यूक्रेन में रूसी सेना पिट क्यों रही है?

राम यादव
यूक्रेन पर आक्रमण के बाद से रूसी सेना न केवल उस तेज़ी से आगे नहीं बढ़ पा रही है, जैसा रूस ने सोचा था, उसे जान-माल की भी भारी क्षति उठानी पड़ रही है।
 
24 फरवरी को यूक्रेन पर आक्रमण शुरू करने के बाद से रूसी सेना को भारी नुकसान झेलने पड़े हैं। उसने अपने कम से कम 10 शीर्ष जनरलों और कमांडरों को खो दिया है। पश्चिमी देशों के सैन्य संगठन नाटो का अनुमान है कि रूस ने अब तक 15,000 सैनिक खोए हैं, जबकि यूक्रेन का दावा है कि लगभग 23,500 रूसी सैनिक मारे गए हैं। यूक्रेन का यह भी कहना है कि लगभग 200 रूसी विमानों और 1,026 टैंकों को नष्ट कर दिया गया है। रूस ने यूक्रेन में खेत रहे अपने सैनिकों की आधिकारिक संख्या, 25 मार्च को, 1,351 बताई थी। तब से कोई नया आंकड़ा नहीं दिया है। 
 
दोनों पक्षों के ये आंकड़े कितने सही या ग़लत हैं, कहना कठिन है। किंतु पश्चिमी सैन्य विशेषज्ञ और प्रेक्षक एकमत हैं कि एक महाशक्ति होते हुए भी रूस को यूक्रेन में मुंह की खानी पड़ रही है। स्विट्ज़रलैंड के 'फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी' की सैन्य अकादमी में सैन्य अर्थशास्त्र विभाग के प्रमुख मार्कुस कोएप ने इस युद्ध का गहराई से विश्लेषण किया है। मीडिया के साथ एक बातचीत में उन्होंने कहा कि  ने युद्ध 'शौकियाना ढंग से' शुरू किया। यह युद्ध बहुत कुछ अफगानिस्तान में 1979 वाले रूसी आक्रमण की याद दिलाता है। युद्ध के संचालन में 19वीं सदी वाले ज़ार (सम्राट) कालीन रूसी सेनाओं में फैले व्यापक भ्रष्टाचार के भी कई उदाहरण मिलते हैं।
 
मार्कुस कोएप के अनुसार, रूस के पिटने का एक दूसरा बड़ा कारण यह है कि 1945 में समाप्त हुए द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से रूसी सेना ने कोई बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी है। अफ़ग़ानिस्तान भी 1980 वाले दशक के सोवियत नेताओं के लिए वैसा ही झटका था, जैसा आज यूक्रेन में पूतिन को झटका लग रहा है। रूसी विफलता से सीखा जा सकता है कि सफल होने के लिए किसी सेना को किन अलग तरीकों की ज़रूरत है।
 
रूसी-यूक्रेनी युद्ध केवल एक नकारात्मक उदाहरण के रूप में ही अच्छा है। वह दिखाता है कि कोई युद्ध जीतने के लिए एक एकीकृत कमांड-संरचना और कमांड की ऊपर से नीचे तक स्पष्ट श्रृंखला होना कितना महत्वपूर्ण है। युद्ध के हर दिन के साथ अटूट रसदपूर्ति का महत्व बढ़ता ही जाता है। रूसियों को रसदपूर्ति बनाए रखने में भारी कठिनाई हुई है। एक अत्यंत शक्तिशाली युद्धक टैंक भी तब बेकार हो जाता है, जब उसका ईंधन चुक जाता है, वह कीचड़-दलदल में फंस जाता है या किसी मरम्मत के लिए स्पेयर पार्ट्स नहीं मिल रहे होते हैं।
 
मार्कुस कोएप का मानना है कि 2008 में जॉर्जिया में रूसी हस्तक्षेप वाले युद्ध के आधार पर यूक्रेन के लिए भी कुछ वैसी ही योजना बनाई गई थी। यह योजना चली नहीं, और रूसी नेताओं के पास कोई दूसरा विकल्प है नहीं। पूतिन, युद्ध के लिए औचित्य के किसी एक कारण पर टिके रहते, तब भी ग़नीमत रहती। उन्होंने कभी यह कहा कि यूक्रेन को कोई स्वतंत्र देश रहने का अधिकार ही नहीं है, तो कभी यह कि वह सोवियत-कालीन रूस का एक ऐसा हिस्सा है, जिस पर नशेड़ियों और नाज़ियों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। कभी यह दावा किया कि वे दोनबास को यूक्रेन की मुट्‍ठी से मुक्त कराना चाहते हैं, तो कभी यह कहने लगे कि यूक्रेन की सहायता करने वाले देश तीसरे विश्वयुद्ध को न्यौता दे रहे हैं। किसी युद्ध का एक स्पष्ट और विश्वसनीय कारण नहीं होने पर जनता और सेना का पूरे दिल से सहयोग-समर्थन नहीं मिलता।
 
सेना में अवज्ञा की घातक प्रवृत्ति : जहां तक विशुद्ध सेना का और उसकी तैयारियों का प्रश्न है, तो कोएप याद दिलाते हैं कि युद्ध के लिए एक केंद्रीय कमान अभी हाल ही में बनी है। इससे पहले के रूसी युद्धों के इतिहास में जाने पर देखने में आता है कि रूसी जनरल, आपसी तालमेल के बदले, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने में अधिक व्यस्त रहते थे। सैनिकों को एकजुट करने और संयुक्त कमान गठित करने की कोशिश नहीं करते थे। हर कोई अपने लिए लड़ता था। माना जा रहा है कि जनरलों की नवगठित हाईकमान इस झंझट से मुक्ति दिलाएगी। लेकिन, रूसी सेना में आदेशों की अवज्ञा करने की भी एक घातक प्रवृत्ति है।
 
