उद्योगों में निराशा की झलक

विट्‍ठल नागर

रविवार, 16 मार्च 2008 (18:02 IST)
देश के उद्योगों का उत्पादन अमेरिकी मंदी, वैश्विक वित्तीय बाजार के उभरते संकट से अथवा चीन के आयात से प्रभावित हो रहा है तो सरकार को इसका विस्तृत अध्ययन कराना चाहिए एवं यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था को ठेस किस-किस स्थान पर कौन-कौन पहुँचा रहा है। ऐसे अध्ययन के बाद ही सही नीतिगत निर्णय लिए जा सकते हैं। बगैर अध्ययन के औद्योगिक क्षेत्रों की करों व गैर करों में राहत माँगों की उपेक्षा करना गलत साबित हो सकता है। ऐसे में उद्योगों को अपनी लागत घटाने एवं मूल्यों में वृद्धि न लाकर निवेश बढ़ाने की सलाह कैसे दी जा सकती है?

वित्तीय वर्ष 2007-08 के दस माह (अप्रैल से जनवरी) में देश के औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि उत्साहप्रद लगती है और संभव है कि वित्तीय वर्ष की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च) का सूचकांक भी बेहतर रहे बशर्ते कि केंद्र सरकार अधिक खर्च करे एवं भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दर में कुछ राहत दे। केंद्र के ताजे बजट में खर्च के आँकड़ों से लगता है कि अर्थव्यवस्था में मुद्रा की प्रवाहिता बढ़ेगी एवं उपभोक्ता अधिक खर्च करेंगे।

ऐसा होने पर औद्योगिक क्षेत्र में निवेश भी बढ़ेगा एवं उद्योग अपनी उत्पादन क्षमता के विस्तार में दिलचस्पी लेंगे। किंतु माह जनवरी 2008 के औद्योगिक उत्पादन के सूचक अंकों के 12 मार्च को जारी आँकड़ों को देखकर यही लगता है कि औद्योगिक क्षेत्र में निराशा छा रही है क्योंकि टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की ही उत्पादन रफ्तार नहीं घटी वरन पूँजीगत माल उद्योग एवं उससे संबंधित मध्यवर्ती व बुनियादी माल के उत्पादन व खपत के आँकड़े नकारात्मक स्थिति में पहुँच गए हैं। ये आँकड़े औद्योगिक मंदी की ओर इंगित करते हैं।

मंदी की ओर इशारा करने वाले तीन-चार आँकड़े बहुत स्पष्ट हैं और वे यही बताते हैं कि जनवरी 2007 की तुलना में जनवरी 2008 में न केवल औद्योगिक उत्पादन अधिक घटा है वरन निवेश का उत्साह भी कमजोर पड़ा है। यह स्थिति तब बनी जब शीघ्र खपत वाली उपभोक्ता वस्तुओं में खरीदी की स्थिति जनवरी 2007 की तुलना में अधिक बेहतर रही।

(1) जनवरी 2008 में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में केवल 5.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि जनवरी 2007 में वृद्धि 12 प्रतिशत से कुछ कम रही थी। (2) वर्ष 2008 में विनिर्माण क्षेत्र के उद्योग सूचकांक में 5.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि जनवरी 2007 में 12.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। (3) टिकाऊ उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र के उत्पादक उद्योगों को बहुत बड़ी चोट पहुँची है।

1 जनवरी 2007 में इस क्षेत्र के उद्योगों के उत्पादन सूचकांक में 5.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई भी जबकि जनवरी 2008 में इसके उत्पादन का सूचकांक ऋणात्मक हो गया एवं (-) 3.1 प्रतिशत रहा। यह माना जा सकता है कि इस क्षेत्र में दुपहिया वाहनों की माँग घटी है किंतु इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं की माँग बढ़ी है- क्या इस माँग की पूर्ति आयात से ही हो रही है। देश के कारखाने ठप पड़ गए हैं?

वर्ष 1 जनवरी 2007 में पूँजीगत माल क्षेत्र के उद्योगों के उत्पादन में 16.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी किंतु जनवरी 2008 में वृद्धि दर महज 2.1 प्रतिशत रही। पूँजीगत माल क्षेत्र का सबसे बड़ा उपभोक्ता विद्युत क्षेत्र है। यह क्षेत्र प्रतिवर्ष 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। ऐसे में प्रश्न यह है कि इस क्षेत्र के उत्पादन सूचकांक में मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि क्यों हुई? क्या विद्युत कंपनियों टर्बाइन व जनरेटर आयात कर रही है एवं देश में विद्युत उपकरण बनाने वाली कंपनियाँ हाथ पर हाथ धरे बैठी हैैं?

