हाल ही में भारत में पक्षीज्वर (बर्डफ्लू) के कुछ नए मामले देखने में आए। बीमार स्वच्छंद पक्षियों या पालतू मुर्गे-मुर्गियों से मनुष्यों को भी लगने वाली इस बीमारी का एशिया में पिछला सबसे भयंकर प्रकोप 1997 में हुआ था। लगभग 300 लोग बीमार हुए थे। क़रीब आधे दम तोड़ बैठे। उस समय उसके वायरस H5N1 का सीधे मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण नहीं लग रहा था। लेकिन, नीदरलैंड (हॉलैंड) और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने उसे अब यह क्षमता भी प्रदान करदी है। डर यह है कि यह वायरस आतंकवादियों के हाथों में एक नया हथियार बन सकता है।
पक्षीज्वर के मूल वायरस H5N1 में अभी यह क्षमता नहीं है कि उस से संक्रमित कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को भी उस की छूत लगा सके। लेकिन, नीदरलैंड में रोटरडाम स्थित एरास्मुस विश्वविद्यालय के प्रो. रोन फ़ौशीयर की शोध-टीम ने जीनों की हेराफेरी के बिना ही, एक पारंपरिक तरीके से, अपनी प्रयोगशाल में पिछले वर्ष H5N1 वायरस में यह क्षमता भी पैदा कर दी। इस प्रयोग पर हम गत दिसंबर में 'वेबदुनिया' के इसी स्तंभ में विस्तार से प्रकाश डाल चुके हैं।
'साइंस' ने डच शोध का प्रकाशन टालाः प्रो. रोन फ़ौशीयर ने अपने प्रयोग का विवरण प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पास प्रकाशन हेतु भेजा, किंतु 'साइंस' ने प्रकाशन का निर्णय टालते हुए अमेरिका के 'एडवाइजरी बोर्ड ऑन बायोसिक्यूरिटी' ( जैविक सुरक्षा परामर्श मंडल) से उसकी राय मांगी। बोर्ड ने ऐसा कोई लेख प्रकाशित नहीं करने की सलाह दी। उसे डर था कि लेख प्रकाशित होने पर आतंकवादी उस के आधार पर और भी जानलेवा किस्म के नए H5N1 वायरस वाले जैविक 'किलर बम' बना कर इस महाघातक विषाणु को आम जनता के बीच फैलाने और भारी पैमाने पर लोगों की जान लेने का प्रयास कर सकते हैं।
डर यह भी था कि एक बार इस बीमारी के फूटते ही वह पवनवेग से पूरी दुनिया में फैल सकती है। उसे रोक पाना संभव नही होगा, क्योंकि वह इतनी उग्र व संक्रामक होगी कि जिस तेज़ी से वह फैलेगी, उस तेजी से उससे बचाव का कोई टीका विकसित नहीं किया जा सकता। ऐसा संभवतः पहली बार हुआ है कि आतंकवादियों के डर से 'साइंस' पत्रिका ने किसी वैज्ञानिक शोध के प्रकाशन को टल देना ही उचित समझा, हालांकि अब जल्द ही वह इस लेख को प्रकाशित करने वाली है।
'नेचर' ने अमेरिकी शोध प्रकाशित कियाः हुआ यह है कि इस बीच जापान के प्रो. योशीहिरो कावाओका के नेतृत्व में अमेरिका में विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय की एक शोध-टीम भी, एक दूसरे तरीके से, पक्षीज्वर के H5N1 वायरस को सीधे मनुष्य से मनुष्य को संक्रमित करने की क्षमता प्रदान करने में सफल रही है। उसका लेख मई के पहले सप्ताह में विज्ञान पत्रिका 'नेचर' में प्रकाशित भी हो गया है।
सीधे मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण लगने का मतलब है कि अब तक कोई व्यक्ति पक्षीज्वर से पीड़ित तभी होता है, जब वह H5N1 वायरस से संक्रमित किसी जीवित या मृत पक्षी या उसके बीट के संपर्क में आता है। लेकिन, किसी एक बीमार व्यक्ति से किसी दूसरे व्यक्ति को सीधे-सीधे छूत नहीं लगती।
डच और अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा H5N1 वायरस का एक ऐसा संस्करण तैयार किया है, जो उससे संक्रमित व्यक्ति की छींक, खांसी, नाक के पानी या थूक के माध्यम से आस-पास के दूसरे व्यक्तियों तक भी पहुंच कर उन्हें बीमार कर सकता है। इस समय पक्षीज्वर से पीड़ित होने पर औसतन हर दो में से एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है (50 प्रतिशत मृत्युदर)। आशंका यही रही है कि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित 'सुपर वायरस' से होने वाली मृत्यु की दर इससे अधिक होगी।
महाघातक वायरसः प्रश्न उठता है कि एक ऐसे महामारक वायरस का विकास करने की भला जरूरत ही क्या थी, जो गलत लोगों के हाथों में पड़ कर एक महाघातक जैविक बम भी बन सकता है?
