पर्यावरण रक्षा की शिक्षा देती एक बेहतरीन लघु कथा: अंतिम सांस का शहर

सुशील कुमार शर्मा

शुक्रवार, 23 मई 2025 (13:55 IST)
एक औद्योगिक शहर था, जहां हवा हमेशा धुएं और रसायनों से भरी रहती थी। फैक्ट्रियां चौबीसों घंटे चलती थीं, और उनके चिमनियों से निकलने वाला ज़हर पूरे शहर पर एक काली चादर की तरह छाया रहता था। यहां के लोग अक्सर खांसते रहते थे और फेफड़ों की बीमारियों से पीड़ित थे। पर्यावरणीय मानकों को हमेशा लाभ के लिए दरकिनार किया जाता था।ALSO READ: बिगड़ते पर्यावरण पर लघु कथा : मौन पहाड़ का बदला
 
एक दिन, एक भयानक रासायनिक रिसाव हुआ। हवा में इतना ज़हर घुल गया कि सांस लेना असंभव हो गया। लोग सड़कों पर गिरते गए, उनकी सांसें थमने लगीं। यह एक ऐसी आपदा थी जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी, लेकिन जिसकी संभावना हमेशा मौजूद थी।
 
बचे हुए कुछ लोग शहर से भाग गए, लेकिन उनके मन में एक गहरी टीस थी। उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने अपने लालच में अपने ही घर को ज़हर से भर दिया था। कुछ साल बाद, वह शहर एक भूतिया शहर बन गया। जहां कभी फैक्ट्रियों का शोर था, वहां अब बस सन्नाटा पसरा था और हवा में अब भी रसायन की गंध तैर रही थी।
 
एक युवा वैज्ञानिक, जिसकी दादी त्रासदी में मर गई थी, ने इस शहर को फिर से जीवन देने का संकल्प लिया। उसने अपने शोध से यह साबित किया कि कैसे औद्योगिक नैतिकता का अभाव पूरे समुदाय को नष्ट कर सकता है। उसने उस शहर को एक 'पर्यावरण शिक्षा केंद्र' में बदलने का प्रयास किया, जहां लोग उन गलतियों से सीख सकें जो उस गांव ने की थीं। यह शहर अब एक जीवित स्मारक था- उस पर्यावरणीय नैतिकता का, जिसे कभी भुला दिया गया था।
 
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