इस संबंध में चार बातें हो सकती हैं। पहली तो यह है कि जनवरी 2008 के आँकड़ों में पुनः संशोधन संभव है क्योंकि जनवरी 2007 में भी सूचकांक में वृद्धि के आँकड़े कुछ कम थे किंतु अंतिम संशोधन में सूचकांक में अधिक वृद्धि दर्ज हो गई। ऐसा ही वर्ष जनवरी 2008 के आँकड़ों के संबंध में भी संभव है। देखा जाए तो दिसंबर 2007 के आँकड़े जनवरी 2008 से अधिक अच्छे हैं लिहाजा एक माह में सूचकांक के आँकड़ों में जमीन-आसमान का फर्क कैसे आ सकता है? इसकी छानबीन होना चाहिए।

देश के अधिकांश विश्लेषक इसी बात से सहमत दिखाई देते हैं। जनवरी 2006 के आँकड़े औसत रहे थे- इसलिए जनवरी 2007 के सूचकांक के आँकड़ों में जोरदार उछाला आ गया- तब ऐसा लगा कि औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक हिमालय की चोटी पर पहुँच रहा है इतने तेज उछले की बजट से जनवरी 2008 में सूचकांकों की वृद्धि दर कुछ कम पड़ गई। क्योंकि उन्हें बहुत ऊँची पहाड़ी को लाँघना पड़ा है।

तीसरी बात है अमेरिका व पश्चिमी योरपीय देशों की अर्थव्यवस्था में धीमापन, जिससे विनिर्माण व पूँजीगत माल क्षेत्र के कई उद्योगों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है एवं उनका निर्यात घटा है- किंतु अगर केंद्र के वाणिज्य व उद्योग मंत्री की बात को मानें तो देश का सकल निर्यात में निर्धारित लक्ष्य से महज 4 प्रतिशत कम रहने की संभावना है।

लिहाजा यह कहा जा सकता है कि देश के निर्यातकों ने नए बाजार ढूँढ लिए हैं एवं वे निर्यात बढ़ाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। चौथी बात यह है कि भारत सरकार कई देशों के साथ विस्तृत आर्थिक करार कर रही है एवं पूर्वी एशियाई देशों के आयात को सुगम बनाने के लिए 'मुक्त व्यापार करार' कर रही है।

इससे देश में ऐसे माल के आयात में वृद्धि हो रही है जो कि भारत में बनते हैं। आज देश के बाजार चीन के इलेक्ट्रॉनिक्स व इलेक्ट्रिक मालों से भरे हुए हैं और वे भारत में निर्मित माल से काफी सस्ते में बिक रहे हैं। अगर इस्पात, सीमेंट, एल्युमिनियम व खनिज को छोड़ दें तो चीन का हस्तक्षेप सभी क्षेत्र के उद्योगों के उत्पादन पर पड़ रहा है।

अगर देश के उद्योगों का उत्पादन अमेरिकी मंदी, वैश्विक वित्तीय बाजार के उभरते संकट से अथवा चीन के आयात से प्रभावित हो रहा है तो सरकार को इसका विस्तृत अध्ययन कराना चाहिए एवं यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था को ठेस किस-किस स्थान पर कौन-कौन पहुँच रहा है। ऐसे अध्ययन के बाद ही सही नीतिगत निर्णय लिए जा सकते हैं। बगैर अध्ययन के औद्योगिक क्षेत्रों की करों व गैर करों में राहत माँगों की उपेक्षा करना गलत साबित हो सकता है। ऐसे में उद्योगों को अपनी लागत घटाने एवं मूल्यों में वृद्धि न लाकर निवेश बढ़ाने की सलाह कैसे दी जा सकती है?

भारतीय रिजर्व बैंक अप्रैल माह में अपनी मौद्रिक नीति समीक्षा जाहिर करेगा एवं 31 मार्च 2008 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष 2007-08 की जीडीपी (आर्थिक) वृद्धि दर संबंधी रिपोर्ट मई माह में जारी होगी। लिहाजा यह तय है कि तब तक बैंक ब्याज दर में कमी नहीं होगी क्योंकि मुद्रास्फीति की दर 5 प्रतिशत से अधिक हो गई है- जो कि भारतीय रिजर्व बैंक को सुहा नहीं सकती।

सबसे अधिक चिंता की बात यही है कि जब आर्थिक वृद्धि दर में धीमापन आ रहा है तब मुद्रास्फीति की दर भी धीमी पड़ना चाहिए पर वैसा नहीं हो रहा है। केंद्र सरकार का 7 लाख करोड़ रु. से अधिक का खर्च एवं उस पर केंद्र के कर्मचारियों के लिए गठित छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट मुद्रा के फैलाव को ही अधिक बढ़ाएगी। फिर आयातित महँगाई की मार भी पड़ेगी। क्योंकि विश्व बाजार में खनिज तेल एवं खाद्यान्नों के भाव आसमान पर पहुँच रहे हैं।

अगर वित्त मंत्री के साथ प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार यह कहते हैं इन आँकड़ों से घबड़ाना नहीं चाहिए। उनकी राय में अमेरिका की मंदी की स्थिति हमारे हित में है। इस मंदी से देश में डॉलर की आवक सामान्य रहेगी जिससे देश की प्रणाली में तरलता अधिक नहीं बढ़ेगी-जो भारतीय अर्थव्यवस्था के हित में रहेगी। देश में उपभोक्ता माँग बढ़ने की बहुत अच्छी संभावना है और बात देश के उद्योगों को अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने का हौसला देगी जिससे निवेश बढ़ेगा। अर्थात उनकी राय में भारत में आर्थिक वृद्धि की स्थिति अभी भी कायम है और लगातार पाँचवें वर्ष में भी वृद्धि दर आकर्षक बनी रहेगी।

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