चलत मुसाफिर मोह लिया रे: तीसरी कसम का मजाकिया और बेतकल्लुफ नजर आने वाला धमाल गीत | गीत गंगा

शनिवार, 14 अक्टूबर 2023 (07:05 IST)
शैलेन्द्र बिहार के थे। वहां के लोकजीवन के रहन-सहन, रंग-ढंग, आमोद-प्रमोद की परंपरा और मनोरंजन के मामले में उनकी पसंद-नापसंद से खूब वाकिफ थे। वर्षों बंबई में रहकर भी उन्हें गंवई-गांव के गीत, रास-नौटंकी की गुदगुदाने वाली चीजें लिखना होता, तो वे बड़ी सहजता और प्रामाणिकता से ऐसा ग्राम्य-काव्य लिख जाते थे। 'दो बीघा जमीन' और 'हीरा मोती' जैसी ग्राम जीवन पर बनी फिल्मों के गीत उन्हीं के लिखे हुए थे।
 
'तीसरी 'कसम' शैलेन्द्र की अपनी फिल्म थी। बिहार के प्रति अपने अनुराग के कारण और अपने जनम तथा बचपन की भूमि का पुराना भावनात्मक कर्जा उतारने की मंशा से... खुद पैसा लगाकर उन्होंने यह फिल्म बनाई थी। फणीश्वरनाथ रेणु भी बिहार अंचल के ही थे, जिनकी कहानी पर यह फिल्म बनी थी।
 
कहानी का नाम था- 'मारे गए गुलफाम।' इस कथा में एक गाड़ीवान और नौटंकी की बाई के बीच नि:स्वार्थ किस्म का स्नेह-लगाव पैदा हो जाता है जिसे 'प्यार' जैसा स्पष्ट शब्द नहीं दिया जा सकता और न मात्र 'अनुराग' कहकर धुंध में रखा जा सकता है।
 
सच यह है कि वह नौटंकी की बाई है, चलते-फिरते रहने वाली चीज है, उससे दिल लगाना कुल मिलाकर मन मसोसकर वहीं वापस लौट आना है, जहां से चले थे। यह बंद गली का नाकाम सफर है और फिर नाचने वाली बाई से शादी कैसे हो सकती है जबकि प्रेम आगे बढ़कर घर बसाना चाहता है?
 
रेणु ने कथा की इस स्थिति में करुणा से अधिक थोड़ा व्यंग्य ही देखा था, जैसा 'मारे गए गुलफाम' जैसे तंजिया शीर्षक से पता चलता है। पर शैलेन्द्र ने इस कथा में 'पेथॉस' के लिए काफी बड़ी जगह देखी। उन्होंने निर्देशक के मार्फत इसे निर्मल प्रेम, बीच-बीच की चुप्पी और अंत में बिछोह के करुण अंत की प्रभावशाली फिल्म बना दिया। इस फिल्म को स्त्री-पुरुष के बतौर हम भुगतते हैं, क्योंकि हमेशा के लिए अपने होकर अब हमेशा के लिए बिछड़ने जाने वाले हीरामन और बाई अब हम हैं।
 
नोट कीजिए, शैलेन्द्र और रेणु के बीच सोच का भी कुछ फर्क था। शैलेन्द्र ने फिल्म का नाम 'तीसरी कसम' रखा, क्योंकि अभागे हीरामन की तीसरी कसम अब यही है कि वह किसी नौटंकी वाली (बल्कि सारी जनाना को ही) को गाड़ी पर नहीं बिठाएगा। इस कसम में यही पीड़ा है कि 'जो मैं इतना जानती प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय।' तीसरी कसम का अंत हमें हफ्तों उदास रखता है।
 
शैलेन्द्र रेणु की कथा को आगे ले जाते हैं। कैमरा, कलम पर भारी पड़ता है।
 
तीसरी कसम की कथा का केंद्र नौटंकी है और नौटंकी क्योंकि गांव-कस्बों और लोकगीतों से जुड़ी हुई है इसलिए शैलेन्द्र ने फिल्म के अधिकांश गीत लोकगीतों की शैली में लिखे थे। लोकगीतों की सामान्य विशेषता यह रहती है कि उनमें कोई सुसंगत, लंबी, लाजिक नहीं चलती, केवल संकेत होते हैं या अमुक-अमुक शब्द प्रयोग से अमुक-अमुक असोसिएशन पैदा हो जाएं, बस इतना बहुत है।
 
उदाहरण के लिए शैलेन्द्र जब 'पिंजरे वाली मुनिया' जैसा शब्द लिखते हैं, तो उसका मतलब पिंजरे की मैना नहीं है और न वहां यह लॉजिक अर्थवान होती है कि यह मैना बरफी, कपड़ा और पान खाती है। नहीं, यह लोकगीत है। संवेदनात्मक संकेत है। संकेत यह है कि नारी इतनी आकर्षक होती है और पुरुष अनादि से उसके रूप और यौवन का इतना 'गुदिया (रसिया) होता है कि यह 'मुनिया' उसे आसानी से ढेर कर देती है।
 
