चार हजार वर्ष पहले भी आबाद था इंदौर

इंदौर नगर को आधुनिक नगर मानकर प्राय: इतिहासकारों व पुरातत्ववेत्ताओं ने यह धारणा बना ली थी कि इंदौर का इतिहास तीन-चार सौ वषों से अधिक पुराना नहीं है। इस प्रचलित मान्यता को खंडित करने वाली घटना उस स‍मय घटित हुई, जब इस स्तम्भ के लेखक (शिवनारायण यादव) ने इंदौर के पूर्वी भाग में आजाद नगर के समीप कुछ मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े, हाथ दांत की बनी चूड़ियां और ताम्र मुद्राएं 1971 में खोज निकालीं। इस उपलब्धि ने पुरातत्ववेत्ताओं डॉ. वि.श्री. वाकणकर, स्व. एस.के. दीक्षित तथा तत्कालीन इंदौर संग्रहालय के श्री रामसेवक गर्ग को आगे अनुसंधान करने के लिए प्रेरित किया। इस उपलब्धि की गूंज भारतीय संसद तक जा पहुंची, जब संसद में घोषित किया गया कि आजाद नगर इंदौर में हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेषों की प्राप्ति हुई तो इंदौरवासियों के हर्ष में असीमित वृद्धि देखते ही बनती थी।
 
इस घोषणा के बाद म.प्र. शासन के पुरातत्व विभाग का ध्यान इस टीले की ओर गया जिसे तत्काल संरक्षित स्थल बना दिया गया। खोज के एक वर्ष बाद ही (1972) म.प्र. शासन पुरातत्व विभाग तथा विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के सम्मिलित अभियान के रूप में आजाद नगर टीले का उत्खनन प्रारंभ हुआ। इस उत्खनन दल में स्व. डॉ. वि.श्री. वाकणकर व पुरातत्व विभाग के अनुभवी अधिकारीगण सम्मिलित थे।
 
डॉ. वाकणकर ने उत्खनन में प्राप्त अवशेषों का सिलसिलेवार विशद व तुलनात्मक अध्ययन किया। उन्होंने एक श्रेष्ठ चित्रकार होने के नाते प्राप्त वस्तुओं के चित्र भी बनाए और सारा विवरण प्रकाशित करवाया। डॉ. वाकणकर के शब्दों में 'मैंने पात्रों के अभ्यास के कालानुसार उनका निम्न प्रकार वर्गीकरण किया है।
काल एक- यह काल 4000 से 3800 वर्ष पूर्व का है तथा कायथा उत्खनन से प्राप्त कायथा सभ्यता से व महेश्वर उत्खनन से प्राप्त धनबेड़ी टेकरी के प्राचीनतम अवशेषों से साम्यता रखता है। इस युग में यह सभ्यता हड़प्पीय और प्राग्हड़प्पीय पात्र शैली को ले मालवा में उत्तर से आई। पात्रों के आकार में हड़प्पी साम्यता है, परंतु चित्रालंकरण पूर्णतया प्राग्हड़प्पीय है तथा उसका साम्य बांरां कालिबंगान से किया जा सकता है। इन्हें लिपि का ज्ञान था। पात्रों पर नामांकन पाया गया है। लिपि मोहन जोदड़ो की लिपि के समान थी।
 
सभी ताम्राश्म सभ्यताओं का यह वैशिष्ट्य रहा है कि धातु उपकरणों के साथ-साथ ये स्‍फटिकाश्म के बहुत छोटे-छोटे उपकरण बनाया करते थे, जिन्हें लघुअश्म या मायक्रोलिथ कहते हैं। धातु की प्रचुर मात्रा में अनुपलब्धि के कारण इन्हें दराता, चाकू तथा आरी बनाने के काम में लाया जाता था।
 
यहां प्राप्त होने वाले लहरदार काले रंग के पात्र-चित्रण लोथल और सुदूर ऊर (ईरान) में प्राप्त हुए हैं। कुछ पात्रों के आकार मोहन जोदड़ो के पात्रों से मिलते-जुलते हैं। राजस्थान में बागोर उत्खनन में भी कायथा सदृश्य पात्र मिले हैं, जो तिथि में पर्याप्त पूर्व के हैं। इस संस्कृति के अवशेष ही अधिक मात्रा में आजाद नगर के टीले से प्राप्त हुए हैं।
 
