सामाजिक प्रतिबद्धताओं से सजा व्यंग्य संग्रह : शोरूम में जननायक
अनूप मणि त्रिपाठी का पहला व्यंग्य संग्रह “शोरूम में जननायक” में लगभग तीन दर्जन व्यंग्य है। व्यंग्य संग्रह में भूमिका नहीं है, सुधी पाठक इससे अंदाज लगा सकते हैं कि नव लेखन के सामने आने वाली चुनौतियां कम नहीं होती। पुस्तक में भूमिका का न होना एक तरह अच्छा ही हुआ है। अब पाठक अपनी स्वतंत्र सोच से पुस्तक पढ़ने का साहस जुटा सकते हैं। क्योंकि देखा जाता है यदि पुस्तक में किसी बड़े लेखक की भूमिका हो तो पुस्तक पर नए सिरे से सोचना किसी वैचारिक संघर्ष से कम नहीं होता है।
शोरूम में जननायक एक मुकम्मल व्यंग्य संग्रह है। इस संग्रह में कई व्यंग्य ऐसे हैं जो साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न गतिविधियों, आयोजकों, लेखकों की अराजकताओं और पुरस्कार राजनीति का चरित्र चित्रण बखूबी हुआ है। इस विषय में न जाने कितना लिखा गया है और न जाने कितना लिखा जाएगा। लेकिन लेखक पुरस्कार के मुख्य कारणों को चिन्हित करने में सफल होता है और अपने पहले ही व्यंग्य में लेखकों के मुगालते को ठेस पहुंचता है। पुरस्कार सम्मान हेतु नहीं दिया जाता बल्कि सरकारें अपनी सत्ता को बरकरार रखने वाला पुरस्कारी हथियार है।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि एक व्यंग्य के बाद आने वाला व्यंग्य उसकी अगली कड़ी में लिखा गया हो, लेकिन अपनी कथा शिल्प, शैली, विचार और दृष्टिकोण और विषय की विविधता और प्रयोग ने अधिकतर व्यंग्यों अलग और पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं।
सभी व्यंग्य, व्यंग्य व्यवस्था के आधार पर सीधे हमला नहीं करते। बल्कि व्यवस्था की अधिरचना को व्यंग्य की कुदाल से खोदते नजर आते हैं, जैसे दूसरा व्यंग्य इशारा करता है कि सत्ता का कारगर हथियार आयोग है, ताकि समाज में सत्ता के खिलाफ उठती आवाजों को आयोग नमक सरकारी जादू से हर मर्ज की दवा की तरह प्रयोग किया जा सके। इससे जब चाहों, जहां चाहो, लगा दो। सरकारें कोई भी हो।
इस संग्रह का एक उम्दा व्यंग्य है 'कबीर, मुनादी और बिल्ली' जो कई परतों में ढला है, इस व्यंग्य पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। इस व्यंग्य का एक पात्र आधुनिक कबीर निकल पड़ता है दुनिया बदलने, जो पहल करता है, समाज को बदलने के लिए लोगों से आवाहन करता है - "जो घर फूंके अपना चले हमारे साथ". कबीर के साथ कोई लालच में आता है तो कोई मजबूरी में। यह व्यंग्य नयी जमीन की पुख्ता पहचान करने में सफल हुआ है। यही कारण कि वर्तमान व्यवस्था के आधुनिक कबीर की जगह जेल में मुफीद दिखाई देती है। यह आधुनिक कबीर का सच है। यह आधुनिक व्यवस्था का सच है।
सच इतना कड़वा होता है कि विकास की आंधी को रोक देता है। व्यवस्था की आंखों में तथ्यों और कथ्यों में फर्क बता देता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले बिजली को धर्म में बांटकर राजनीतिक मंचों पर खूब उछाला गया, लेकिन "आजाद रोशनी का बंधक सफ़र" व्यंग्य लहजा, प्रस्तुतीकरण और दृष्टि से जमुहिरियत को आजादी का असली अर्थ 'किसकी आजादी और कोन आजाद हुआ' का भेद करा देता है। रोशनी तो गरीब अमीर में बटती है, पहले अमीरों का घर उजियारा होता है फिर गरीब तक पहुंचेगी। यही नजरिया लेखक को एक अलग स्थान सुनिश्चित करता हुआ सामाजिक प्रतिबद्धताओं वाले व्यंग्य लेखन की परंपरा का विकास करता है।
