सुनहरे सपनों का मेरा शहर सो गया।
अजनबी-सा होकर कहीं खो गया।
धूप सूरज की अब रुकती नहीं।
कभी बुजुर्गों की शान हुआ करता था ये शहर।
आज तन्हा-अकेला इन्हें कौन कर गया।
मरती नदी एक सवाल मुझसे कर गई।
क्यों संगदिल-सा होकर ये शहर मर गया।
दरख्तों पर आजकल पंछी नहीं दिखते।
कौन इन परिंदों का गुनहगार बन गया।
मुद्दतों से खुद की पहचान कर रहा हूं मैं।
आज कौन मुझे मेरे सामने खड़ा कर गया।
तमाम शहर कभी मेरी जद में रहता था।