वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी की पोस्ट फेसबुक पर पढ़ी कि क्या धर्म और मजहब ही विश्व अशांति का कारण है बहुत गहन सोचा ओर फिर अपना दृष्टिकोण बनाया यह आलेख उसी का विश्लेषण हैं।
यह एक गहरा और संवेदनशील प्रश्न है कि क्या विश्व की वर्तमान अशांत स्थिति के लिए धर्म या मज़हब ज़िम्मेदार हैं, और क्या इनके न होने से दुनिया एक बेहतर स्थान बन सकती है। सतही तौर पर देखने पर, इतिहास और वर्तमान दोनों ही हमें ऐसे अनेक उदाहरण देते हैं जहां धर्म के नाम पर हिंसा, युद्ध और घृणा फैलाई गई है। धर्म के झंडे तले हुए नरसंहार, विभाजन और वैमनस्य किसी से छिपे नहीं हैं। लेकिन, क्या धर्म वास्तव में मूल कारण है, या वह किसी गहरी, अधिक कपटी मानवीय प्रवृत्ति का एक औजार मात्र है?
मेरा मानना है कि विश्व की वर्तमान हालत के ज़िम्मेदार धर्म या मज़हब नहीं, बल्कि मनुष्य की स्वयं को एक व्यक्ति या एक राष्ट्र के रूप में श्रेष्ठ सिद्ध करने की लालसा और उससे उपजा अहंकार है। धर्म केवल इस लालसा और अहंकार को व्यक्त करने का एक शक्तिशाली माध्यम बन जाता है, एक बहाना बन जाता है।
धर्म: एक शक्ति या एक मुखौटा? धर्म मूल रूप से मानव को नैतिक मूल्यों, आध्यात्मिक शांति और समुदाय की भावना प्रदान करने के लिए अस्तित्व में आए। अधिकांश धर्म प्रेम, करुणा, क्षमा, सहिष्णुता और सेवा जैसे सार्वभौमिक सिद्धांतों की वकालत करते हैं। चाहे वह हिंदू धर्म का 'वसुधैव कुटुंबकम्' हो, ईसाई धर्म का 'पड़ोसी से प्रेम करो' हो, इस्लाम का 'भाईचारा' हो, या बौद्ध धर्म का 'अहिंसा' हो, सभी मूलतः शांति और सद्भाव की बात करते हैं।
तो फिर समस्या कहां है? समस्या तब शुरू होती है जब धर्म एक पहचान बन जाता है। जब लोग अपने धार्मिक विश्वासों को अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहचान मानते हैं और यह मानने लगते हैं कि उनका धर्म ही एकमात्र सत्य है, या दूसरों से श्रेष्ठ है। यह 'हम' बनाम 'वे' की भावना को जन्म देता है, जहाँ 'हमारा' पवित्र है और 'उनका' भ्रष्ट।
यह धार्मिक पहचान की अतिरंजित भावना ही लालसा और अहंकार का पोषण करती है:
श्रेष्ठता की लालसा: प्रत्येक व्यक्ति या समूह में स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ होने की इच्छा होती है। जब यह इच्छा धर्म से जुड़ जाती है, तो यह 'मेरा धर्म सबसे श्रेष्ठ' की धारणा में बदल जाती है। यह धारणा दूसरों के धर्मों को नीचा दिखाने और उन्हें परिवर्तित करने या नष्ट करने की इच्छा को जन्म दे सकती है।
पहचान का अहंकार: धर्म अक्सर एक मजबूत सामूहिक पहचान प्रदान करता है। यह पहचान जब अहंकार में बदल जाती है, तो समूह अपने हितों को दूसरों के हितों से ऊपर रखने लगता है, और अपने धार्मिक प्रतीकों, रीति-रिवाजों और पवित्र ग्रंथों को श्रेष्ठता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। इस अहंकार के कारण संवाद बंद हो जाता है और असहमति शत्रुता में बदल जाती है।
राष्ट्रवाद और व्यक्तिगत अहंकार: धर्म से परे के कारण
यह तर्क केवल धर्म तक ही सीमित नहीं है। यही प्रवृत्ति राष्ट्रवाद के मामले में भी उतनी ही प्रबलता से दिखाई देती है। जब राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीय पहचान की भावना से बढ़कर अति-राष्ट्रवाद (Chauvinism) में बदल जाता है, तो यह 'मेरा राष्ट्र सबसे महान है' और 'दूसरे राष्ट्रों को दबाना चाहिए' जैसी सोच को जन्म देता है। इतिहास गवाह है कि दो विश्व युद्धों और अनगिनत क्षेत्रीय संघर्षों के पीछे धार्मिक कारण कम और राष्ट्रीय अहंकार तथा संसाधनों पर नियंत्रण की लालसा अधिक थी।
