आज एक बीमारी जो चारों ओर फैली नजर आती है वह है आत्ममुग्धता। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त यह रोग कहीं प्रतिभाओं के रूप में नजर आता है तो कहीं युद्ध के रूप में। यह रोग जिसे हो जाए, उसे तो ले डूबता ही है, अन्य लोगों को भी कई स्तरों पर भारी हानि पहुँचा जाता है।
एक जमाने के सफल व्यवसायी सिद्धार्थ इन दिनों बेहद परेशान हैं। एक दशक पहले तक वे अच्छा मुनाफा कमा रहे थे और कारोबार लगातार बढ़त पर था। पिता के निधन के बाद उन्होंने पुश्तैनी व्यवसाय के अलावा इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाने की फैक्टरी लगाई। वे अपना पूरा समय नए काम को देने लगे। नया काम तो सुधरा नहीं, पुराना काम भी मुश्किल में फँसता चला गया और अंत में हाथ लगा नुकसान।
हर स्तर पर घाटे से उनका धैर्य जवाब देने लगा जिससे वे नशे के दलदल में फँसते चले गए। उन्हें अब नुकसान की भरपाई संभव नहीं लगती। फिर भी वे न तो वजह समझने की कोशिश कर रहे हैं और न उससे उबरने का ईमानदार प्रयास ही।
यह स्थिति केवल उद्योगपति या व्यापारी की ही नहीं, किसी की भी हो सकती है। नौकरीपेशा व्यक्ति, प्रोफेशनल्स शोधकर्ता और यहाँ तक कि बाहरी दुनिया से मुक्त घर बैठे लोगों की भी। जानकारों की मानें तो सिद्धार्थ की यह दशा चापलूसों के कारण हुई। नई फैक्टरी के मुलाजिमों को यह समझते देर नहीं लगी कि साहब को सिर्फ हाँ में हाँ मिलाने वाले लोग चाहिए।
इसीलिए वहाँ जल्दी ही खुशामद करने वालों की भीड़ जुट गई। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि सिद्धार्थ अपनी धारणा के विरुद्ध कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं होते थे। दोयम दर्जे के चालाक लोगों ने इसका पूरा फायदा उठाया और समझदार प्रोफेशनल्स उनसे दूर होते चले गए। आखिरकार उनके हिस्से में आया घाटे, कर्ज और देनदारी का दलदल।
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शौक नहीं, रोग है 'यस बॉस' उन्हें वही लोग पसंद थे, जो उनकी हर सोच को सर्वोच्च कहें और हर बात पर 'यस बॉस।' नतीजा चाहे कुछ भी हो, अपनी प्रशंसा सुनना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। एक सीमा के भीतर यह प्रेरक का काम करती है, पर इसके बाद जहर बन जाती है। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो चापलूसी पसंद करना कोई शौक नहीं, यह एक रोग है।
मनोविज्ञान में इसे 'नार्सीसिज्म' कहते हैं जिसे हम 'आत्ममुग्धता' कह सकते हैं। इसकी अति व्यक्ति और परिवार से लेकर समाज तक की तबाही का कारण बन सकती है। दूसरे विश्वयुद्ध के लिए आज तक हिटलर की आत्ममुग्धता को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि इसका शिकार एक मामूली शख्स आत्महत्या के लिए विवश हो सकता है।
ऐसे समझें नार्सीसिज्म को 'मेलिग्नेंट सेल्फ लव : नार्सीसिज्म रीविजिटेड' के लेखक सेम वेक्निन के अनुसार यह रोग आसानी से समझ में आने वाला नहीं होता। लंबे समय तक तो ऐसा लगता है कि यह एक सामान्य बात है। अगर छोटे बच्चे इसके शिकार हों तो वे बहुत जिद्दी दिखाई देते हैं। वैसे इसके शिकार होने की आशंका आमतौर पर किशोरावस्था या युवावस्था में ज्यादा होती है। इसे आप इस तरह पहचान सकते हैं-
क्या आप हैं आत्ममुग्ध? * आत्ममुग्ध लोग अपनी आलोचना बिलकुल नहीं बर्दाश्त कर सकते। मामूली आलोचना से भी वे बुरी तरह नाराज हो सकते हैं और मारपीट तक पर उतर सकते हैं।
