केबी की मृत्यु के बाद मैं बेशर्म दिलचस्पी दिखाता हूं। हाय-हाय करता हुआ- इसी दुनिया की तरह।
आमतौर पर होता यही है- एक मामूली से मामूली आदमी की मौत के बाद लोग उसके कागजात में बेशर्म दिलचस्पी दिखाने लगते हैं
6 फरवरी की शाम को मैं भी पढ़ ली गई उन सारी किताबों को पूरी बेशर्मी और थोड़ी कातर नजरों से छू रहा था- यह जानने के लिए कि जैसे उन किताबों के लेखक की मौत के बाद उनमें लिखे गए वाक्य कुछ और चिल्ल पो तो नहीं करने लगे। कोई शब्द हाय-हाय तो नहीं कर रहा कहीं किसी पन्ने पर।
कहीं कुछ नहीं बदला था सिवाय इसके कि पूरी दुनिया उनकी मौत और उनकी किताबों में अब पूरी बेशर्म दिलचस्पी दिखा रही थी- जैसे मैं भी।
कृष्ण बलदेव वैद दुनिया को वैसा ही छोड़कर गए, जैसी वो है। हाय-हाय करती हुई। ऊब, उकताहट और सनक से भरी हुई। खतरों और ख्वाहिशों से भिड़ती दुनिया। अपनी उम्र के शबाब में भी निर्मम से निर्ममतम। उन्होंने न तो अपनी दुनिया और न ही दूसरों की दुनिया को बदलने की कोशिश की। उसे वैसे ही दर्ज किया, जैसी वो थी। बेहूदा जिंदगी।
एक टेबल है, लिखने की- उसके ऊपर रखे लैम्प के उजाले में एक ऊब धधक रही है। बोखलाहट और उकताहट की कालिख जमा है आसपास। बुढ़ापे की सनकें और वासनाएं बहकती हैं जहां। आशंकाओं से भरी दुपहरें और बीती हुई रातों के दु:स्वप्न। औरतों की बातें, प्रेमिकाओं की बातें। आस्था और आशंकाएं भी हैं। खतरे और ख्वाहिशें। जीवन का सुख- दु:ख। और उसके इर्द-गिर्द का अंधेरा-उजाला।
पहले कहना, फिर उसे गूंथना- लपेटना शब्द माया में, और फिर खुद ही उससे इनकार कर देना, खारिज कर देना। जैसे एक साथ पूरी दुनिया बातें कर रही हों, शोर मचा रही हों अपनी चुप्पी में। अपने अकेलेपन में।
उखड़ी हुई जिंदगी के इसी ढेर पर बैठकर कृष्ण बलदेव वैद लिखते रहे तमाम उम्र। इस हद तक कि खुद उनकी देह जिंदगी का सबसे बड़ा कोलाज- सा नजर आने लगी। नई भाषा का एक पूरा कबाड़। शब्दों का एक पूरा संसार, उस संसार का आलोक।
उनके लेखन का आलोक पूरे जीवन को रोशनी से भर देता हैं, जैसे निर्मल वर्मा के लेखन ने मेरी जिंदगी को अल्टर कर दिया।
इस तरह केबी की उंगलियों ने जो लिखा वो अध्यात्म का सबसे उजला चित्र हो गया -और अंतत: दर्शन का सबसे कड़वा घूंट बन गया।
एब्स्ट्रैक्ट होते हुए भी विजुअल्ज में सबसे ज्यादा दिखाई देने वाला मॉडर्न प्रोज। अपने अमूर्त में सबसे ज्यादा दृश्यों का आभास कराने वाला लेखन।
उनका नॉवेल। दूसरा न कोई- वो अपने बुढ़ापे में जी रहे हैं। कमरे में इंच-इंच सरकते हैं। बुढ़ापे की सनक। उसकी बेबसी की बात करते हैं बहुत डिटेल में। अपनी देह के एक-एक रेशे, त्वचा, झुर्रियों और हड्डियों की बात करते हैं। आसपास पसरी गंदगी और अपने भीतर से आने वाली बदबू की कहानी लिखते हैं। खराश की, खकार की नॉवेल। अपनी पेशाब पर कहानी लिखते हैं। बेबसी। अकेलापन। क्या राइटर है। मरकर लिखता है। मरते- मरते जीवन के आखिरी सिरे को देखते रहता है। शब्दों और भाषा को गर्म कर उन्हें दृश्य बना देना, आकार गढ देना। जिंदगी के बेहुदेपन का चित्र खिंच देना। अपनी हड्डियों और पसलियों को गलाकर लिखना। इंच-इंच सरकते हुए लिखना। दूसरा न कोई- अद्वेतवाद की सबसे निर्मम कहानी।
संयोग से मैं इन दो ही लेखक के इर्द-गिर्द भटकता रहा, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद। पहले निर्मल, फिर केबी। जब केबी की डायरी अब्र क्या चीज है, हवा क्या है में निर्मल के नाम के आसपास कहीं-कहीं बेरुखी सी नजर आई तो मेरे भीतर भी एक चोट, किसी घाव का निशान उभर आता है।
दो महान लेखक। एक कल्पना का रचनाकार। एक यथार्थ का वादी। निर्मल वो दुनिया रचते हैं, जो कहीं नहीं है। केबी ने वो दुनिया लिखी जैसी वो है।
क्या यही फर्क था निर्मल और केबी में। उनके जीवन और लेखन में। कल्पना और यथार्थ का अंतर। निर्मल उसी तरह गए जैसा वो चाहते थे- पीपल के पेड़ से धीमें से टूटकर पत्ते की तरह, लहराकर बगैर आवाज के बह गए। और उनका लेखन पीपल के पत्ते पर हरी पसलियों की तरह उभरता हुआ रह गया दुनिया में।
केबी ने दुनिया के पूरे आलम को तिल-तिल जिया, तिल-तिल भोगा। जैसा उन्होंने लिखा पूरा नंगा यथार्थ। आंखें धंस जाने की हद तक। जिंदगी का आखिरी जाम चाट जाने की हद तक।
मैं इन दो लेखकों की दूरी के बीच जलता-बुझता रहता हूं। अपने भीतर एक चोट, एक घाव के साथ।
केबी की मृत्यु के बाद मैं बेशर्म दिलचस्पी दिखाता हूं- उनके कागजात में। हाय-हाय करता हुआ- इसी दुनिया की तरह।