व्यक्तिगत स्तर पर भी, यह अहंकार ही है जो संघर्षों को जन्म देता है। जब व्यक्ति अपनी राय, अपनी मान्यताओं या अपनी जीवनशैली को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है, तो वह दूसरों को नीचा दिखाने, उन्हें नियंत्रित करने या उनके विचारों को दबाने का प्रयास करता है। यह पारिवारिक झगड़ों से लेकर बड़ी कॉरपोरेट प्रतिद्वंद्विता तक, हर जगह मौजूद है।
संक्षेप में:
समस्या धर्म में नहीं, बल्कि उसके दुरुपयोग में है।
समस्या मनुष्य की उस मूल प्रवृत्ति में है जो उसे स्वयं को या अपने समूह को दूसरों से बेहतर साबित करने के लिए उकसाती है।
क्या धर्म का अभाव समाधान है? यदि हम धर्म को पूरी तरह से समाप्त कर दें, तो क्या विश्व रहने लायक बन जाएगा? यह एक आदर्शवादी लेकिन अवास्तविक धारणा है। यदि धर्म नहीं होगा, तो मनुष्य की श्रेष्ठता साबित करने की लालसा और अहंकार किसी और पहचान को अपना लेगा। वह पहचान जातीयता हो सकती है, नस्ल हो सकती है, राजनीतिक विचारधारा हो सकती है, आर्थिक स्थिति हो सकती है, या यहां तक कि किसी खेल टीम का समर्थन भी हो सकता है।
सोवियत संघ और नाज़ी जर्मनी जैसे इतिहास के उदाहरण हमें दिखाते हैं कि धर्म के अभाव में भी विचारधाराओं के नाम पर कैसे भयावह युद्ध और नरसंहार हुए। वहां ईश्वर की जगह विचारधारा को 'सर्वोच्च सत्य' मान लिया गया और उसके नाम पर करोड़ों लोगों का रक्त बहाया गया। इसलिए, धर्म का उन्मूलन समाधान नहीं है। यह सिर्फ एक पहचान को दूसरी पहचान से बदलना होगा, जबकि समस्या का मूल स्रोत- श्रेष्ठता की लालसा और अहंकार- बरकरार रहेगा।
वास्तविक समाधान: आत्म-जागरूकता और सहिष्णुता: विश्व को रहने लायक बनाने के लिए हमें धर्मों को नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि हमें मनुष्य के भीतर निहित उस अहंकार और लालसा को नियंत्रित करने की आवश्यकता है जो संघर्षों को जन्म देते हैं। इसका वास्तविक समाधान निम्नलिखित में निहित है:
आत्म-जागरूकता: प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर झांकना होगा और यह समझना होगा कि उसकी श्रेष्ठता की भावना और अहंकार ही संघर्षों का कारण बनते हैं।
सहिष्णुता और स्वीकृति: हमें यह स्वीकार करना सीखना होगा कि विभिन्न विचार, विभिन्न जीवनशैलियाँ और विभिन्न विश्वास प्रणाली अस्तित्व में हो सकती हैं, और वे सभी अपनी जगह सही हो सकती हैं। 'मेरा' ही एकमात्र सत्य है, इस धारणा को छोड़ना होगा।
संवाद और समझ: विभिन्न समूहों के बीच खुले और सम्मानजनक संवाद को बढ़ावा देना होगा, ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें और पूर्वाग्रहों को दूर कर सकें।
प्रेम और करुणा: धर्म के मूल सिद्धांतों, जैसे प्रेम, करुणा और सेवा को वास्तविक जीवन में अपनाना होगा, न कि केवल उन्हें सैद्धांतिक रूप से मानना।
शिक्षा: ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करनी होगी जो छात्रों को आलोचनात्मक सोच, सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सम्मान सिखाए।
अंततः, विश्व की वर्तमान अशांति का कारण धर्म या मज़हब नहीं हैं, बल्कि वे मानवीय कमजोरियां हैं जो किसी भी पहचान (चाहे वह धार्मिक हो, राष्ट्रीय हो या व्यक्तिगत) को अहंकार और वर्चस्व की भावना में बदल देती हैं। धर्म तो एक आईना मात्र है जो मनुष्य की इस प्रवृत्ति को दर्शाता है। यदि हम अपने भीतर के अहंकार और श्रेष्ठता की लालसा पर विजय प्राप्त कर लें, तो धर्म सह-अस्तित्व और शांति का एक शक्तिशाली साधन बन सकता है, जैसा कि उसके मूल सिद्धांतों में निहित है।
विश्व को रहने लायक बनाने के लिए हमें धर्मों को मिटाने की नहीं, बल्कि अपने दिलों से घृणा और अहंकार को मिटाने की आवश्यकता है। तभी हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहां विभिन्न आस्थाएं, संस्कृतियां और विचार सामंजस्यपूर्ण ढंग से साथ रह सकें।
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