बजट आया और चला गया

- अंशुमाली रस्तोगी
ND

संभवतः यह सदन में पहली दफा हुआ जब विपक्ष प्रणव दा के बजट भाषण को चुपचाप बैठा सुनता रहा, जैसे बजट में सब कुछ सही हो। सही मायनों में इस बजट ने न कोई बड़ा झटका दिया, न तगड़ा फटका। बस, बजट आया और चला गया।

न तालियाँ, न ठिठोलियाँ; न विरोध, न क्रोध; न क्रिया, न प्रतिक्रिया। प्रणव दा का बजट बम बस यूँ ही फुस्स हो गया। न मालूम यह कैसा बजट था, जिसने बजट होने का एहसास तक न होने दिया। दो घंटे प्रणव दा आम बजट पर बोले मगर क्या बोले औ किसलिए बोले, इसे न चैनल वाले समझ पाए, न आर्थिक बुद्धिजीवी।

घर-बाहर, चौकी-चौराहे, दफ्तर-सैलून पर सभी यह सोच रहे हैं कि आखिर बजट पर बात क्या की जाए? न कुछ कहने को शेष रहा, न सुनने-सुनाने को। जिन चीजों पर दाम बढ़ाए तो ऐसे बढ़ाए कि बढ़ने का एहसास तक न हुआ। और जिन चीजों पर दाम घटाए तो ऐसे घटाए कि घटना भी शरमा जाए। प्रणव दा की प्रणनोमिक्स देखिए कि मोबाइल सस्ता कर दिया और इलाज महँगा।

ND
दाल, चावल, सब्जी, चीनी की बात इसलिए नहीं की क्योंकि जनता खुद समझदार है। कैसे भी करेगी लेकिन गुजर-बसर कर ही लेगी।

प्रणव दा के बजट से सबसे ज्यादा व्यथित हैं आर्थिक बुद्धिजीवी। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि बजट पर क्या कहें और क्या लिखें। बेचारों को साल में एक बार तो मौका मिलता है अपने आर्थिक दिमाग को जनता के समक्ष प्रदर्शित करने का मगर इस बार तो...।

आर्थिक बुद्धिजीवियों को गहरा अफसोस है इस दफा 'विश्लेषणात्मक कलमों' के न टूट पाने का। प्रणव दा स्वयं अर्थशास्त्री हैं। उन्हें समझना चाहिए था आर्थिक बुद्धिजीवियों के इस दर्द को।

ND
लगभग कुछ ऐसी ही स्थिति सेंसेक्स महाराज की रही। दो-तीन घोषणाओं पर उसका गुब्बारा कुछ फूला जरूर मगर जल्द ही फुस्स भी हो गया। निवेशक गहरी निराशा में डूब गए और 'दलाल' दलाल पथ से ही गायब हो लिए।

गरीबों की तो बात ही छोड़ दें। उन्हें जो मिला सिर्फ आँकड़ों में मिला। ये आँकड़े केवल किताबों में दर्ज करने के लिए हैं, उपयोग में लाने के लिए नहीं। हाँ, गरीबों को दिखाने के लिए आँकड़ों की उपयोगिता सरकारी विज्ञापनों में जरूर देखने को मिल जाएगी। सभी देख रहे हैं कि भारत का निर्माण कैसे और कितना हो रहा है।

अब बेचारे प्रणव दा करते भी क्या? तमाम मजबूरियाँ उनके भी समक्ष थीं। उन्हें भी प्रधानमंत्री की मानिंद गठबंधन धर्म निभाना था। बजट के बहाने गठबंधन धर्म पर कहीं कोई आँच न आए जाए, इससे भी बचना था। गठबंधन के हित पहले हैं, जनता के हित बाद में।

उधर ममता दी तो प्रणव दा से भी दो कदम आगे निकलीं। उन्होंने गठबंधन धर्म को न निभाकर, चुनावी धर्म निभाया। सारा का सारा बजट पश्चिम बंगाल के नाम कर दिया। पश्चिम बंगाल के वामपंथियों के लिए खतरनाक संकेत अभी से दे दिए।

वेबदुनिया पर पढ़ें