आध्यात्मिक साधना के शिखर संत एवं धर्म, अध्यात्म व अहिंसा के प्रखर प्रवचनकार आचार्य विशुद्धसागरजी महाराज ने शनिवार को जैन धर्म के सिद्घांत, मुनिचर्या, पंथवाद सहित अनेक विषयों पर चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंश .-
प्रश्न- वर्तमान में जैन मुनियों को शहर में आगम अनुसार चर्या करने में दिक्कतें आ रही हैं ऐसे में कुछ नियम शिथिल किए जा सकते हैं क्या? आचार्यश्री- श्रवणाचार में विघ्नचार के लिए कोई स्थान नहीं है।
प्रश्न- श्रावक एवं श्रमण धर्म में क्या फर्क है? आचार्यश्री- श्रावक धर्म में दान और पूजन की प्रमुखता है, इनके बिना श्रावक श्रावक नहीं कहलाता। उसी प्रकार यति धर्म में ध्यान और अध्ययन की प्रमुखता है ध्यान और अध्ययन के बिना मुनि धर्म भी नहीं रहता है।
प्रश्न- पंचम काल में मोक्ष की उपलब्धि भरत क्षेत्र में संभव नहीं है फिर साधु बाना पहनने से क्या होगा? आचार्यश्री- जैसे आम के वृक्ष को फल देने के बाद भी हम उसे सुरक्षित रखते हैं उसी प्रकार पंचम काल में मोक्ष नहीं है। पर मोक्ष का मार्ग है। जैसे मौसम आने पर उसी आम के वृक्ष पर फल आते हैं उसी प्रकार हमने पंचम काल में साधु का बाना धारण किया है। उसी से भविष्य में मोक्ष मिलेगा।
प्रश्न- भ्रष्टाचार, तनाव, संदेह और अविश्वास के युग में व्यक्ति को क्या करना चाहिए? आचार्यश्री- यदि जीव आत्म स्वतंत्रता का चिंतन करे तो तनाव मुक्त होने में देर नहीं लगेगी। लगता है कि व्यक्ति भ्रष्टाचार दूसरे के साथ कर रहा है पर सत्य है कि स्वयं के साथ ही भ्रष्टाचार कर रहा है।
प्रश्न- धर्म प्रभावना के उद्देश्य से कई मुनि मंदिरों व तीर्थों का निर्माण करा रहे हैं। क्या यह उचित है? आचार्यश्री- आत्म प्रभावना के साथ धर्म प्रभावना करना श्रेष्ठ है। वर्तमान के नवीन मंदिर भविष्य के प्राचीन मंदिर होंगे। इसलिए मंदिर निर्माण उचित ही है। आत्म शांति का साधन धर्मस्थान होते हैं।
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प्रश्न- आजकल समाज पंचकल्याणक एवं चातुर्मास जैसे आयोजन में अधिक खर्च करता है क्या इसे कम कर इसका पैसा शिक्षा, शोध जैसे कामों में नहीं लगाया जा सकता? आचार्यश्री- चातुर्मास व पंचकल्याणक अर्थ व्यवस्था से ज़ुडा हुआ है। आत्म कल्याण से जुड़ा है। यह तो भक्तों की भावना है तो वे खर्च कर रहे हैं। धर्म का अर्थ में कोई प्रयोग नहीं है। धर्म वीतराग मार्ग है, वित्त राग मार्ग नहीं है।
प्रश्न- आजकल पंथवाद को लेकर विवाद बढ़ते जा रहे हैं? आचार्यश्री- यथार्थ में धर्म में कोई पंथवाद नहीं है। अहम के पंथ मार्ग हैं। वस्तुतः स्वतंत्रता, वस्तु स्वभाव ही धर्म है।
प्रश्न- जैन धर्म में परिग्रह का त्याग बताया गया है। लेकिन सबसे ज्यादा परिग्रह यहीं दिखता है। आचार्यश्री- परिग्रह का होना और स्वीकारना दोनों में अंतर है। जो प्राप्त हो रहा है वह पुण्योदय का फल है, जो उसमें लिप्त हो रहा है वह परिग्रह पाप रूप है। हर वर्ग का व्यक्ति धनाढ्य हो सकता है मात्र जैनी ही नहीं। आज आवश्यकता है संयमी जीवन जीने की।