जब हम पुरानी फिल्मों का संगीत सुनते हैं तो एक अलग ही रस और सुकून की हमें अनुभूति होती है। आज के कर्कश शोर से बिल्कुल अलग वह संगीत आज भी हम सुनते हैं तो शब्दों से लेकर संगीत सञ्चालन और भिन्न-भिन्न वाद्यों जिसमें शास्त्रीय वाद्य भी शामिल है, का अद्भुत प्रयोग सुनने को मिलता है।
फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' के ही राग अड़ाना के गीत 'झनक झनक तोरी बाजे पायलिया' को जब हम सुनते या देखते हैं तो गायन-वादन और नृत्य का अद्भुत त्रिवेणी संगम दिखता है। इस गीत का तबला तो अद्भुत ही है, जिसके कारण यह गीत एक प्रख्यात गीत बना। यह तबला और किसी का नहीं बल्कि बनारस घराने के महान तबला वादक पंडित सामता प्रसाद जी मिश्र ने बजाया था।
सामता प्रसाद जी मिश्र भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में गुदई महाराज के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म भारत के सबसे प्राचीन सांस्कृतिक शहर बनारस में 19 जुलाई 1920 को हुआ। बनारस एक ऐसी जगह है जहां नृत्य, गायन और वादन तीनों के ही घराने हैं। वहां पीढ़ी दर पीढ़ी संगीत को जायदाद के रूप में आगे बढ़ाया जाता है। सामता प्रसाद जी के पिता पं. बाचा मिश्र भी एक अच्छे कलाकार थे। पर वह अपने पुत्र के साथ नौ वर्ष तक ही रह पाए और उनका स्वर्गवास हो गया।
सामता प्रसाद जी ने तबले की आगे की शिक्षा पं. विक्रमादित्य मिश्र उपाख्य बिक्कु महाराज से ली। लगभग 15-16 वर्ष तक गुरु-शिष्य परंपरा के शिक्षण काल में घनघोर अभ्यास कर के उन्होंने अपने हाथ में एक तेज और सिद्धि प्राप्त कर ली कि उनका वादन जहां भी होने लगा उनकी प्रसिद्धि दुगुनी होने लगी।
वर्ष 1942 में इलाहबाद विश्वविद्यालय द्वारा अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें इन्हें प्रथम और महत्वूर्ण अवसर मिला। इस अवसर को उन्होंने ऐसा भुनाया कि इसके बाद उनकी कीर्ति विश्व में फैल गई। उन्हें कई विदेशों से आमंत्रण आने लगे। उन्होंने 5 दशक तक संगीत जगत में अपनी पताका लहराई। उनके बलिष्ठ बदन के सामने तबला एक छोटे बालक के समान लगता था। उनकी उंगलियां इस प्रकार तबले पर घूमती थी कि उन्हें तबले का जादूगर कहा जाने लगा। देश के लगभग सभी उच्चकोटि के कलाकारों के साथ उन्होंने सधी हुई संगत की।
सामता प्रसाद जी ने फिल्मों में भी अपनी कला का योगदान दिया। झनक-झनक पायल बाजे, मेरी सूरत तेरी आंखें, बसंत बहार, सुरेर प्यासी, असमाप्त, जलसा घर, नवाब वाजिद अली शाह और विश्व विख्यात फिल्म 'शोले' में भी आपका ही तबला सुनने को मिलता है।
गुदई महाराज अपने जीवन में कई मान-सम्मानों से सम्मानित हुए। उन्हें तबला का जादूगर, ताल-मार्तण्ड, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, हाफिज अली खान सम्मान के साथ सबसे महत्वपूर्ण पद्मश्री (1972 ) और पद्म भूषण (1992) प्राप्त हुए थे।
वर्ष 1994 में एक तबला वर्कशॉप में सम्मिलित होने आप पुणे पहुंचे थे। वहां दिल का दौरा पड़ने के कारण यह महान कलाकार चिरनिद्रा में सो गया।
आज भी दाएं-बाएं के बैलेंस के लिए संगीत के विद्यार्थी गुदई महाराज को रोल मॉडल मानते हैं। उन्होंने ही बाएं को घुमा कर बजाने का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। उनके बाएं(डग्गे) का अद्भुत वादन सुनने के लिए 'नाचे मन मोरा ........ धीगी धीगी' अवश्य सुनना चाहिए।