भारतीय बल्लेबाज सफेद हाथी!

- अतुल चतुर्वेदी
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भारतीय क्रिकेट टीम सीरिज हार के आराम फरमा रही है और चेन्नई में चयनकर्ताओं की गहन चिंतन शिविर में बैठक चल रही है। हार के बाद चिंतन और दोषारोपण एक अनिवार्य रस्म अदायगी है इससे चित्त हल्का हो जाता है।

हार-जीत सृष्टि का विधान है। हर सुख के बाद दुख का आगमन होता है। तुमने विश्व कप का आनंद भोगा, कमाई की तो अब ऑस्ट्रेलिया में हार भी भोगो। यूं तो कागजों पर टीम बहुत मजबूत नजर आती है लेकिन जैसा कि होता है कागजी शेर कभी दहाड़ते नहीं। वे सिर्फ अपने गेटअप से डराते हैं, प्रदर्शन से नहीं। उनमें शेर जैसा कुछ नहीं होता न चाल, न वीरता। वे तो मात्र भभकी के लिए हैं। वैसे ही हमारे रिकॉर्डधारी खिलाड़ी हैं।

एक तो परेशानी यह है कि ऑस्ट्रेलिया में गेंद पिच पर ऊपर बहुत उठती है और उसे देख हमारा बल्ला ही ऊपर नहीं उठ पाता हम क्या करें। उधर अंपायर की मानो तो उंगली ही ऊपर उठी रहती है। हमारे आधे खिलाड़ी बुजुर्ग हैं।

ऐसे में पिच पर ज्यादा देर तक टिके रहने की उनसे उम्मीद करना बेमानी है। एक उम्र हो जाने पर न आंखें साथ देती हैं न पैर चलता है। सिर्फ दिल साथ देता है, कामनाएं जोर मारती हैं। तो बस उसी की वजह से टीम से चिपके हुए हैं।

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टीवी पर एक एक्सपर्ट कह रहे थे कि टीम अभी लय में नहीं है, इन क्रिकेटरों में अभी काफी क्रिकेट भरा पड़ा है। पता नहीं कब लय लौटेगी और कब गायकी शुरू होगी। अभी तो स्थायी ही तलाश रहे हैं कलाकार। लय, ताल और सुर सब बिगड़े हुए हैं टीम के। उधर खोजी पत्रकारिता के अन्तर्यामी पत्रकार अलग पीछे पड़े हुए हैं। वे कृपया पता लगाएँ कि चीन, अमेरिका भी क्या इस खेल को अपनाने वाले हैं कि नहीं।

या हम ही इस अफीम को चाट-चाट के अपना कीमती समय बरबाद करते रहेंगे। जब आवश्यक सेवानिवृत्ति नियम देश में लागू है तो क्रिकेट में क्यों नहीं। जब पूरी टीम शीघ्र पतन का शिकार हो रही है तो कब तक हम पुराने खिलाड़ियों को अवसर का शिलाजीत देकर खिलाते रहेंगे।

वक्त आ गया है कि वे स्वयं साख बचाकर संन्यास की घोषणा कर दें। वेटिंग भारत रत्न से कह दिया जाए कि वे इंश्योरेंस प्लान बेचें और होटल चलाएं। अंखियां महाशतक के इंतजार में पथरा गई हैं सखि। उर बिच पनारे नहीं कटारे चल रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया की पिचें बड़ा ही अनिश्चित व्यवहार करती हैं ममता दी की तरह। कभी स्विंग अंदर, कभी बाहर। अब यदि अजीत सिंह की तरह सत्ता की लाइन में आकर भी खेलो तो भी गेंद चकमा दे जाती है।

क्या जाने कब कौन-सा किनारा बल्ले को छू जाए। बिलकुल उत्तरप्रदेश के चुनाव-सा अमर्यादित व्यवहार है इन पिचों का। हमारे बल्लेबाज तो वहां बस सफेद हाथी ही साबित हो रहे हैं। जिन्हें अब ढंककर रखने की ही जरूरत है। मुंह दिखाने के काबिल तो वैसे भी वे बचे कहां हैं।

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