पर शैलेन्द्र यहां हम सबसे ज्यादा सतर्क-सावधान थे। वे कथा की आत्मा में उतर गए थे। नौटंकी वाली बाई को संकेत द्वारा 'पिंजरे की मुनिया' बताकर और गाड़ीवान हीरामन को उसी संकेत के द्वारा 'चलत मुसाफिर' जताकर उन्होंने एक साथ कथा के व्यंग्य और कारुण्य को उभार दिया था।
 
समाज के द्वारा अस्वीकृत और नौटंकी के पिंजरे में कैद यह मैना राह चलते गाड़ीवान हीरामन का दिल ले उड़ी और उसे गुदगुदा दिया। तो क्या पिंजरे की वह मैना अंतत: पिंजरे में ही कैद रह जाएगी और सड़क पर लुटा हुआ वह घायल आशिक अंतत: सड़क पर ही रह जाएगा? उनके घर नहीं बसेंगे? देवदास का कहां बसा? पार्वती भी उजड़ गई।
 
मंतव्य यह है कि एक आम सिनेदर्शक का ध्यान तक नहीं जाता कि वह शैलेन्द्र के मजाकिया मुखड़े और गीत को कथा की मूलभूत ट्रेजेडी के साथ जोड़कर देख सके। पर शैलेन्द्र तब भी गमगीन ही रहे होंगे, जब उन्होंने बाहर से मजाकिया और बेतकल्लुफ नजर आने वाले इस धमाल गीत को लिखा।
 
बाबू, हाथ जोड़कर कहता हूं वह 'पिंजरे वाली मुनिया' और कोई नहीं, नौटंकी की यह अभागन नचनी ही थी जिसके सर पर समाज फूल बरसाता है, पर मांग में सिन्दूर नहीं पड़ने देता। वहीदा ने इस 'बाई' को अमर कर दिया। 'पिंजरे वाली मुनिया' गुदगुदाने वाला नहीं, असल में आंख की कोरों को भिगो देने वाला गीत है। ट्रेजिक फिल्मों की तमाम हंसी सारत: डबडबाए आंसू की तरफ ही खिसकती है- अब हमसे ई न पूछो, बाबू काहे?
 
इस गीत को मन्ना दा ने गाया था और परदे पर जीवंत मुद्राओं के साथ इसे अभिनेता कृष्ण धवन ने पेश किया था। आम दर्शक, जो कि शैलेन्द्र के 'अल्टेरियल मोटिव' (उच्चतर मंतव्य) में नहीं जाता और न उसकी हम उम्मीद करते हैं- उस आम दर्शक के लिए इतना बहुत है- 'पापे, मजा आ गया। अय हय पिंजरे वाली मुनिया और समझदार दर्शक को रोना आता है। ऐसे थे शैलेन्द्र। और बाबू, ऐसा होता है अच्छा सिनेमा, अच्छी कला। ...तुसी अब तो गीत का लफ्जों नोट करो जी।
 
मन्ना डे : चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया।
कोरस : चलत मुसाफिर मोह....
 
(फिर से पूरा मुखड़ा पूर्ववत, पहले मन्ना डे, और फिर कोरस। आगे भी पूरे गाने में यही क्रम)
 
मन्ना : उड़-उड़ बैठी हलवइया दुकनिया/ कोरस: उड़-उड़...
 
मन्ना : हो रामा उड़-उड़ बैठी हलवइया दुकनिया, हां रे-
बरफी के सब रस ले लियो रे पिंजरे वाली मुनिया/ कोरस : बरफी के सब...(2)
 
उड़-उड़ बैठी बजजवा दुकनिया/ कोरस- उड़-उड़ बैठी...
हां रे, कपड़ा के सब रस ले लियो रे पिंजरे वाली मुनिया/ कोरस- कपड़ा के सब रस-(2)
 
उड़-उड़ बैठी पनवड़िया दुकनिया/ कोरस- उड़-उड़ बैठी...
हे राम, उड़-उड़ बैठी पनवड़िया दुकनिया, हां रे
बीड़ा के सब रस ले लियो रे पिंजरे वाली मुनिया/ कोरस- बीड़ा के सब रस- (2)
 
(और अंत में)
चलत मुसाफिर.../ कोरस : चलत मुसाफिर....
सब : चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया।
 
 
शंकर-जयकिशन इस गीत के नौटंकियां मिजाज के साथ पूरा न्याय करते हैं, वहीं मेले-ठोले की हरमुनिया/ ढोलक/ और नगाड़े की मिली-जुली धमाल/ उचक-उचककर लाइनें उठाते साथ के ग्रामजन/ और नागन की तरह सर-सर भागती, फुफकारती धुन और गायन। यानी वास्तविकता में जाकर घुल-मिल जाने को व्याकुल कला।
 
फिल्म में यह गीत इस ओर संकेत भी है कि यह जो नौटंकी वाली बाई आई है न, वह पूरा बाजार लूट गई और दीन-दुनिया पर छा गई। हाय! सिनेमा की ग्रामर में यह कथा की नायिका को, और जरिए से, हाईलाइट करना है, क्योंकि कथा को अंत में अपने ही व्यंग्य के बोझ से, चरमराकर, खुद पर टूट गिरना है। देखते जाइए।
 
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है/
यह नगर सौ मर्तबा लूटा गया
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 2' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)

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