उक्त अवशेष व अन्य अनेक वस्तुएं जो आजाद नगर उत्खनन से प्राप्त हुई हैं, केंद्रीय संग्रहालय इंदौर में संरक्षित हैं, जो निश्चय ही हमारा गौरव बढ़ाती हैं।
 
उत्खनन में मिला बौद्ध स्तूप
 
सन् 1972 में इंदौर नगर के पूर्वी छोर पर खान नदी के किनारे आजाद नगर में किए गए पुरातात्विक उत्खनन ने इंदौर के अतीत की तमाम विलुप्त कड़ियों को जोड़ने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। राजस्थान के उदयपुर के समीप आहाड़ नामक स्थान पर एक नई संस्कृति के अवशेषों को सर्वप्रथम उत्खनन में हासिल किया गया था अत: इस संस्कृति का नाम 'आहाड़ संस्कृति' रख दिया गया। इस संस्कृति के अवशेष आजाद नगर में प्राप्त हुए हैं जिनसे आहाड़ संस्कृति का धूमिल स्वरूप प्रकट होता है। उदाहरण के लिए इस संस्कृति के लोग घुटे हुए लाल पात्र बनाते थे, जिन पर उत्कीर्ण चित्र भी रहते थे। छोटे कटोरे लाल-काले घुटे पात्रों की श्रेणी के हैं तथा उन पर सफेद रंग से चित्रण किया गया है। धब्बेदार धूसर पात्रों के आधारित तश्तरियां, हंडियां व थालियां बनाई जाती थीं। यहां के लोग तांबे व कांसे का उपयोग जानते थे। कायथा की खुदाई से ज्ञात हुआ कि इन्हें चावल उत्पादन ज्ञात था। छोटे बेरों को भी खाद्यान्न के रूप में काम में लिया जाता था। वृषभ, हिरण आदि का मांस खाया जाता था। आजाद नगर उत्खनन में भी यह प्रमाण मिला है।

 
यहां यह तथ्‍य उल्लेखनीय है कि स्व. डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर को रामबाग और डी.आर.पी. लाइन को जोड़ने वाले फुटब्रिज के पास नदी के कटाव में नीलगाय की हड्डियों के फॉसिल्स (जीवाश्म) मिले हैं, जो इस क्षेत्र की प्राचीनता को पुष्ट करते हैं। डॉ. वाकणकर ने 1956 में सुख निवास के आसपास आदिमानव द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पाषाण उपकरण भी खोज निकाले हैं।
 
हड़प्पा के समान लिपि से उत्कीर्ण पात्र आजाद नगर में मिले हैं। यहां शंख की सुंदर चूड़ियां बनाई जाती थीं। उत्खनन में मौर्यकालीन कुछ सिक्के भी मिले हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि एक बहुत बड़े बौद्ध-स्तूप के अवशेषों का पाया जाना है। उस उज्जैन, महेश्वर व विशेषकर भीखनगांव (भिक्खुग्राम) बौद्ध गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे। इनके मध्य में पड़ने वाला इंदौर इन गतिविधियों से अछूता कैसे रह सकता था?
 
आजाद नगर उत्खनन में प्राप्त अवशेष केंद्रीय संग्रहालय इंदौर में संरक्षित हैं, जो इस क्षेत्र में गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के प्रमाण हैं।
 
