पर्यावरण और हम : इनाम का असली हकदार कौन ? पढ़ें रोचक कहानी

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Kids Story on Environment
- डॉ. उषा यादव   
 
'पर्यावरण और हम' विषय पर छठी से आठवीं कक्षा की बच्चियों के लिए जिलास्तरीय प्रतियोगिता घोषित हुई। छठी कक्षा में पढ़ने वाली महक इस घोषणा को सुनकर रोमांचित हो उठी। उसे चित्र बनाने का बहुत चाव है और रंगों से खेलना अब उसका पहला शौक बन चुका है। अपने विद्यालय में उसने कई पुरस्कार जीते हैं। नगर स्तर पर भी दो बार पुरस्कृत हुई है, पर जिला स्तरीय प्रतियोगिता के नाम से...।
 
 
सच, डर तो लगता ही है। आखिर बच्ची है। इतना बड़ा जिला है आगरा। आसपास के शहरों, कस्बों, गांवों में न जाने कितने पूर्व माध्यमिक विद्यालय होंगे। अखबारों ने सब जगह प्रतियोगिता की सूचना पहुंचा दी है। वैसे भी आयोजकों ने सब जगह पत्र भेजे हैं। दूरदराज से बच्चियां आएंगी। चित्र बनाएंगी। अपनी कल्पना को कागज पर उतारेंगी। रंगों से सजीव करेंगी। पता नहीं ऐसे में वह कहीं टिक भी पाएगी या नहीं?
 
एक बार तो महक के मन में यही आया कि वह प्रतियोगिता में भाग न ले। कक्षाध्यापिका के पास जाकर अपना लिखा हुआ नाम कटवा दे। कोई बहाना बना देगी कि उस दिन जरूरी काम से बाहर जाना है। प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकेगी। पर इस झूठ के लिए मन तैयार नहीं हुआ। यह तो खेल शुरू होने से पहले ही हार मान लेने वाली बात हो गई। जब उसे कला से इतना प्रेम है तो आगे बढ़कर प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए। पुरस्कृत हो या न हो, इसकी क्या चिंता? आखिर सैकड़ों बच्चियां भाग लेंगी। दूर-दूर से आएंगी। सभी तो इनाम लेकर नहीं लौटेंगी। प्रथम, द्वितीय, तृतीय के बाद 11 सांत्वना पुरस्कार हैं। सिर्फ 14 बच्चियां उनकी हकदार होंगी। फिर भी हर स्कूल से 2-2 बच्चियां भेजी जा रही हैं। सैकड़ों की तादाद हो जाएगी। अपने विद्यालय से जब उसे चुन लिया गया है, तो पूरे उत्साह से उसे प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए। हार की संभावना से डरकर कदम पीछे हटाना उचित नहीं है। 
 
बस, महक ने अपना मन पक्का कर लिया। उत्साह से भरकर वह घर में इस विषय पर चर्चा करने लगी। पिताजी से कहकर नया रंगों का बॉक्स मंगाया, नई पेंसिल मंगाई। रोज शाम को चित्र बनाने का अभ्यास भी करने लगी। उससे डेढ़ साल बड़े भाई मयंक को उसकी यह तेजी तनिक नहीं सुहाई। वह मन ही मन छोटी बहन से जलता था। उम्र में डेढ़ वर्ष बड़ा होने पर भी अभी छठी कक्षा में ही पढ़ रहा था। 
 
विद्यालय अलग थे, पर दोनों की किताबें एक जैसी थीं। परीक्षा होने पर जब महक के अंक ज्यादा आते, तो वह कुढ़कर रह जाता था। उसका बस चलता तो वह बहन का परीक्षाफल फाडकर फेंक देता, पर मां-पिताजी के डर से ऐसा करना संभव न था। जैसे-तैसे उसके अच्‍छे अंकों को झेल भी ले, पर यह जब-तब किसी चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लेकर पुरस्कार जीतना तो मयंक बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं कर पाता था। इस बार भी वह भगवान से यही मनाने लगा कि प्रतियोगिता वाले दिन महक को इतना तेज बुखार चढ़ जाए कि बिस्तर से पांव तक नीचे न उतार सके। फिर देखेगा वह, बहनजी कैसे प्रतियोगिता में भाग लेती हैं?
 
पर मयंक के बुरा मानने से क्या होना था? 
 
प्रतियोगिता का दिन आया और महक सही-सलामत बिस्तर से उठ खड़ी हुई। पिछली शाम को ही उसने अपनी सारी तैयारी कर ली थी। पेंसिल, रंग, रबर एक बस्ते में रख लिए थे। कागज प्रतियोगिता स्थल पर ही मिलना था।
 
निर्धारित समय से आधा घंटे पहले ही महक घर से निकल गई। संयोग की बात थी, पिताजी दो दिन पहले कार्यालय के काम से बाहर चले गए थे। मां के पास सुबह नानी का फोन आ गया कि अचानक अस्वस्‍थ हो जाने की वजह से नानाजी को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि समय पर इलाज शुरू हो जाने से तकलीफ काबू में है। पर मां तो फोन सुनते ही घबरा गईं और तुरंत नानी के यहां जाने के लिए तैयार हो गईं।  
जल्दी-जल्दी कुछ अल्पाहार बनाकर मेज पर रख दिया और बच्चों को दिन में संभलकर रहने की सीख देकर घर से निकल गई। कह गईं, शाम तक जरूर घर लौट आएंगी। चूंकि रविवार का दिन था, विद्यालय की छुट्टी थी इसलिए मयंक पर ही घर की देख-रेख की जिम्मेदारी आ गई। 
 
