एक बार फिर हिंदी के ख्यात कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की डायरी का एक अंश और उससे प्रेरित पेंटिंग। इस अंश में भी अशोक जी ने नदी के पास बैठने के अनुभव को न केवल अपनी काव्यात्मक भाषा में अभिव्यक्त किया है बल्कि नदी से तुलना करते हुए कविता के बारे में अपनी विनम्र स्थापना भी व्यक्त की है। तो प्रस्तुत है श्री वाजपेयी की डायरी का अंश-नदी किनारे भी नदी है।
यहाँ पास में ही रोन नदी है। इस तरह वेलेनूव और दूसरी और आविन्यों। अभी नहीं, पर पिछले वर्ष हम बहुत देर तक उसके तट पर बैठे थे। अगर जलप्रवाह को एकटक देखते रहो तो तट पर बैठे तो कई बार लगता है कि जल स्थिर है और तट बह रहा है। नदी तट पर बैठना भी नदी के साथ बहना है।
कई बार नदी स्थिर होती है, हम तट पर बैठ बहते हैं। नदी के पास होना नदी होना है। विनोद कुमार शुक्ल अपनी एक कविता में नदी-चेहरा लोगों से मिलने जाने की बात कहते हैं। शायद सिर्फ नदी किनारे रहने वाले ही नदी चेहरा नहीं हो जाते, हम जो कभी-कभार और थोड़ी देर के लिए ही नदी किनारे जा बैठ पाते हैं हम भी कुछ देर के लिए ही सही, नदी-चेहरा हो जाते हैं।
नदी किसी को अनदेखा नहीं करती, वह सबको भिगोती है, अपने साथ करती है। थोड़ी सी देर के लिए भी गए नदी की बिरादरी में शामिल हो जाते हैं।
नदी के समान ही कविता सदियों से हमारे साथ रही है। उसमें न जाने कहाँ-कहाँ से जल आकर मिलते और विलीन होते रहते हैं, वह सागर में समाहित होती रहती है हर दिन ही, पर उसमें जल का टोटा नहीं पड़ता। कविता में भी न जाने कहाँ से कैसी कैसी बिम्बमालाएँ, शब्द भंगिमाएँ, जीवन छबियाँ और प्रतीतियाँ आकर मिलती हैं और तदाकार होती रहती हैं।
जैसे नदी जल-रिक्त नहीं होती, वैसे ही कविता शब्द रिक्त नहीं होती। न नदी के किनारे, न ही कविता के पास हम तटस्थ रह पाते हैं। अगर इस खुलेपन से गए हैं तो हम उसकी अभिभूति से बच नहीं सकते। नदी और कविता में हम बरबस ही शामिल हो जाते हैं।
जैसे हमारे चेहरों पर नदी की आभा आती है, वैसे ही हमारे चेहरों पर कविता की चमक। निरंतरता, नदी और कविता दोनों ने हमारी नश्वरता का अनंत से अभिषेक करती है।
एक कविता पंक्ति है- कैसी तुम नदी हो? उत्तर हो सकता है-जैसी तुम कविता हो।