इसका उत्तर देते हुए एरास्मुस विश्वविद्यालय के मुख्य विषाणु-वैज्ञानिक प्रो. अल्बर्टुस ओस्टरहाउस ने गत वर्षा कहा, 'H5N1 वायरस का यदि कभी अपने आप प्राकृतिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होता है और हम यह देखना चाहते हैं कि अब क्या कोई वैश्विक महामारी भी फैलती है, तो उस के विरुद्ध कोई टीका विकसित करने में कम से कम आधा साल व्यर्थ ही बीत जाएगा।
इस दौरान लाखों-करोड़ों लोग उससे बीमार हो सकते हैं और मर भी सकते हैं। हमारा समझना है कि यदि एकदिन सचमुच कोई विश्वमहामारी फैली, तो हमारे प्रयोग के आधार पर बना टीका लाखों-करोड़ों की जान बचा सकता है।'
यही बात अब अमेरिकी वैज्ञानिक अपने शोध के बार में भी कहते है। यानी, सभी शोधकर्ता यह मान कर चल रहे हैं कि पक्षीज्वर का वर्तमान वायरस, एक न एक दिन, एक आदमी से निकल कर दूसरे आदमी को बीमार करने की क्षमता अपने आप प्राप्त कर लेगा। अतः उसे यह समय देने से बेहतर है कि इससे पहले कि प्रकृति उसे यह क्षमता प्रदान करे, हम प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थितियों में उसे यह क्षमता प्रदान कर उससे बचाव के उपाय भी किसी विश्वव्यापी महामारी के फैलने से पहले ही विकसित कर लें।
अमेरिकी शोध की नवीनताः प्रो. योशीहिरो कावाओका की टीम ने H5N1 के उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के लिए डच वैज्ञोनिकों से भिन्न रास्ता अपनाते हुए उसकी जीवरासायनिक संरचना पर ध्यान केंद्रित किया और उसमें कुछ हेरफेर किये। H5N1 वायरस में H5 हेमाग्लुटीनिन (Haemagglutinin). नाम का एक प्रोटीन है, जो वायरस को श्वसनतंत्र वाली कोशिकाओं की बाहरी दीवार (कोशिका भित्ति) को भेद कर उनके भीतर घुसने में सहायक बनता है।
इस प्रोटीन की बनावट पर ही यह निर्भर करता है कि वायरस किस प्रकार की, यानी शरीर के किन अंगों की कोशिकाओं के भीतर घुस पाएगा और किन के भीतर नहीं। वायरस किसी कोशिका के भीतर घुसने में सफल होने के बाद ही वहां अपनी संख्या इस तरह बढ़ा सकता है कि कुछ समय बाद पूरा शरीर बीमारी की चपेट में आ जाए।
बर्ड और स्वाइन फ्लू के वायरस का मेलः प्रो. कावाओका की टीम के वैज्ञानिकों ने पाया कि पक्षीज्वर के वायरस का H5 (हेमाग्लुटीनिन) प्रोटीनी पक्षियों की श्वसन प्रणाली वाली कोशिकाओं पर तो आसानी से बैठ और फिर उनमें पैठ भी जाता है, लेकिन मनुष्यों जैसे स्तनपायी प्राणियों की श्वसन प्रणाली वाली कोशिकाओं के साथ ऐसा नहीं कर पाता।
इसलिए उन्होंने H5 की बनावट में तब तक इस तरह हेरफेर की, जब तक यह प्रोटीन स्तनपायियों की श्वसन कोशिकोओं को भी भेदने लायक नहीं बन गया। इस सफलता के बाद उन्होने H5 प्रोटीन को सूअर-ज्वर (स्वाइनफ्लू) के वायरस H1N1से मिला दिया।