 
परमारकालीन प्रतिमाएं प्राप्त हुई थीं इंदौर में
 
मालवा के प्रतापी परमार शासकों ने धार को अपनी राजधानी बनाया था, जो उस युग में शिक्षा, व्यापार-व्यवसाय व विद्वानों की शरणस्थली के केंद्र के रूप में विख्यात थी। धार के समीप स्थित इंदौर में भी परमारकालीन मंदिरों व मूर्तियों के प्रमाण मिले हैं। इंदौर का जूनी इंदौर क्षेत्र परमारकालीन अवशेषों से भरा पड़ा है। यहां के गणपति मंदिर के समीप काफी अवशेष प्राप्त हुए हैं। जो अवशेष हैं, उससे ज्ञात होता है कि वहां किसी समय खान तथा चंद्रभागा (चंद्राकार होने के कारण यह नाम पड़ा) नदियों के संगम पर परमारकालीन सुंदर व भव्य मंदिर सुशोभित थे। इन मंदिरों में लक्ष्मी, कुबेर, शिव तांडव, सुर-सुंदरी तथा प्रभावली आदि की प्रतिमाएं स्थापित थीं। 'शिव तांडव' की प्रतिमा आज भी कालिका के रूप में यहां पूजी जा रही है। यह प्रतिमा निश्चित रूप से 10वीं सदी की है। 15वीं सदी का एक सुंदर गरूड़ भी यहां था।
संभव है आजाद नगर के इस भव्य व विशाल स्तूप के कारण ही स्थान का नाम चेत्यवर (श्रेष्ठ स्तूप) पड़ा हो। 7वीं सदी में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग उज्जैन से महेश्वर गया था, तब रास्ते में वह चिखिताओ नामक स्थान पर रुका था। वह लिखता है कि वहां एक सुंदर स्तूप था। क्या चीनी यात्री द्वारा उल्लेखित 'चिखिताओ' चितावद हो सकता है? यह जानना रोचक होगा कि उत्खनन स्थल से 2 फर्लांग की दूरी पर ही चितावद नामक बस्ती आज भी मौजूद है।
 
जूनी इंदौर क्षेत्र में ही मार्ग निर्माण के समय की गई खुदाई में तीन प्रतिमाएं प्राप्त हुई थीं, जो तक्षण कला की दृष्टि से स्वयं प्रमाणित करती हैं कि उनका निर्माण परमारकाल में हुआ था। उक्त तीनों प्रतिमाएं केंद्रीय संग्रहालय इंदौर में हैं। इन प्रतिमाओं में पहली अपूर्ण प्रतिमा (आकार 205x80 सें.मी.) सूर्य की है, जो श्वेत पत्‍थर पर बनाई गई है। यह एक अपूर्ण मूर्ति है जिसकी प्राप्ति ने यह सिद्ध कर दिया कि राजस्थान से श्वेत पत्‍थर बुलाया जाता था जिससे यहीं प्रतिमा बनाई जाती थी।
 
दूसरा एक द्वार खंड है जिसके ऊपर ब्राह्मणी बीच में भैरव डण्ड, कपाल पात्र, कटार सहित तथा नीचे यक्ष की प्रतिमा उत्कीर्ण है।
 
इसके अतिरिक्त सूर्य की एक अन्य खंडित प्रतिमा है, जो इंदौर से ही प्राप्त हुई है। 30x50 सें.मी. आकार की यह प्रतिमा 11वीं और 12वीं सदी की है। इस पर सूर्य प्रतिमा का बायां भाग अंकित है जिसमें दंड और उषा (छाया) की तक्षण कृतियां उत्कीर्ण हैं तथा मुख्य सूर्य प्रतिमा का बायां पैर तथा पाद पीठ पर सारथी अरुण को अंकित किया गया है।
 
यह उल्लेखनीय है कि भगवान सूर्य ही ऐसे देवता हैं जिनका अंकन चरण पादुकाएं धारण किए हुए किया जाता है। संभवत: इस मान्यता के कारण कि सूर्य सीधे धरती पर अवतरित हो जाएगा तो पृथ्वी का विनाश हो जाएगा। इस मान्यता को इंदौर की इन सूर्य प्रतिमाओं में स्थान मिला है। इंदौर में अधूरी सूर्य प्रतिमा का पाया जाना भावी अनुसंधानकर्ताओं के लिए प्रश्नचिह्न रहेगा।
 
उक्त उपलब्धियों ने सुनिश्चित रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि परमारों के शासनकाल में इंदौर आबाद था।

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