जैसे ही महक अपना बैग लेकर घर से निकली, मयंक की निगाह उस प्याली पर पड़ी जिसमें उसकी बहन ने अपने ब्रश भिगो रखे थे। नानी के फोन की वजह से चूंकि घर का माहौल भारी हो गया था, मां घबरा गई थीं इसलिए महक भी अनमनी हो गई थी। उसे प्रतियोगिता के लिए घर से निकलते समय प्याली से अपने ब्रश निकालने की याद नहीं रही। सिर्फ बाकी सामान सहित वह घर से निकल गई थी।
 
अब प्याली में पड़े उसके चारों ब्रश देखकर मयंक की आंखें चमक उठीं। उसे मन ही मन गहरा संतोष मिला- वाह! मजा आ गया। अब देखता हूं बहन जी कैसे प्रतियोगिता में भाग लेती हैं। कई दिन से इतराई हुई थीं। जमीन पर पांव नहीं पड़ रहे थे। सोच रही होंगी, पहला इनाम इन्हीं को तो मिलने जा रहा है। अब प्रतियोगिता शुरू हो जाने पर जब बस्ते में ब्रश न पाकर कैसी चुहिया सी शक्ल निकल आएगी। मजा आ जाएगा। आसपास बैठी सभी अजनबी लड़कियों में भला कोई अपना ब्रश क्यों देने लगी? उस समय किसी से कोई चीज मांगने की इजाजत भी नहीं होती। अपने सामान से ही काम चलाना होगा। कुछ देर बैठकर रुंआसा चेहरा लेकर महक बहनजी घर लौट आएगी। तब खुशी से ताली बजाते हुए उन्हें छेड़ेगा, क्या हाल रहा प्रतियोगिता का? दो घंटे का समय मिला था। क्या तुमने सिर्फ दस मिनट में अपना चित्र बना दिया? जमा करके लौट भी आईं?
 
खुशी से पागल हो उठा था मयंक।
 
पर पता नहीं क्या बात थी कि मेज पर रखे नाश्ते की तरह हाथ बढ़ाने का उसका मन न हुआ। बहन का रुंआसा चेहरा रह-रहकर आंखों में कौंध रहा था। अपनी छोटी बहन से हर साल कलाई पर राखी बंधवाता है वह। उपहार के साथ रक्षा का वचन देता है। आज उसकी बहन संकट में है और वह घर में निश्चिंत बैठा है। छि: कैसा भाई है वह? अपनी बहन को घिर रहे संकट से बचाने के लिए क्या कुछ करना फर्ज नहीं है?
 
अगले ही पल मयंक ने प्याली से वे चारों ब्रश निकाले और घर में मुख्य द्वार पर ताला लगाकर सड़क पर आ गया। साइकल उसके पास थी। इतनी तेज पैडल चलाए कि रास्ते की दूरी दस मिनट में नाप ली। दौड़ते हुए प्रतियोगिता स्थल पर पहुंचकर उसने आयोजकों से पूछा- प्रतियोगिता शुरू हो गई है?
 
अभी पांच मिनट बाकी हैं, लेकिन तुम क्यों आए हो बेटा? यह प्रतियोगिता केवल बच्चियों के लिए है। 
 
महोदय, मेरी बहन महक इसमें भाग लेने के लिए आई है। नारायणी कन्या माध्यमिक विद्यालय आगरा की कक्षा 6 की छात्रा है वह। अपने ब्रश घर में भूल आई हैं। कृपया इन्हें उसके पास पहुंचा दें।
 
ठीक है, कहते हुए आयोजकों में से एक ने वह ब्रश थाम लिए और 'कुमारी महक, कक्षा 6 नारायणी कन्या विद्यालय, आगरा' दोहराता हुआ वहां से चला गया। मयंक तब तक वहीं खड़ा रहा, जब तक कि उस व्यक्ति ने लौटकर नहीं बता दिया कि भेजी हुई सामग्री बच्चों को दे दी गई है। धन्यवाद महोदय, मयंक ने माथे का पसीना पोंछते हुए कहा और अपनी साइकल से घर लौट पड़ा। अगले सप्ताह प्रतियोगिता का परिणाम घोषित हुआ तो पहला पुरस्कार नारायणी कन्या माध्यमिक विद्यालय की कक्षा 6 की छात्रा कुमारी महक को मिला था। 
 
महक गद्-गद् थी- भैया, सिर्फ तुम्हारी वजह से...
 
मयंक पहली बार अपनी बहन की किसी सफलता पर ईर्ष्याग्रस्त होने की जगह सच्चे मन की खुशी अनुभव कर रहा था। मुंह से कुछ नहीं बोला वह, पर दौड़कर चौराहे के 'नितिन मिष्ठान्न भंडार' से बूंदी के लड्डू ले आया और उसमें से एक बहन के मुंह में ठूंस दिया। उसका रोम-रोम कह रहा था- नन्हीं, हर साल मेरी कलाई पर राखी बांधती हो तुम। पिताजी के दिए रुपए तुम्हें थमा देने के सिवाय और क्या करता हूं मैं। इस बार पहली बार समय पर प्रतियोगिता स्थल पर तुम्हारे ब्रश पहुंचाए हैं। संकट की घड़ी में तुम्हारे लिए यदि इतना भी न करता तो क्या खुद को राखी बंधवाने का सही हकदार साबित कर पाता? 
 
महक अपनी सफलता पर जितनी खुश थी, मयंक उससे ज्यादा प्रसन्न उसे अनूठा उपहार देकर था।
  
साभार - देवपुत्र 

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