स्मरणीय है कि 2009 में स्वाइनफ्लू का बड़ा शोर मचा था कि वह मेक्सिको से चल कर सारी दुनिया में बड़ी तेजी से फैल रहा है और बहुत ही प्राणघातक रूप धारण कर सकता है। H5 और H1N1 के मेल से एक बार फिर H5N1का एक ऐसा नया संस्करण मिला, जो स्तनपायी प्राणियों को भी बीमार करने के सक्षम है।
वैज्ञानिकों ने चितराला (मार्टन) कहलाने वाले एक समूरदार स्नपायी जानवर को संक्रमण लगाने के लिए इस नए वायरस के बार-बार इंजेक्शन दिए। नया वायरस कुछ पीढ़ियों के भीतर चितराला जानवरों में इस तरह ढल गया कि एक से दूसरे चितराला को सहजता से उसकी छूत लगने लगी। यह देखने के लिए कि उनके शरीर में रहते हुए नए वायरस में और क्या कुछ बदला है, वायरस की बनावट को फिर से जांचा-परखा गया।
वैज्ञानिकों ने पाया कि वायरस की जैवरासायनिक संरचना में H5 चार जगहों पर बदला हुआ है। उनका अनुमान है कि इन्हीं परिवर्तनों के कारण वायरस में अब यह क्षमता आगई है कि एक से दूसरे चितराला को उसकी सीधी छूत लगने लगी है।
मनुष्यों पर अभी प्रयोग नहीं हुआः चितराला को हम मनुष्यों का ही एक बहुत अच्छा रोग-मॉडल माना जाता है। इस कारण मनुष्यों पर नए वायरस के संक्रमण का कोई प्रयोग किये बिना ही यह माना जा रहा है कि उस में एक आदमी से दूसरे आदमी तक संक्रमित होने की क्षमता आगई है। अतः अब किसी टीके के विकास का काम भी शुरू किया जा सकता है।
'नेचर' में इस खोज का विवरण प्रकाशित होने के बाद पिछले वर्ष इसी तरह का 'किलर वायरस' बना चुके नीदरलैंड में एरास्मुस विश्वविद्यालय के प्रो. रोन फौशीयर ने कहा, 'अब हम भी अपना काम आगे बढ़ा सकते हैं।' उनके शोधपत्र के प्रकाशन का रास्ता भी अब साफ हो गया है। 'साइंस' पत्रिका उसे शीघ्र ही प्रकाशित करेगी।
रोन फौशीयर और उन के सहयोगियों ने शुरू में पक्षीज्वर वाले मूल H5N1 वायरस के जीनों में हेराफेरी की और हर बार चितराला जानवर को उसका संक्रमण लगाया। लेकिन, इस विधि से उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। तब उन्होंने बिल्कुल पुराने तरीके से संक्रमित चितराला की एक पीढ़ी से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी पीढ़ी को संक्रमण लगाया और पाया कि इन जानवरों के शरीर में वायरस अपने आप इस तरह और भी बदलता रहा कि पांचवीं पीढ़ी के बाद उनके बीच अपने आप एक से दूसरे को छूत लगने लगी। प्राथमिक रिपोर्टों में कहा गाया कि इन उत्परिवर्तनों से वायरस की प्राणघातकता कम नहीं हुई, बल्कि संक्रमित चितराला एक के बाद एक मरते गये।
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काफी सरल है सुपर वायरस की डच विधिः 'एक के बाद एक चितराला मरते जाने' वाली बात इतनी गंभीर थी कि फौशीयर का शोधपत्र प्रकाशित करने से सबको संकोच होने लगा। सभी लोग सोचने लगे कि यदि ऐसा महाघातक वायरस भूल-चूक से किसी प्रयोगशाला से बाहर निकल कर हवा में फैल गया या उसे बनाने का रहस्य आतंकवादियों के हाथ लग गया, तब क्या होगा?
