संत एकनाथ महाराज : पढ़ें दो प्रेरणात्मक रोचक प्रसंग
प्रसिद्ध मराठी संत एकनाथ का जन्म पैठण में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री सूर्यनारायण तथा माता का नाम रुक्मिणी था। एकनाथ अपूर्व संत थे। वे श्रद्धावान तथा बुद्धिमान थे। उन्होंने अपने गुरु से ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का अध्ययन किया।
वे एक महान संत होने के साथ-साथ कवि भी थे। उनकी रचनाओं में श्रीमद्भागवत एकादश स्कंध की मराठी-टीका, रुक्मिणी स्वयंवर, भावार्थ रामायण आदि प्रमुख हैं। संत एकनाथ ने जिस दिन समाधि ली, वह दिन एकनाथ षष्ठी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन पैठण में उनका समाधि उत्सव मनाया जाता है।
आपके लिए प्रस्तुत हैं संत एकनाथजी महाराज के दो रोचक प्रसंग-
प्रसंग 1 : उपकार और क्षमाशीलता
भारत के महाराष्ट्र प्रदेश में संत एकनाथ नामक एक तपस्वी महात्मा हुए हैं। वे अनेक सद्गुण भरे हुए थे। उनकी क्षमा तो अद्भुत थी। एक दिन वे नदी से स्नान कर अपने निवास स्थान की ओर लौट रहे थे कि रास्ते में एक बड़े पेड़ से किसी ने उन पर कुल्ला कर दिया।
एकनाथ ने ऊपर देखा तो पाया कि एक आदमी ने उन पर कुल्ला कर दिया था। वे एक शब्द नहीं बोले और सीधे नदी पर दोबारा गए, फिर स्नान किया। उस पेड़ के नीचे से वे लौटे तो उस आदमी ने फिर उन पर कुल्ला कर दिया। एकनाथ बार-बार स्नान कर उस पेड़ के नीचे से गुजरते और वह बार-बार उन पर कुल्ला कर देता।
इस तरह से एक बार नहीं, दो बार नहीं, संत एकनाथ ने 108 बार स्नान किया और उस पेड़ के नीचे से गुजरे और वह दुष्ट भी अपनी दुष्टता का नमूना पेश करता रहा। एकनाथ अपने धैर्य और क्षमा पर अटल रहे।
उन्होंने एक बार भी उस व्यक्ति से कुछ नहीं कहा। अंत में वह दुष्ट पसीज गया और महात्मा के चरणों में झुककर बोला- महाराज मेरी दुष्टता को माफ कर दो। मेरे जैसे पापी के लिए नरक में भी स्थान नहीं है। मैंने आपको परेशान करने के लिए खूब तंग किया, पर आपका धीरज नहीं डिगा। मुझे क्षमा कर दें।
महात्मा एकनाथ ने उसे ढांढस देते हुए कहा- कोई चिंता की बात नहीं। तुमने मुझ पर मेहरबानी की कि आज मुझे 108 बार स्नान करने का तो सौभाग्य मिला। कितना उपकार है तुम्हारा मेरे ऊपर! संत के कथन से वह दुष्ट युवक पानी-पानी हो गया।
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प्रसंग 2 : परमेश्वर का गुलाम बनो
संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला, नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें।
तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर। सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया।
घर में वह पत्नी से जाकर बोला, मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला, बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी। इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला, नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है?
तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु यह आठ दिन तेरे कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा? क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई।
मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।