दो पेसोआ के पूरे काम को अभी छपना बाकी है। छपा हुआ काम तीस हजार पृष्ठों से ज्यादा है।
विन्सेन्ट अड़तीस साल जिया।
काफ़्का इकतालीस।
लौत्रेक सैंतीस।
पेसोआ सैंतालीस।

हमारी हिन्दी में पचास पार के कवि को युवा कहे जाने की परम्परा है। जब वह अस्सी का होता है उसके पास चार से लेकर आठ पतले-दुबले संग्रह होते हैं। उसके साथ शराबखोरी कर चुके लोगों की संख्या लाख पार चुकी होती है और वह "मैं-मैं" कर मिमियाता-अपनी घेराबन्द साहित्य-जमात का मुखिया होकर टें बोल जाता है।

जाहिर है अशोक पांडे यह सिर्फ व्यंग्य ही नहीं कर रहे बल्कि यह विनम्रता से बता रहे हैं कि हमारे हिंदी का परिदृश्य क्या है और दूसरों के रचने की तड़प क्या है। इसी मुद्दे पर अनिल यादव लिखते हैं...जब रचने की बेचैनी और न रच पाने से उपजे असंतोष की जगह, कुछ नाम और पुरस्कारों से निर्मित सत्ता का निंदालस होगा और चंपुओं की फौज उसकी अवधि अपनी विनम्र, लसलसी जीभ से खींचकर चौबीस घंटे की कर देगी...तब साहित्य की तरह, यौन के क्षेत्र में भी पराक्रम दिखाने की कामना होगी जो पचास पार युवा साहित्यकार को हाथ पकड़कर यौन-कुंठा की आवेशित गली में ले ही जाएगी।

और उनकी अब तक कि सबसे ताजा पोस्ट पढ़िए अंदाजा लगाए कि यह पत्रकार के साथ कितना अच्छा कहानीकार भी है। यह पोस्ट है कुहरे में दुविधा बाबू।

उनके ब्लॉग का पता ये रहा-
http://iharmonium.blogspot.com

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