1857 की क्रांति के बाद हिंदुस्तान की धरती पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ एक ओर नवजागरण की जमीन तैयार की, वहीं विभिन्न सुधार आंदोलनों और आधुनिक मूल्यों और रौशनी में रूढिवादी मूल्य टूट रहे थे, हिंदू समाज के बंधन ढीले पड़ रहे थे और स्त्रियों की दुनिया चूल्हे-चौके से बाहर नए आकाश में विस्तार पा रही थी।
इतिहास साक्षी है कि एक कट्टर रूढिवादी हिंदू समाज में इसके पहले इतने बड़े पैमाने पर महिलाएँ सड़कों पर नहीं उतरी थीं। पूरी दुनिया के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। गाँधी ने कहा था कि हमारी माँओं-बहनों के सहयोग के बगैर यह संघर्ष संभव ही नहीं था। जिन महिलाओं ने आजादी की लड़ाई को अपने साहस से धार दी, उनका जिक्र यहाँ लाजिमी है।
कस्तूरबा गाँधी : गाँधी ने बा के बारे में खुद स्वीकार किया था कि उनकी दृढ़ता और साहस खुद गाँधीजी से भी उन्नत थे। महात्मा गाँधी की
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आजीवन संगिनी कस्तूरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दिया था, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गाँधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का निर्णय लिया। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गाँधीजी की प्रेरणा भी।
विजयलक्ष्मी पंडित : एक संपन्न, कुलीन घराने से ताल्लुक रखने वाली और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी आजादी की
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लड़ाई में शामिल थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में बंद किया गया था। वह एक पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध महिला थीं और विदेशों में आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली महिला मंत्री थीं। वह संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष थीं। वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत थीं, जिन्होंने मास्को, लंदन और वॉशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
अरुणा आसफ अली : हरियाणा के एक रूढि़वादी बंगाली परिवार से आने वाली अरुणा आसफ अली ने परिवार और स्त्रीत्व के तमाम बंधनों
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को अस्वीकार करते हुए जंग-ए-आजादी को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार किया। 1930 में नमक सत्याग्रह से उनके राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत हुई। अँग्रेज हुकूमत ने उन्हें एक साल के लिए जेल में कैद कर दिया। बाद में गाँधी-इर्विंग समझौते के बाद जब सत्याग्रह के कैदियों को रिहा किया जा रहा था, तब भी उन्हें रिहा नहीं किया गया।
ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को अरुणा आसफ अली ने गोवालिया टैंक मैदान में राष्ट्रीय झंडा फहराकर आंदोलन की अगुवाई की। वह एक प्रबल राष्ट्रवादी और आंदोलनकर्मी थीं। उन्होंने लंबे समय तक भूमिगत रहकर काम किया। सरकार ने उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली और उन्हें पकड़ने वाले के लिए 5000 रु. का ईनाम भी रखा। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की मासिक पत्रिका ‘इंकलाब’ का भी संपादन किया। 1998 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
सरोजिनी नायडू: भारत कोकिला सरोजिनी नायडू सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छी कवियत्री भी थीं। गोपाल कृष्ण
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गोखले से एक ऐतिहासिक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान आने के बाद गाँधीजी पर भी शुरू-शुरू में गोखले का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। सरोजिनी नायडू ने खिलाफत आंदोलन की बागडोर सँभाली।
सिस्टर निवेदिता: उनका वास्तविक नाम मारग्रेट नोबल था। उस दौर में बहुत-सी विदेशी महिलाओं को हिंदुस्तान के व्यक्तित्वों और आजादी
