कोरोना और कतरा-कतरा खर्च होती जिंदगी

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- ऋतु मिश्र

ये जो बारिश है मेरे आंगन में टपकती हुई, कानों में संगीत घोलती। मेरे हिस्से के आसमान से मेरे आंगन में रोशनी फैलाती धूप। चौगान सजाते महकाते रंगबिरंगे फूल। कुछ कविताएं, कहानियां, अदरक वाली चाय के साथ हर वक्त साथ होने की राहत देते दो जोड़ा पांव। फिल्म के किसी शॉट जैसी लगती ये जिंदगी अचानक झकझोरकर आपको उठा देती है जब आप ये जानते हो कि चाय के जिस स्वाद की आप किताबों भर व्याख्या कर सकते हो उस चाय का स्वाद चखने तक के पैसे कोई इंसान नहीं जुटा पा रहा है।
 
 
कितना अंतर है हममें, उनमें और उनमें। पैसा और सुविधाओं के पीछे भागते हम, बेवजह मोबाइल पर स्क्रोल करते हुए बिना जरूरत के चीजें आर्डर करते हुए हम, इस संकट के समय भी सारी सावधानियों को धता बताते हुए समोसा, मिठाई, केक और आइस्क्रीम खाते हुए फोटो फॉरवर्ड करते हुए हम लोग। हर रोज सुबह नई-नई रेसिपीज को साझा करते हुए हम लोग। क्या एक बार भी हमारे दिमाग में नहीं आता कहीं, कभी कोई तो इन पोस्ट को देखता होगा जिनके लिए ये सबकुछ सिर्फ सपना है।
 
पता नहीं ये इंसान की फितरत है या कहीं हमारे भीतर खत्म होती संवेदनाएं। याद आता है मुझे लॉकडाउन के दौरान फोन पर या घर के बाहर किस्से सुनाते लोग जो कहीं से सब्ज़ी, ब्रेड चीज, बटर ले आने पर अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते नहीं अघाते रहे।
 
याद है मुझे श्रीमाया पर ब्रेड और सारा बेकरी आयटम मिलने की सूचना कहां-कहां से नहीं आई मेरे पास। जैसे हर बताने वाला अपना नाम मेरी गुड लिस्ट में जुड़वाना चाह रहा था।
 
 
अब भी वही क्रम बरकरार है। चाहे बात घर परिवार की हो कॉलोनी की या समाज की। खुद से इतर सोचना जैसे हमें अपराध लगता है। शायद हम सभी ये मानकर चलते हैं बुरा वक्त, बुरे लोग और सारी बदनीयति हमें छोड़कर बाकि दुनिया के लिए बनी है।
 
राजनीति, व्यापार और समाज के लिए ये कोरोना काल भले ही अपनी रोटी सेंकने का वक्त बनकर आया हो लेकिन हर बार मेरे जेहन में यही बात आती रही है कि जब इस विपत्ति का कहर हमारे आसपास के लोगों, हमारी समाज पर पड़ेगा उस वक्त खुद को संभाल पाना बहुत मुश्किल होगा।
 
 
आज सुबह दो इसी तरह की खबरों ने हिला कर रख दिया। घर में आय का साधन नहीं हो पाने के कारण की गई आत्महत्या और एक साधारण सी बीमारी में अस्पताल में जगह न मिल पाने के कारण दर्द ना सह पाने से की गई आत्महत्या। वजह कुछ भी हो बस एक टीस मन में उठती है हम भावनाओं को महसूस करने वाली सीढ़ी के अंतिम पायदान पर खड़े हैं, जहां आत्महत्या करने वाले को ये पता होता है कि मेरा होना या ना होना किसी के लिए दुख का कारण नहीं है। मेरे होने या ना होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

एक ऐेसा शहर जहां आपके दुख बांटने वाला कोई नहीं, आपको समझने वाला कोई नहीं। जहां खुद में, उनमें और उनमें फर्क समझने के लिए एक हुजूम तैयार है पर आंखें से झरते आंसू और दिल में उठती हूक को समझने वाला कोई नहीं। 
 
आज उस अनजान, जोड़े के लिए मन खराब है। लगता है एक लंबे साथ के कितने सपनों ने एक साथ दम तोड़ा। लगता है उन बच्चों के मस्तिष्क से अपने बचपन की वो सारी रंगीन यादें एक पल में खत्म हो गईं और जीवनभर खुद को कोसने के अलावा कुछ नहीं बचा। कतरा-कतरा खर्च होती इस जिंदगी में काश हम किसी के आंसू पोछने का जरिया बनें। ईश्वर ना करे कल को कहीं अपने आसपास से इस तरह की खबर आए।
 
आमीन।

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