जातिवाद, सांप्रदायिकता पर भी चोट करती है 'मधुशाला'
हिन्दी के सुविख्यात कवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन को आमतौर पर लोग सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के पिता के अलावा जिस बात के लिए जानते थे, वह थी उनकी सदाबहार कृति 'मधुशाला'।
वर्ष 1935 में लिखी गई इस कविता ने न सिर्फ काव्य जगत में एक नया आयाम स्थापित किया वरन यह आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ी है। डॉ. बच्चन ने सरल लेकिन चुभते शब्दों में सांप्रदायिकता, जातिवाद और व्यवस्था के खिलाफ फटकार लगाई है।
शराब को 'जीवन' की उपमा देकर डॉ. बच्चन ने 'मधुशाला' के माध्यम से एकजुटता की सीख दी। कभी उन्होंने हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ती कटुता पर कहा- मुसलमान और हिन्दू हैं दो, एक मगर उनका प्याला, एक मगर उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मंदिर-मस्जिद में जाते मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला।
जातिवाद पर करारी चोट करते हुए उन्होंने लिखा- कभी नहीं सुन पड़ता, इसने, हां छू दी मेरी हाला, कभी नहीं कोई कहता- उसने, जूठा कर डाला प्याला, सभी जाति के लोग बैठकर साथ यहीं पर पीते हैं, सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला।
जीवन की कठिनाई भरी डगर में भटकने वाले लोगों को उन्होंने यह कहकर रास्ता बताया- मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, किस पथ से जाऊं, असमंजस में है भोला-भाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूं, राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला
डॉ. बच्चन ने यह भी कहा- चलने ही चलने में कितना जीनव हाय बिता डाला, दूर अभी है, पर कहता है हर पथ बतलाने वाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरूँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।
धार्मिक कट्टरवाद से उबरने के लिए उनकी सीख थी- धर्मग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मस्जिद, गिरजे सबको तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।
मयखाने को सर्वधर्म समभाव का स्थान बताते हुए उनकी टिप्पणी थी- एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाजी, जलते दीपों की माला, दुनियावालों किंतु किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन में होली रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला।