“मुझे माफ कर दो मैं स्वार्थी हो गया था, जिंदगी भर ठीक से कमा नहीं पाया इसीलिए डर गया था कि अगर तुम लोंगों के साथ हिस्सेदारी की तो मेरे हिस्से इतना भी नही आएगा, की मैं एक झोपड़ी भी खरीद सकूं। “भाई की बातें नीना के दिमाग में इतना शोर कर रही थी, जिसके सामने एयर-इंडिया विमान का शोर भी वो सुन नहीं पा रही थी। नीना हमेशा की तरह इस वर्ष की शुरुवात में कुछ दिनों के लिए मां से मिलने आई थी, पर क्या पता था, की उसके पीछे-पीछे वाइरस भी चीनी विमान से कुछ दिन में आने वाला था।
नीना ने घर पहुंच मां से फोन पर बात की तो पता चला कि, वे काफी बीमार है, यह सुनते ही वे तुरंत मां को अपने घर ले आई। कुछ दिन में लॉकडाउन हो गया। कोरोना के बादलों के बीच में जब भी मां नीना को सेवा के बदले आशीर्वाद देती, तो लगता बादलों को चीर सूर्य, उसके मन में झांक गया हो। नीना वापस अमेरिका नहीं जा सकी पर हर वक्त ईश्वर का शुक्र मानती रही और कहती रही की तेरी गणना तू ही जाने। इस बीच मां की हालत बिगड़ने लगी। नीना ने भाई को कई फोन किए पर वो हर बार बहाना बना देता की लॉकडाउन में वो नहीं आ सकता, रास्ते बंद है। नीना ने एक दिन हिम्मत कर माँ को अस्पताल ले जाकर जैसे ही डॉक्टर को दिखाया तो उन्होने माँ को तुरंत एड्मिट कर खूब डांटा की मां को पहले क्यों नहीं लाये आदि।
नीना किस तरह बताती की भाई गैर-जिम्मेदार निकला। किसी को भनक भी नहीं हुई कि मां की गैरमौजूदगी में माँ की अलमारी खोली गयी है और भोली मां से कभी छल से करवाए गए हस्ताक्षर वाले पेपर गायब है। मां अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी इधर नीना कोरोना के बादलों पर वाइरस की क्रूर हंसी सुन रही थी और भाई ने मकान की वसीयत अपने नाम बनवा ली थी।
नीना और उसकी बहनों ने स्वार्थी भाई की माली हालत को देखते हुए उसके वकील को रजामंदीनामा भेज तो दिया, पर नीना शून्यावस्था में काफी दिनों तक रही। बस यही सोचती की कोरोना को किस रूप में देखूं जानलेवा महामारी या रिश्तों का आईना के रूप में?
नीना सोचती रही की कोरोना ने सबके चेहरों पर तो मास्क लगवा दिये थे, पर रिश्तों के मास्क परत डर परत उतर गए थे।
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(ग्रहण)
पिताजी का निधन हुए एक माह हो गया था और कोरोना के चलते संवेदना का क्रम सिर्फ फोन द्वारा ही निभाया जा रहा था। लाकडाउन के कारण पिताजी का क्रियाकर्म तो घरवालों ने शमशान घाट जा कर कर दिया था। परंतु बाकी और रस्में जैसे चौथा और तेरहवीं सब एक साथ आनन-फानन में पंडित जी ने अपनी सुविधानुसार मूहर्त निकाल कर निपटाईं थी।
पंडित जी भी करोना से इतने डरे हुए थे की सब कुछ दस मिनट में निबटा दिया था, जिसे भाई ने सबको ऑनलाइन दिखा दिया था। कुछ दिन बाद हालात ठीक होते ही मैंने सोचा, भाई के घर एक बार हो आऊं। थोड़ा ढाढ़स भी देना चाहता था। चूंकि मैं शुरू से अपनी नौकरी के चलते अधिकतर दूसरे शहरों में ही रहा। पिताजी भाई के पास रहते थे। पिताजी की अच्छी ख़ासी पेंशन उनके खाते में आती थी। मैं बस यही जानता था। भाई हमेशा मुझे यही कह कर तसल्ली देता रहा कि मैं पैसे के कारण पिताजी की देखभाल नहीं करता हूं, यह तो मेरा फर्ज़ है। मुझे भाई में लक्ष्मण दिखता था।
पिताजी के चले जाने के बाद भाई का व्यवहार कुछ कुछ बदला सा मुझे महसूस हो रहा था। आज पहली फुर्सत में मैंने सोचा भाई से बात छेड़ ही डालूं...
“भाई अब पिताजी के पेंशन खाते की पासबुक तो देखें की कितना पैसा जमा है? उनकी अंतिम इच्छानुसार हमें वृद्ध आश्रम में भी दान देना है”। सुनते ही भाई सकपका गया और तुरंत बोला, “मुझे नहीं पता पासबुक और चेकबुक तो पिताजी के पास थी उन्होने मुझे कभी नहीं दी”। भाई की बात पर विश्वास नहीं हुआ। अगले रोज़ मैंने एक दोस्त के द्वारा, जो उसी बैंक में कार्यरत था, जब पता लगवाया तो पता लगा की, पिताजी की अच्छी खासी पेंशन तो भाई हर माह निकलवा ले जाता रहा था। अब तो सिर्फ नाम मात्र पैसे हैं और अब खाता भी बंद हो जाएगा।
यह सुनते पहला सवाल मेरे दिमाग में कौंधा, “फिर जो पैसे मैं भेजता रहा वो कहां खर्च हुए?” मेरे अंदर संदेह का और विश्वासघात मिलने का एक अंजाना भय व्याप्त होने लगा।
वापस आकर मैंने भाई से जायदाद के पेपर देखने की इच्छा भी ज़ाहिर की। पिताजी की हमेशा यही इच्छा रही थी की बहनों को जायदाद में भी वारिस बनाया जाए।
मेरे अचानक पूछने पर कुछ देर तो भाई चुप रहा। शायद उसकी चुप्पी ने मेरे सवाल का जवाब देना शुरू कर दिया था। बिना शब्दों वाला जवाब मेरे दिमाग में घूमने लगा। भाई का नज़रे चुराना और सकपकाना बेईमानी की सब कहानी बयां कर चुका था। कुछ ही वक्त पहले उसने एक मकान खरीदा था और उड़ती खबर मुझे मिली भी थी पर पिताजी के दिये संस्कार रूपी जिस दौलत को मैं समेटे था वो भाई की किस्मत में नहीं थी।
समय गुजरा मेरे बेटे की शादी तय हुई। निकटतम लोगों को निमंत्रण भेजे गए। वो ही रिश्तेदार आए थे जो मेरे पिताजी जैसे थे। भाई न आया। आज हमारे रिश्ते पर ग्रहण लग चुका है।
(कहानीकार अनिता कपूर लेखक, कवि और पत्रकार हैं। वे यूएसए में रहती हैं।)