थलसेना में व्यापक भ्रष्टाचार : इस प्रवृत्ति के बार में मार्कुस कोएप ने बताया कि रूसी सेना के किसी सामान्य सैनिक का आदेश किसी दूसरे सामान्य सैनिक तक या तो पहुंचता नहीं, या दूसरा उसे मानता नहीं। वहां आदेशों के जो वर्गीकरण हैं, उनके अर्थ लगाने के सैनिकों के अपने नियम हैं। उदाहरण के लिए, आदेश के एक वर्ग का हिंदी में अर्थ 'गैर-निष्पादन' होगा। इस वर्ग के आदेश प्रायः खो जाते हैं, धीरे-धीरे लागू होते हैं या बिल्कुल ही नहीं लागू हो पाते। निष्पादक को लगता है कि वे उसके आर्थिक या राजनीतिक हित में नहीं हैं, इसलिए टाल जाओ। इसी प्रकार रूसी थलसेना में भ्रष्टाचार बहुत व्यापक है। डीज़ल-पेट्रोल की चोरी करना, सैनिक डिपो से या सेना के वाहनों की टंकियों से उन्हें निकालकर काले बाज़ार में बेच देना आम बात है। रूसी सेना में एक कहावत है कि 'एक मुद्रा का नाम रूबल है, दूसरी का ईंधन।' यानी ईंधन भी एक मुद्रा है। 
 
कोएप ने बताया कि पंद्रह साल पहले, सशस्त्र बलों की कार्यप्रणाली में सुधारों के साथ-साथ भ्रष्टाचार से लड़ने का प्रयास भी किया गया था, लेकिन बात 'ढाक के तीन पात' जैसी ही रही। राजनेताओं, आयुध अधिकारियों और सेनापतियों की जेबों सहित रक्षा मंत्रालय का बहुत सारा पैसा अभी भी सैनिकों की थैलियों तक जा रहा है। 
कोएप के शब्दों में, 'रूसी सेना यूक्रेन में जो कुछ दिखा रही है, वह शौकिया प्रदर्शन है। हम रसद की पूरी तरह से विफलता देखते हैं और कोई केंद्रीय प्रबंधन नहीं पाते। लेकिन यह सब नया नहीं है।' अफ़ग़ानिस्तान में रूसी सेना की धुनाई का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इस्लामी मुजाहिदीन वहां कंधे पर रखकर हवा में मार करने वाली अमेरिकी मिसाइलों से रूसी विमानों और हेलीकॉप्टरों को आराम से से मार गिराते थे। आज रूसी अपने बख्तरबंद वाहन यूक्रेनियों के हाथों से भारी मात्रा में खो रहे हैं। वे 20वीं सदी का यंत्रीकृत युद्ध दिखा रहे हैं। हाई-टेक से इसका बहुत कम ही लेना-देना है। सोवियत काल की कई पुरानी अस्त्र-शस्त्र प्रणालियां उपयोग में हैं। हाइपरसोनिक हथियारों-जैसी कुछ नई प्रणालियां भी हैं, लेकिन भारी हानि और भ्रष्टाचार की मार से सेना कुछ ख़ास कर नहीं पा रही है।
 
कोएप के अनुसार, रूस अपने सकल घरेलू उत्पाद का चार प्रतिशत रक्षा-बजट पर ख़र्च करता है। युद्ध से पहले यह बजट 61 अरब डॉलर था, जो भूतपूर्व सोवियत संघ वाले समय की तुलना में बहुत कम है। सोवियत काल में वह 260 अरब डॉलर वार्षिक हुआ करता था। इन्हीं सब कारणों से यूक्रेन में रूसी सेना की प्रगति बहुत धीमी और नुकसान बहुत अधिक है। एक दिन में वह औसतन दो किलोमीर ही आगे बढ़ पाती है। कीचड़ भरी जमीन के कारण रूसी सेना को सड़कों की शरण लेनी पड़ती है। इसलिए यूक्रेनी सैनिक समय रहते जान लेते हैं कि दुश्मन कहां हैं और कब आ रहे हैं। यूक्रनी रणनितिकार ड्रोन विमानों द्वारा रूसी रेलवे जंक्शनों को निशाने पर लेते हैं, क्योंकि रूसी सेना रसदपूर्ति के लिए रेलवे पर ही अधिक निर्भर है। 
 
स्विट्ज़रलैंड के मार्कुस कोएप ने बताया कि यूक्रेन वालों को भारी हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता, अनजाने में, रूसी सेना ही है। यूक्रेन पहले ही 200 से अधिक मुख्य रूसी युद्धक टैंकों पर कब्जा कर चुका है। कुछ हफ्तों में, जब उन्हें ठीक-ठाक कर लिया जाएगा, तो रूसियों के खिलाफ ही उन्हें इस्तेमाल किया जाएगा।
 
विश्वास करना कठिन है कि बाहर से एक महाशक्ति दिखता रूस, भीतर से इतना खोखला हो सकता है कि यूक्रेन जैसे एक छोटे-से देश को, जो तीन दशक पूर्व तक उसका एक हिस्सा हुआ करता था, इतना भी नहीं जानता कि ठीक से डटकर उससे लड़ पाता।
 

सम्बंधित जानकारी

अगला लेख