'अयोध्या की रामकहानी' पूरे देश की कहानी जैसी ही है। व्यंग्य दिखता है कि यदि भगवान् देश के किसी भी कोने में चले जाएं, तो आज भी वही स्थिति देखने को मिलेंगी- बिजली, सड़क, महंगाई, नशा, पुलिस, सत्तापक्ष, विपक्ष, नाले में बदलती नदी नहरें, और चिकित्सा व्यवस्था की दुर्गति और कमाल की बात यह कि उन्हें देखकर भगवान भी अपाहिज नजर आते है।
लेखक 'एक अदद आत्मा की खोज में’ यमलोक से यमराज को भी लगा देता है कि जाओ 'एक अदद आत्मा को खोज करके लाओ। यमराज भी डॉक्टर, पुलिस, वकील को ले जा नहीं सका यम लोक। क्योंकि इस व्यवस्था में ऐसे लोग इतना समायोजित हो चुके कि आपने जीते जी लोगों को मारते हैं और इनके अभाव में भी लोगों की बलि चढ़ जाएगी। न भगवान में कोई चमत्कार रहा न ही यमराज अपना होमवर्क पूरा करके आता है।
1990 के बाद देश की आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था में बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को मिला है। कोई इसको आधुनिक विकास की नजरों से देखता है तो कोई इसको विनाश की नजरों से देखता है। लेकिन अनूप मणि के व्यंग्यों का अपना एक नजरिया है। देश एक खेत है जिसे चरा जा सकता है, जिसे चरा जा रहा है, बस चरने की काबिलियत होनी चाहिए। चरने वालों के लिए गर्मी सर्दी सुखा, बरसात, महामारी यह सब लहलहाती फासले है जो सरकारों की कार्य शैली को बया करती है. सरकारें हरकत में तभी आती जब उनकी प्रेरणा में या तो त्रासदी हो या धन की वर्षा होने की ज्यादा संभावना हो। चाहे विकास के नाम पर हो या गरीब के नाम पर। लेखक का मत साफ है कि करप्शन के दौर में गारंटी की इच्छा न करे।
शोरुम में जननायक, अखबारों की सुर्खियां, डांडी भाई, बड़ी प्रगति की हमने, आत्म मंथन बनाम आत्मा मंथन, नीर का पीर, कभी मिले तो पूछियेगा जैसे व्यंग्य अपनी विविधता का अहसास कराते हैं। व्यंग्य संग्रह की खूबी इसमें निहित है कि प्रत्येक व्यंग्य अपने शिल्प-सजा और कथन से अलग है।
लेखक व्यंग्य संग्रह में घोषणा करता है कि यह भोगा हुआ यथार्थ है जिसे आपको भोगना है, भोगे हुए यथार्थ को रूपक और मिथकों की आंखों से समाज को देखने जो प्रयास किया गया है। लेखक रचनात्मक स्तर पर सफल होता दिखाई देता है। व्यंग्य संग्रह की विविधता और प्रयोग के कारण ही वैचारिक दृष्टिकोण की मुखरता के साथ साथ पक्षधरता की मांग भी बढ़ जाती है। जिसको पूरा करने के लिए लेखक को चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी के रूप में लेना पड़ेगा।
अनुभाविक कसौटियों वाली विसंगतियों पर ज्यादा काम किया गया है। यही लेखक की ताकत भी है और कमजोरी भी। अनूप मणि के व्यंग्य को पढ़कर लगा कि वे व्यंग्य के खिलाड़ी नहीं है बल्कि एक शिल्पकार है। उनके के पास सशक्त भाषा, शिल्प, शब्दों का चुनाव, नए शब्दों को गढ़ने की कला और सबसे बड़ी बात कि उनका समुचित और बेहतर प्रयोग कर सकते है। अनूप मणि त्रिपाठी उम्मीद जागते हैं। आने वाले समय में वे व्यवस्था की अधिरचना के साथ साथ आधार पर भी तीखा हमला करेंगे। अनूप मणि का संग्रह व्यंग्य विरासत में एक दखल की तरह पढ़ा जाना चाहिए, जो व्यंग्य परम्परा को आगे ले जाने की उम्मीद जगाता है।