*दूसरों से ये समानता के संबंध नहीं बनाते, सिर्फ उनका इस्तेमाल करते हैं।
* अपना महत्व बढ़ा-चढ़ाकर बताने और दिखाने की कोशिश करते हैं।
* अपनी बौद्धिक क्षमता, समझ, सुंदरता, अधिकारों व उपलब्धियों को भी लेकर निराधार कल्पनाएँ करते रहते हैं तथा उन कल्पनाओं को ही सच मानते हैं।
*हर जगह अतिविशिष्ट व्यक्ति जैसा सम्मान चाहते हैं।
*बहुत छोटी-छोटी बातों से ही वे ईर्ष्या के शिकार होने लगते हैं।
*हर कार्य का श्रेय खुद लेने का प्रयास करते हैं।
* निजी संबंधों के मामले में वे भावनात्मक शोषण करने वाले होते हैं।
*समानता के ख्याल से भी डरते हैं। दूसरों की तुलना में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बेवजह शेखी बघारते हैं।
*हर बात पर अड़ियल रवैया दिखाते हैं और मामूली बात पर भी नाराज हो जाते हैं।
दुनिया से संपर्क का नतीजा! अपने बहुचर्चित निबंध 'ऑन नार्सीसिज्म : एन इन्ट्रोडक्शन' में सिग्मंड फ्रायड इसे दो रूपों में देखते हैं : प्रायमरी और सेकंडरी नार्सीसिज्म। उनका मानना है कि यह आत्मरक्षा की प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यह अपना अस्तित्व बनाए रखने की हमारी चाह और ऊर्जा को अभिव्यक्त करता है।
फ्रायड के अनुसार हम एक व्यक्ति के रूप में अपने होने के बोध या अहंकार के साथ नहीं जन्मे हैं। अहंकार समय के साथ-साथ हम में भरता जाता है। यह बाहरी दुनिया से हमारे संपर्क के प्रभाव से आता है। व्यक्ति अपनी तुलना अपने परिवेश की चीजों से करने लगता है। प्राथमिक स्तर पर यह स्थिति होती है। तुलना की यह प्रक्रिया जब बहुत बढ़ जाती है तो व्यक्ति कई स्थितियों में स्वयं को हीन महसूस करता है और वह एक अति की ओर बढ़ता है। यह अति ही सेकंडरी नार्सीसिज्म है।
जब कोई स्वयं को किसी की तुलना में हीन समझता है तो वह या तो समाज से बचने लगता है या आडंबर ओढ़ लेता है। जब उसे लगता है कि उसकी असलियत जाहिर हो सकती है तो वह रक्षात्मक हो जाता है। यदि शक्तिसंपन्न हुआ तो रक्षा का यह तरीका डाँट-फटकार और कमजोर हुआ तो उलाहनों, रोने व नकारात्मक सोच के रूप में सामने आता है। एक और उपाय भी लोग अपनाते हैं रक्षा कवच बनाने का। खुशामदी लोग रक्षा कवच का ही काम करते हैं।
अगर इस स्थिति पर शुरुआती दौर में ही गौर कर लिया जाए तो इससे उबरना आसान हो जाता है। हालाँकि आमतौर पर आत्ममुग्ध व्यक्ति खुद को असहज मानने को तैयार नहीं होता, पर अगर लक्षणों पर तटस्थ भाव से गौर किया जाए तो इसे समझा जा सकता है और इस तरह इसे बढ़ने से तो रोका ही जा सकता है।
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उपाय बचने के अगर आप इन आदतों के शिकार हैं तो स्वयं का समय रहते मूल्यांकन करें। अपनी कमियों और कमजोरियों पर भी बराबर नजर रखें। अपने सच्चे मित्र बनाएँ। कुंठा और अति आत्मविश्वास से बचने का उपाय है खुद को रचनात्मक कार्यों में लगाएँ। हमेशा सहज और संतुलित बने रहें। सफलता का जश्न मनाएँ मगर सफलता को सिर पर ना चढ़ने दें। अपनी तुलना कभी किसी से ना करें।
याद रखें कि अपनी तरह के आप अकेले व्यक्ति हैं मगर दूसरों की अपनी खूबियाँ हैं। दूसरों की अच्छी बातों की प्रशंसा करना शुरू करें ताकि आपका मन उदारता के मायने समझ सकें। ईर्ष्या जब भी सिर उठाए उसी वक्त अपने आपको संभालें और किसी दूसरे विषय पर सोचना आरंभ कर दें।