आदिवासी क्षेत्रों का सांस्कृतिक पर्व : भगोरिया

संजय वर्मा "दृष्टि "
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में भगोरिया पर्व आते ही वासंती छटा मन को मोह लेती है। वहीं इस पर्व की पूर्व तैयारी ढोल, बांसुरी की मिश्री सी मिठास कानों में घोल देती है और उमंगो में एक नई ऊर्जा भरती है। व्यापारी अपने-अपने तरीके से खाने की चीजें- गुड़ की जलेबी, भजिये, खारिये (सेंव), पान, कुल्फी, केले, ताड़ी बेचते, साथ ही झूले वाले, गोदना(टैटू) वाले अपने व्यवसाय करने मे जुट जाते हैं। जीप, छोटे ट्रक, दुपहिया वाहन, बैलगाड़ी पर दूरस्थ गांव के रहने वाले लोग इस हाट (विशेषकर पूर्व से निर्धारित लगने वाले भगोरिया) में सज-धज के जाते हैं। कई नौजवान युवक-युवतियां झुंड बनाकर पैदल भी जाते हैं। 
 
ताड़ी के पेड़ पर लटकी मटकियां, जिसमें ताड़ी एकत्रित की जाती है, बेहद खूबसूरत नजर आती है। खजूर, आम आदि के हरे भरे पेड़ ऐसे लगते हैं, मानों भगोरिया में जाने वालों का अभिवादन कर रहे हो। फाल्गुन माह में आम के वृक्षों पर नए मोर और पहाड़ों पर खिले टेसू का ऐसा सुंदर नजारा होता है, जैसे प्रकृति ने अपना अनमोल खजाना खोल दिया हो । 
 
भगोरिया पर्व का बड़े-बूढ़े सभी आनंद लेते हैं। भगोरिया हाट में प्रशासन व्यवस्था भी रहती है। हाट में जगह-जगह भगोरिया नृत्य में ढोल की थाप से धुन - "धिचांग पोई पोई.." जैसी ध्वनि सुनाई देती और बांसुरी, घुंघरुओं की ध्वनियां, दृश्य में एक चुंबकीय माहौल पैदा करती हैं। बड़ा ढोल विशेष रूप से तैयार किया जाता है,  जिसमें एक तरफ आटा लगाया जाता है। ढोल वजन में काफी भारी और बड़ा होता है। जिसे इसे बजाने मे महारत हासिल हो वही नृत्य घेरे के मध्य में खड़ा होकर इसे बजाता है।

एक से रंग की वेश भूषा, नख से शिख तक पहने जाने वाले चांदी के आभूषण, पावों में घुंघरू, हाथों में रंगीन रुमाल लिए गोल घेरा बनाकर मांदल व ढोल, बांसुरी की धुन पर बेहद सुंदर नृत्य करते हैं। प्रकृति, संस्कृति, उमंग, उत्साह से भरा नृत्य का मिश्रण, भगोरिया की गरिमा में वासंती छटा का ऐसा रंग भरता है, कि‍ देश ही नहीं अपितु विदेशों से भी इस पर्व को देखने विदेशी लोग कई क्षेत्रों में आते हैं। इनके रहने और ठहरने के लिए प्रशासन द्वारा केम्प की व्यवस्था भी की जाने लगी है। 

लोक संस्कृति के पारंपरिक लोकगीतों से माहौल में लोक संस्कृति का एक बेहतर वातावरण बनता जाता है साथ ही प्रकृति और संस्कृति का संगम हरे-भरे पेड़ों से निखर जाता है। कई क्षेत्रों में जंगलों के कम होने व गांवों के विस्तृत होने से कम्पाउंड के अंदर ही नृत्य करवा कर भगोरिया पर्व मनाया जाने लगा है। भगोरिया नृत्य टीम को सम्मानित किया जाता है। दि‍ल्ली में राष्ट्रीय पर्व पर भगोरिया पर्व की झांकी भी निकाली जाती है। 
 
भगोरिया पर्व पर उपयुक्त स्थान में व्यापारियों द्वारा ज्यादा से ज्यादा संख्या में खाने पीने की चीजों की दुकान लगाना, छांव की बेहतर व्यवस्था, पीने के पानी की सुविधा, झूले आदि की अनिवार्यता होनी चाहिए, ताकि मनोरंजन के साथ लोक संस्कृति का आनंद सभी ले सकें। झाबुआ, आलीराजपुर, धार, खरगोन आदि जिलों के गांवों में भगोरिया पर्व लोकगीतों एवं नृत्य से अपनी लोक संस्कृति को विलुप्त होने से बचाते आ रहे हैं, इसका हमें गर्व है ।

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