जर्मनी के एक सबसे जाने-माने विषाणु (वायरस) वैज्ञानिक प्रो. अलेक्सांदर केकूले के अनुसार 'यह विधि इतनी सरल है कि हर कोई उसे आजमा सकता है। आपको केवल एक दड़बा चाहिये, सही जानवर चाहियें, थोड़ा-सा धीरज चाहिए और चाहिए अपने बचाव के उपाय।'
इस बीच पता चला है कि रोन फौशीयर वाला सुपर वायरस भी उतना जानलेवा नहीं होना चाहिये, जैसा पहले समझा जा रहा था। अमेरिकी शोधकों के H5N1 वायरस से चितराला एक-दूसरे को छूत लगा कर एक के बाद एक बीमार तो होते हैं, पर मरते नहीं।
इसे इस बात का संकेत माना जा रहा है कि इस नए वायरस का मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण शायद उससे कहीं कम प्राणघातक होगा, जितना वह अब तक के मूल पक्षीज्वर वाले वायरस के मामलों में देखने में आता है। फौशीयर वाले प्रयोगों में चितराला शायद इसलिए मरे, क्योंकि उन्हें बीमार करने के लिए वायरस की कहीं अधिक मात्रा वाले इंजेक्शन दिये गये।
मेडिकल उपयोग बनाम आतंकवादी दुरुपयोगः जो भी हो, सभी शंकाओं का सामाधान अभी नहीं हो पाया है। आतंकवादियों वाले ख़तरे को भी झुठलाया नहीं जा सकता। तब भी, इन दोनों शोधपत्रों के प्रकाशन के समर्थक वैज्ञानिकों का कहना है कि अब वे जान गए हैं कि सीधे आदमी से आदमी को संक्रमित करने वाले पक्षीज्वर का वायरस कैसा होना चाहिये।
यही उत्परिवर्तन यदि किसी स्तनपायी प्रणी को प्राकृतिक रूप से एक ही साथ पक्षीज्वर और सूअर ज्वर, दोनों का संक्रमण लगने से उसके शरीर में होता और बाद में हम मनुष्यों तक पहुंचता, तो उसे समझने-बूझने में महीनों लग जाते। उनका तर्क है महामारी फैला सकने वाले रोगाणुओं के बारे में इस तरह के प्रयोग करने का अधिकार उन्हें होना ही चाहिये, क्योंकि उनका मेडिकल उपयोग आतंकवादी दुरुपयोग से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
रोगाणु प्रयोग शालोओं में सही चेतना का अभावः जर्मनी में संक्रामक बीमारियों के अध्ययन एवं रोकथाम के लिए बने केंद्रीय संस्थान बर्लिन के 'रोबेर्ट कोख़ इंस्टीट्यूट' के अध्यक्ष लार्स शाडे को वैज्ञानिकों के लिए शोध के अधिकार पर आपत्ति तो नहीं है, पर वे साथ ही यह भी कहते हैं कि जर्मनी के 21 विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं के बीच किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि रोगजनक अत्यंत ख़तरनाक सूक्ष्मजीवाणुओं पर काम करने वाली प्रयोगशालाओं के लिए 2008 में बने सुरक्षा नियमों का ठीक से पालन नहीं हो रहा है।
कतिपय शोधकर्ता इस बात को हंसी में उड़ा देते हैं कि ऐसे भी आतंकवादी हो सकते हैं, जो खतरनाक वायरस चुराने की ताक-झांक में रहते हैं। सोचने की बात है कि जब जर्मनी जैसे उच्चविकसित देश की प्रयोगशालाएं पूरी तरह सुरक्षित नहीं कही जा सकतीं और वैज्ञानिकों में उत्तरदायित्व-बोध की कमी है, तो फिर भारत जैसे विकासमान देशों की प्रयोगशालाओं का क्या हाल हो सकता है?