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की लड़ाई ने प्रभावित किया था। स्वामी विवेकानंद के जीवन और दर्शन के प्रभाव में जनवरी, 1898 में वह हिंदुस्तान आईं। भारत स्त्री-जीवन की उदात्तता उन्हें आकर्षित करती थी, लेकिन उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा और उनके बौद्धिक उत्थान की जरूरत को महसूस किया और इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम भी किया। प्लेग की महामारी के दौरान उन्होंने पूरी शिद्दत से रोगियों की सेवा की और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। भारतीय इतिहास और दर्शन पर उनका बहुत महत्वपूर्ण लेखन है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की बेहतरी की प्रेरणाओं से संचालित है।
मीरा बेन: लंदन के एक सैन्य अधिकारी की बेटी मैडलिन स्लेड गाँधी के व्यक्तित्व के जादू में बँधी साम समंदर पार काले लोगों के देश हिंदुस्तान चली आई और फिर यहीं की होकर रह गईं। गाँधी ने उन्हें नाम दिया था - मीरा बेन। मीरा बेन सादी धोती पहनती, सूत कातती, गाँव-गाँव घूमती। वह गोरी नस्ल की अँग्रेज थीं, लेकिन हिंदुस्तान की आजादी के पक्ष में थी। उन्होंने जरूर इस देश की धरती पर जन्म नहीं लिया था, लेकिन वह सही मायनों में हिंदुस्तानी थीं। गाँधी का अपनी इस विदेशी पुत्री पर विशेष अनुराग था।
कमला नेहरू: कमला जब ब्याहकर इलाहाबाद आईं तो एक सामान्य, कमउम्र नवेली ब्याहता भर थीं। सीधी-सादी हिंदुस्तानी लड़की, लेकिन
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वक्त पड़ने पर यही कोमल बहू लौह स्त्री साबित हुई, जो धरने-जुलूस में अँग्रेजों का सामना करती है, भूख हड़ताल करती है और जेल की पथरीली धरती पर सोती है। नेहरू के साथ-साथ कमला नेहरू और फिर इंदिरा की भी सारी प्रेरणाओं में देश की आजादी ही सर्वोपरि थी। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की। कमला नेहरू के आखिरी दिन मुश्किलों से भरे थे। अस्पताल में बीमार कमला की जब स्विटजरलैंड में टीबी से मौत हुई, उस समय भी नेहरू जेल में ही थे।
मैडम भीकाजी कामा: पारसी यूँ तो हिंदुस्तानी थे, लेकिन गोरी चमड़ी और अँग्रेजी शिक्षा के कारण अँग्रेजों के ज्यादा निकट थे। ऐसे ही एक
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पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी कामा पर अँग्रेजी शिक्षा के बावजूद अँग्रेजियत का कोई असर नहीं था। वह एक पक्की राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं। स्टुटगार्ड जर्मनी में उन्होंने देश की आजादी पर कहा था, ‘हिंदुस्तानी की आजादी का परचम लहरा रहा है। अँग्रेजों, उसे सलाम करो। यह झंडा हिंदुस्तान के लाखों जवानों के रक्त से सींचा गया है। सज्जनों, मैं आपसे अपील करती हूँ कि उठें और भारत की आजादी के प्रतीक इस झंडे को सलाम करें।’ फिरंगी भीकाजी कामा के क्रिया-कलापों से भयभीत थे और उन्होंने उनकी हत्या के प्रयास भी किए। पर देश-प्रेम से उन्नत भाल झुकता है भला। भीकाजी कामा का नाम आज भी उसी गर्व के साथ हमारे दिलों में उन्नत है।
इंदिरा गाँधी: तमाम सुख-सुविधाओं में पली जवाहरलाल नेहरू की बेटी और फिर देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के संघर्ष, आजादी की लड़ाई
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में उनके योगदान और उन मुश्किल दिनों के बारे में बहुत कम ही लोग जानते हैं, जब वह छोटी बच्ची थीं। पिता जेल में और माँ अस्पताल में। कोई देखने वाला नहीं था। हर छ: महीने पर स्कूल बदलना पड़ता। कई बार तो 10-10 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाना होता था। फिर भी इंदिरा जानती थीं कि पिता ज्यादा महत्तर कामों में संलग्न हैं। वह करोड़ो गुलाम भारतीयों की आजादी के लिए लड़ रहे थे और प्रकारांतर से इंदिरा भी इस लड़ाई में उनके साथ थी।
सुचेता कृपलानी : इंदिरा गाँधी ने कभी सुचेता कृपलानी के बारे में कहा था, ‘ऐसा साहस और चरित्र, तो स्त्रीत्व को इस कदर ऊँचा उठाता हो, महिलाओं में कम ही देखने को मिलता है।’ स्वतंत्रता आंदोलन के साथ सुचेता कृपलानी का जिक्र आता ही है। सुचेता ने आंदोलन के हर चरण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कई बार जेल गईं। सन् 1946 में उन्हें असेंबली का अध्यक्ष चुना गया। सन् 1958 से लेकर 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की जनरल सेक्रेटरी रहीं और 1963 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं।