हिंदी कहानी : नीम के तने पर जसोदाबाई की ढोलक

धमम् तपड़......धमम् तपड़.... धमम् तपड़... जसोदाबाई नीम तले ढोलक ठोक रही थी। बेसुरा, बेताल। ढोलक की दोनों चाटी पर पूरे हाथ पड़ रहे थे और बेढब आवाज़ दूर तक जा रही थी। आज से पहले जसोदाबाई को इस रूप में किसी ने नहीं देखा था। ढोलक पर सदा लटकनेवाले झालरदार रंगीन बागे एक ओर फिंके थे। नीली बद्दीवाली स्लीपर की जोड़ी अलग -अलग बिखरी थी। सदा आधा ढका रहनेवाला सिर खुला था और जसोदाबाई की आँखों से अंगारे बरस रहे थे। एक -एक कर लोग उसके आसपास जमा हो रहे थे। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही जसोदाबाई है जो.....।
 
 बिलकुल ढोलक की लकड़ी की तरह पक्का रंग और आवाज़ ढोलक से कुछ उन्नीसी। बोले तो ठीक उतने घरों तक सुनाई दे जितने घरों तक ढोलक की थाप पहुँचे। काठ  जैसा डीलडौल पर हाट करके लौटती जसोदाबाई को देखो तो भारा उठानेवाली को मात दे। सिर पर पाँच - आठ किलो का चारा-चंदी, बकरी छमिया के लिए। एक हाथ की थैली में चने,मुरमुरे, सिंघाड़े, शकरकंद और तमाम खाने की चीजें अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चों के लिए और दूसरे हाथ की थैली में राशन ,सब्जियाँ और सबसे ऊपर चटक-मटक का सामान।
 
 कभी रंग -बिरंगी रिबिन, कभी नखपालिश, कभी लाख का चूड़ा तो कभी गिलट के गहने। सजने सँवरने का सामान वो अपने लिए ही लाती। यही एक शौक था उसे। जाना कहीं न हो, बारह महीने बत्तीस घड़ी जसोदाबाई टीपटाप नज़र आएगी। सीधी पल्ले की साड़ी पहनती।( तब सभी महिलाएँ सीधे पल्ले की साड़ी पहनती थीं। उल्टे पल्ले को मराठी पल्ला कहा जाता था, क्योंकि महाराष्ट्रीयन महिलाएं ही उल्टा पल्ला पहनती थीं। ) तेल,चोटी करके अठन्नी सकता हिंगलू का टीका लगाती फिर पूरी माँग में कंकू भरती। माँग का लाल पट्टा दूर से ही चमकता। 
 
जसोदाबाई मोहल्ले के पास की गली से लगे मैदान को पार करने के बाद दिखती तीन -चार टपरियों में से एक में रहती थी। उसके घर की निशानी था नीम का पेड़। और उससे पक्की निशानी नीम के तने से निकली आदमकद टहनी से लटकी ढोलक। आते -जाते लोगों की नज़र एक बार तो तने से लटकती ढोलक पर ठहर ही जाती। ढोलक को सजाकर रखना भी जसोदाबाई का शौक था। सिंहासन में रखी मूर्तियों के बागे की तरह जसोदाबाई की ढोलक के भी बागे थे। खुद हाट से रंग-बिरंगे कपड़े लाकर तरह -तरह के बागे हाथ से सिलती। कभी पीले पर नीले की झालर लगाती तो कभी रानी रंग के बागे पर सफेद सितारे काढ़ती। और जब भजन गाती पच्चीस -तीस औरतों  में से कोई ढोलक की सजावट की तारीफ़ करती तो हँसते हुए ढोलक की बलैंयाँ ले लेती। घर आकर खड़ी मिर्ची से ढोलक की नज़र भी उतारती। 
 
ढोलक गज़ब की बजाती जसोदाबाई। दोनों ओर की चाटी पर उसकी अंगुलियाँ ऐसे चलतीं मानो तितलियाँ उड़ रही हों। उसने भले ही किसी घराने से ढोलक बजाना न सीखा हो पर हर भजन के साथ कहरवा बराबरी से बजा लेती। धीमे सुर के साथ धीमा और तेज के साथ तेज। ढोलक की थाप जैसे उसकी साँसें थीं। भजन की लय को साधते हुए ढोलक बजाती जसोदाबाई को देखें तो कोई दिव्य मूरत सी नजर आती। मोहल्ले में कहीं भी भजन हों जसोदाबाई ठीक समय पर ढोलक के साथ हाजिर हो जाती। महिला मंडल की औरतें हर एकादशी को किसी के घर भजन करतीं। 
 
तब जसोदाबाई की पुकार जरूर होती। उसके बिना भजनों में जान न रहती। कभी बाजार से लौटती हुई भजन में पहुँच जाती और किसी बच्चे को दौड़ाती,'जा लाला, नीम से जरा ढोलक उतार ला तो। सुन, पहले हाथ जोड़ना फिर धीरे से ढोलक उतारना।' ढोलक बजाते समय उसे एक साथी दरकार रहता। सामने घुटना लगाकर बैठने के लिए। ताकि ढोलक आगे की ओर न खिसके। इसके लिए वह किसी छोटी लड़की को चुनती। उसके हाथ में चम्मच भी दे देती। जिसे वह ताल के अनुसार ढोलक पर सामने की ओर बजाती रहे। उनमें से किसी उत्साही लड़की को भजन के बाद चाटी पर उंगलियाँ चलाना भी सिखाती। नई पीढ़ी में भी ढोलक और भजन के संस्कार जारी रहें। 
 
जसोदाबाई को सैकड़ों भजन कंठस्थ थे। सबसे प्रिय थे भोलेनाथ के भजन। भजन आरंभ उसी की आवाज़ में होते। वह ढोलक बजाते हुए गर्दन बाँई ओर दबाती हुई गाती," जिनकी आँखों में धधके है ज्वाला, वो है सारे जहाँ से निराला" बाकी महिलाएँ ताली बजाती हुई उसके सुर से सुर मिलाती। एक भजन खतम हुआ नहीं कि दूसरा शुरू। "भोले बाबा की मैं तो बनी रे दुल्हनिया। हँसी उड़ाए चाहे सारी दुनिया..मैं तो बनी रे दुल्हनिया।" मुखड़े में तो अन्य महिलाएँ साथ दे देती पर अंतरे की एक लाइन वही गाती " गौरा बोली स्वामी मेरे तीन लोक के दाता हैं " फिर गर्दन टेढ़ी कर चुप हो ढोलक बजाती , बाकी औरतें लाइन दोहराती। इस बीच वह आँखें घुमाकर देख लेती कौन -कौन बैठी है और किसने कैसी साड़ी पहनी है। फिर आगे गाती,"कमी नहीं है कोई उनमें, सबके भाग्य विधाता हैं।" सब फिर दोहरातीं।
 
कुछ भजनों का सुर बहुत ऊँचा रहता। उन्हें जसोदाबाई अकेली ही गाती। "भोले ने पी लेई भांग , जगत सारो घूम रहो। शिव शंकर चले कैलाश,बूंदिया गिरने लगी।" 
 
जसोदाबाई के घर में दो ही प्राणी थे। तीसरे के लिए उसने कोई जतन न छोड़ा। दवा - पानी से लेकर मंदिर, दरगाह तक पूजे। पर तीसरा न आया। मन समझाने के लिए वह कभी बंसीवाले में अपने लाल की छवि देखती, कभी छमिया को बेटी की तरह घुंघरू पहनाती तो कभी ढोलक को सजाकर राजा बेटा पुकार लेती।  
 
कुछ लोगों को कमजोर जगह पर पैर रखकर निकलने में आनंद आता है। वे बोले बिना रहते नहीं। जसोदाबाई को आए दिन आहत करनेवाले बोल सुनने पड़ते। सीतला सप्तमी की पूजा करने सुबह चार बजे से लाइन में लग जाती। पर नंबर आते -आते पीछेवाली औरतें उसे कहतीं,"अरे जसोदाबाई, देखो उजाला होने आया। हमारे बच्चों को स्कूल जाने में देर हो जाएगी। तुम जरा पीछे हो जाओ। तुमको क्या फर्क पड़ेगा।" जसोदाबाई चुपचाप पीछे हो जाती। फिर घर आकर खूब रोती। इन तीखे बाणों से उसके मन पर कितना फर्क पड़ेगा, कोई नहीं समझता। 
 