लापरवाही और भूलचूकः कई बार आतंकवादियों से भी अधिक ख़तरनाक प्रयोगशाला कर्मचारियों की लापरवाही या भूलचूक हो सकती है। गरम देशों की बीमारियों संबंधी हैम्बर्ग स्थित एक जर्मन प्रयोगशला में मार्च 2009 में ऐसा ही हुआ। अत्यंत प्राणघातक एबोला वायरस से संक्रमित चूहों के साथ एक प्रयोग के दौरान एक महिला कर्मचरी के हाथ की इंजेक्शन की सुई तीन परतों वाले उसके दस्तानों को बींध कर उसके दूसरे हाथ में लग गई।
एक विशेष अस्पताल में तीन सप्ताह तक पूरी तरह अलग-थलग रखे जाने के बाद ही पता चल पाया कि सौभाग्य से उसे एबोला वायरस का संक्रमण नहीं लगा था। यह वायरस इतना प्राणघातक है कि उसका संक्रमण लग जाने पर जीवित बच पाना बहुत ही मुश्किल है।
सरकारें भी बात छिपाती हैं: प्रयोगशालाएं और सरकारें कई बार बदनामी से बचने के लिए इस तरह की घटनाओं को दबा भी देती हैं। फेफड़ों में जलन की अत्यंत जानलेवा बीमारी 'सार्स' के प्रसंग में 2002-2003 में अमेरिका और चीन में कम से कम ऐसे दो मामले हो चुके हैं, जब प्रयोगशाला कर्मियों ने अपनी गलती को छिपाने की कोशिश की।
चीन की सरकार ने तो नवंबर 2002 में अपने यहां अकस्मात भड़की इस भयंकर बीमारी की जानकारी को लगभग तीन महीनों तक छिपाने की कोशिश की और जब बात छिपाने लायक नहीं रही, तब फ़रवरी 2003 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) को उसकी सूचना दी।
चीन ने दुनिया को अंधेरे में रखाः उस समय 'सार्स' से विश्व भर में 8273 लोग पीड़ित हुए थे, जिनमें से कम से कम 775 की सीधे उसी के कारण मृत्यु होगई थी। एक रूसी वैज्ञानिक ने तो यहां तक दावा किया था कि 'सार्स' का वायरस वास्तव में चीन के एक ऐसे जैविक बम का हिस्सा था, जिसे बनाने की सैनिक प्रयोगशाला से यह वायरस लीक हो गया था। उस समय यह भी सुनने में आया था कि 'सार्स' से पीड़ित प्रथम रोगी चीनी सेना के कर्मचारी रहे होने चाहिए, क्योंकि उनका इलाज़ एक सैनिक अस्पताल में हो रहा था।
अटकल यह भी लगाई जा रही थी कि क्योंकि इस बीमारी के तार चीनी सेना के साथ जुड़े हुए थे, इसीलिए वहां की सरकार ने बात छिपाने और विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी तीन महीने तक अंधेरे में रखने की कोशिश की।
जहां तक आतंकवादियों का प्रश्न है, अमेरिकी विदेशमंत्री हिलरी क्लिंटन ने जैविक हथियारों संबंधी एक सम्मेलन में हाल ही में कहा कि अल कायदा 'माइक्रो बायॉलॉजी (सूक्ष्मजीव विज्ञान) और रसायन विज्ञान में ऐसे उच्चशिक्षा प्राप्त भाइयों' की तलाश मे है, जो 'जनविनाशक हथियार बनाने में' मदद दे सकें।
अनुमान लगाया जा सकता है कि जब अमेरिका का यह हाल है, तो भारत की क्या गत हो सकती है, जो अल कायदा ही नहीं, देश और विदेश के और भी कई आतंकवादी संगठनों के निशाने पर है। भारत में आतंकवादी हमलों की ऐसी कई घटनाएं पहले ही हो चुकी हैं, जो उच्चशिक्षा प्राप्त आतंकवादियों की कारस्तानियां रही हैं।