देवमणि पांडेय
ये चाह कब है मुझे सब-का-सब जहान मिले,
मुझे तो मेरी जमीं, मेरा आसमान मिले ।
कमी नहीं है सजावट की इन मकानों में,
सुकून भी तो कभी इनके दरमियान मिले ।
अजीब वक्त है सबके लबों पे ताले हैं,
नजर नजर में मगर अनगिनत बयान मिले ।
जवां हैं ख्वाब क़फ़स में भी जिन परिंदों के,
मेरी दुआ है उन्हें फिर नई उड़ान मिले ।
हमारा शहर या ख्वाबों का कोई मक़तल है,
क़दम क़दम पे लहू के यहाँ निशान मिले ।
हो जिसमें प्यार की खुशबू, मिठास चाहत की,
हमारे दौर को ऐसी भी इक जुबान मिले ।
साभार : कथाबिंब