जसोदाबाई के पति कमाने के लिए काम तो लाइनमेन का करते थे, पर उनके मन का काम था पीना। दिन रात पीना ,दोस्तों को पिलाना और नशे में जसोदाबाई के साथ मारपीट करना। कारण कुछ न हो, मार खाना जसोदाबाई की दिनचर्या में शामिल था। पर वह गलती से भी किसी के सामने पति को भला -बुरा न कहती। पति तन का दर्द तो देता था पर मन के दर्द में कभी हमदर्दी के दो बोल नहीं कहता। 
 
किसी दिन भीतर तक टूट जाती तो दूर के रिश्ते की काकी के घर जाकर रो लेती। वे  जसोदाबाई के लाड़ करती। बहू खाना खिलाती ,काकी चूड़ी के पैसे देती और देवर घर छोड़ जाता।  काकी के अलावा किसी ने कभी जसोदाबाई के आँसू नहीं देखे। 
 
आज जसोदाबाई को इस तरह ढोलक कूटते देख हर कोई हैरान था। धीरे -धीरे आसपास के मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। जसोदाबाई धम्म तपड़....धम्म तपड़ ...दोनों चाटी कूटे जा रही थी। नंगधड़ंग ढोलक बेबस बच्चे की तरह माँ से मार खा रहा था। कुछ औरतों ने उसे रोकने की कोशिश की पर उसकी गति कम नहीं हुई। किसी लड़के ने काकी को खबर कर दी। बदहवास सी काकी लकड़ी टेकती हुई आई और जसोदाबाई के दोनों हाथ पकड़ लिए, "बोल, किसने तीर छोड़ा तेरी छाती में ? बहुत दम है इन बूढ़ी हड्डियों में। बहन मानता है मेरा छोरा। बेटी की आँख में आँसू देख न पाऊँगी। बोल। बता कौन है ?"
 
काकी ने ललकारा तो भीतर से जसोदाबाई का पति निकला। भीड़ देख थोड़ा घबराया। फिर बोला," काकी, ये छोरी लगती है तेरी ? अरे, ये तो बहू कहलाने के लायक नहीं। कल तेरा छोरा छोड़ के गया इसे।  जाने कबसे नैन लड़ा रही है उससे। किस्मत से कोख भी खाली है तो किसी ऊँच-नीच का डर भी नहीं दारी को...। सच बोल दिया तो देखा कैसे खेल  दिखा रही है सुबह से ?" 
 
आगे सुनने से पहले ही काकी ने लकड़ी जसोदाबाई के पति की ओर तानते हुए कहा," बस कर छोरा, नहीं तो यहीं चीर दूँगी। होश में है तू ?  कल तो मैंने इसे बुलाया था, चुल्हा बनाने। देर हो गई तो भाई आ गया बहन को छोड़ने। तुने इस सती सावित्री पर शक किया? कैसा जहर बुझा तीर छोड़ा पगले कि होश पलट दिये छोरी के।" 
 
काकी की बात सुन सब सन्न रह गए। दबी आवाज़ में जसोदाबाई के पति को कोसने लगे। अचानक जसोदाबाई की ढोलक फिर बजी। और तेज़... बहुत जोर जोर से। पहले एक चाटी फटी..फिर दूसरी। ढोलक फटते ही जसोदाबाई रोते हुए खड़ी हो गई। बोली," ये तीर बहुत उंडा गड़ गया काकी... अब निकला तो मर जाऊँगी। जा रही हूँ... नहीं जी पाऊँगी इसके साथ...नहीं जी पाऊँगी।" 
 
नीम तले रखी दराती और एक साड़ी के साथ चली गई जसोदा। जाने कहाँ। फिर कभी अपनी झोपड़ी में नहीं आई। काकी को राहत थी, दराती ले गई है। कमा खा लेगी। 
 
नीम के तने पर फटी ढोलक सालों तक टँगी रही। अब उसे देख कानों में कहरवा नहीं बजता। जसोदाबाई दिखती है और बजती है धम्म तपड़....धम्म तपड़।

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